हर साल हजारों लोग मुंबई आते हैं बॉलीवुड में नाम बनाने का सपना लेकर लेकिन कुछ ही ऐसे होते हैं जिन्हें किस्मत खुद बुलाती है. कादर खान उन्हीं में से एक थे. अफगानिस्तान के काबुल से आए एक छोटे से बच्चे ने कमाठीपुरा की गलियों से निकलकर हिंदी सिनेमा का सबसे दमदार नाम बना लिया. उन्होंने न सिर्फ एक्टिंग में कमाल किया बल्कि बतौर राइटर भी वो हिंदी सिनेमा की आवाज़ बन गए. कादर खान का जन्म काबुल में हुआ था और बचपन बेहद मुश्किलों में बीता. तीन भाइयों को खोने के बाद उनकी मां भारत आ गईं और मुंबई के कमाठीपुरा में बस गईं. वहीं से कादर का असली संघर्ष शुरू हुआ. गरीबी, अपराध और गंदगी के बीच भी उन्होंने अपनी मां की बात मानी और पढ़ाई पर ध्यान दिया. यही पढ़ाई उन्हें आगे ले गई. उन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली और बाद में उसी कॉलेज में प्रोफेसर बन गए. पर किसे पता था कि उनका असली मंच क्लासरूम नहीं बल्कि फिल्मी दुनिया होगी.
थिएटर से लेकर दिलीप कुमार तक का सफर
एक दिन कॉलेज में उनके दोस्तों ने उन्हें नाटक में धकेल दिया. बस वहीं से जादू शुरू हुआ. उनके डायलॉग बोलने के अंदाज़ ने सबको हैरान कर दिया. थिएटर के मंच से उनकी आवाज़ इतनी गूंज उठी कि खुद दिलीप कुमार तक पहुंच गई. दिलीप साहब ने उनका नाटक देखा और वहीं से कादर खान के अभिनय का सफर शुरू हुआ. जल्द ही उन्हें ‘सगीना' और ‘बैराग' जैसी फिल्मों में काम मिला. यही वह पल था जब एक प्रोफेसर ने बॉलीवुड का सितारा बनने की दिशा पकड़ ली.
इनका लिखा हर डायलॉग बन गया आइकॉनिक
एक्टर तो वो कमाल के थे ही, लेकिन लेखक के तौर पर उन्होंने जो किया, वो किसी जादू से कम नहीं था. ‘रोटी', ‘अमर अकबर एंथनी', ‘मुकद्दर का सिकंदर' और ‘मिस्टर नटवरलाल' जैसी फिल्मों में उनके डायलॉग्स आज भी याद किए जाते हैं. 'बचपन से सर पर अल्लाह का हाथ, और अल्लाह रक्खा है अपने साथ' जैसे डायलॉग्स ने उन्हें अमर बना दिया. उन्होंने कहा था, 'मैं सफलता के पीछे नहीं भागा, मुझे गरीबों के धक्के ने आगे बढ़ाया'. आज भी बॉलीवुड में कोई कादर खान की कलम और आवाज़ को नहीं भुला पाया है.
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