
हिंदी सिनेमा में कई फिल्में आईं और गईं, लेकिन ‘शोले' का जादू आज भी बरकरार है. यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक ऐसा सिनेमाई अनुभव है जिसमें हर किरदार, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, दर्शकों के दिल में जगह बना गया. फिल्म का एक डायलॉग तो आज भी लोगों की ज़ुबान पर है- “अरे ओ सांभा, कितना इनाम रखा है सरकार ने?” जवाब-“पूरे पचास हज़ार.” सिर्फ यही एक संवाद, और पर्दे पर चंद मिनटों की मौजूदगी, मैक मोहन को हमेशा के लिए अमर कर गई. ‘शोले' से पहले वे छोटे-मोटे किरदारों में नज़र आते थे, लेकिन पहचान कम ही थी.
दिलचस्प बात यह है कि वे अभिनेत्री रवीना टंडन के मामा थे. जब रमेश सिप्पी ने उन्हें ‘शोले' में सांभा का रोल ऑफर किया, तो उनका पहला सवाल था- “पूरी फिल्म में मेरा एक ही डायलॉग है, क्या मुझे ये फिल्म करनी चाहिए?” सिप्पी का जवाब था- “यही एक डायलॉग तुम्हारी पहचान बना देगा.” और हुआ भी यही.
रमेश सिप्पी के निर्देशन और सलीम-जावेद की लिखी स्क्रिप्ट ने सांभा को गब्बर सिंह के सबसे भरोसेमंद साथी के रूप में स्थापित कर दिया. गब्बर का बार-बार “अरे ओ सांभा” पुकारना दर्शकों के मन में यह धारणा पक्का कर देता था कि गिरोह में उसकी अहमियत सबसे ज़्यादा है.
कैमरे की भाषा भी उतनी ही असरदार थी. हर बार गब्बर के बुलाने पर कैमरा नीचे से ऊपर पहाड़ की चोटी की तरफ घूमता, जिससे यह इमेज हमेशा के लिए तय हो गई कि सांभा का ठिकाना वहीं है. यही होती है कमाल की सिनेमाई भाषा—संवाद से किरदार को पहचान देना और कैमरे से उसकी जगह तय कर देना. दिलचस्प बात यह भी है कि फिल्म के अंत में सांभा मारा जाता है, लेकिन यह दर्शकों को दिखता नहीं.
मैक मोहन ने खुद एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें भी नहीं पता चला कि फिल्म में उनका अंत कब हुआ. शायद इसलिए क्योंकि उस समय क्लाइमैक्स पर ही इतना विचार-विमर्श चल रहा था कि यह सवाल पीछे रह गया. ‘शोले' में सांभा अकेला ऐसा छोटा रोल नहीं था जो अमर हो गया. इस फिल्म के कई किरदार-सुरमा भोपाली, जेलर, इमाम साहब—आज भी दर्शकों की याद में ज़िंदा हैं. यही है ‘शोले' का जादू-जहां हर चेहरा, हर आवाज और हर डायलॉग एक याद बन जाता है.
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