'जातिगत भेदभाव खत्म किया जाए', अंबेडकर स्मृति व्याख्यान में बोले जस्टिस चंद्रचूड़  

सुप्रीम कोर्ट के जज (Supreme Court) जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा,अन्याय और बहिष्करण की प्रक्रिया को समाप्त किया जाना चाहिए. यह आवश्यक है कि समाज के विशेषाधिकार प्राप्त सदस्य अतीत की बेड़ियों से मुक्त हों.

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सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ बी.आर. अंबेडकर स्मृति व्याख्यान में बोले
नई दिल्ली:

सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ (Justice DY Chandrachud) जाति व्यवस्था को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस धनंजय वाई चंद्रचूड़ ने अहम टिप्पणी की कि उच्च जाति की व्यावसायिक उपलब्धियां उस जाति की पहचान को चमकाने के लिए पर्याप्त हैं. निचली जाति के व्यक्तियों के लिए ये कभी भी उस तरह से सच नहीं होंगी. इसलिए जातिगत भेदभाव (Caste discrimination) खत्म करना आज की जरूरत है. भीमराव अम्बेडकर स्मृति व्याख्यानमाला के 13वें आयोजन पर मुख्य भाषण करते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने "संकल्पना सीमांतकरण: एजेंसी, अभिकथन, और व्यक्तित्व" विषय की व्याख्या करते हुए कहा कि जातिहीनता एक विशेषाधिकार है जिसे केवल उच्च जाति ही वहन कर सकती है. जाति व्यवस्था में निचली जाति के लोगों को आरक्षण जैसे कानून के संरक्षण का लाभ उठाने के लिए अपनी जाति की पहचान को बनाए रखना होगा. लेकिन जाति व्यवस्‍था के बहिष्कार की प्रक्रिया को एक ओर रखा जाना चाहिए.

यह लाजिमी है कि समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग अतीत की बेड़ियों से मुक्त होकर हाशिए पर रह रहे समुदाय के सदस्यों को मान्यता और सम्मान प्रदान करें. समाज में परिवर्तन लाने के लिए हमें डॉ बीआर अंबेडकर के विचारों का आज के संदर्भ में उपयोग करना चाहिए.

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इस कार्यक्रम का आयोजन राजधानी दिल्ली में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज और रोजा लक्जमबर्ग स्टिफ्टुंग, दक्षिण एशिया द्वारा किया गया था. न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ ने समाज की मुख्य धारा से उपेक्षित होकर किनारे होते होते हाशिए पर पड़े वर्गों- महिलाओं, समलैंगिकों और विकलांग लोगों के बारे में भी बात करते हुए कहा कि "हाशिए पर रहने की स्थिति न केवल निचली जाति के सदस्यों के लिए होती है, बल्कि उन लोगों के लिए भी होती है जो अपने माध्यम से मुख्यधारा के 'आदर्श' से भटक जाते हैं. जैसे लैंगिकता, कामुकता, आदि भी इस राह में आते हैं.

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उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि अपमान समाज का वो हिस्सा बन जाता है जहां उत्पीड़न होता है. इसे प्रत्यक्ष और भौतिक होने की आवश्यकता नहीं होती है. यह अप्रत्यक्ष और संस्थागत भी हो सकता है.

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उन्होंने कहा कि मुझे संस्था और समाज द्वारा किए गए अपमानों के बारे में भी याद दिलाना चाहिए. अभी से 72 साल पहले हमने खुद को न्याय, स्वतंत्रता और सभी के लिए समानता पर आधारित एक संविधान दिया था. हालांकि, 2005 में ही महिलाओं को समान सहयोगी के रूप में माना जाता था. 2018 में समलैंगिकता को अपराध से मुक्त कर दिया गया था. एक भेदभावपूर्ण कानून को निरस्त करने से, भेदभावपूर्ण व्यवहार स्वतः उलट नहीं होता है. यह अपमान का संस्थागत अपराध है. उन्होंने कहा कि महिलाओं के लिए स्थायी कमीशन की अनुमति देने, समलैंगिकता को अपराध से मुक्त करने जैसे निर्णय मौजूद हैं, लेकिन उनके प्रभाव अभी भी अनियंत्रित हैं.

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