साल 2011 में रिलीज हुई फिल्म 'डर्टी पिक्चर' में एक डायलॉग था कि फिल्में केवल तीन वजहों से चलती है, वो वजह है इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमें और इंटरटेनमेंट. लेकिन क्या वाकई फिल्मों का मतलब केवल मनोरंजन मात्र है. शायद नहीं. भारतीय सिनेमा जगत में कई ऐसे बेहतरीन फिल्मकार हुए हैं जिनकी बनाई फिल्में न लोगों का मनोरंजन करती हैं, बल्कि बेहद जरूरी और गंभीर मुद्दों को उठाती हैं. ऐसे ही एक कमाल के फिल्मकार थे वी शांताराम. उनका समय सिनेमा का वो दौर था जब मूक फिल्में बन रही थी और उसके बाद बोलती फिल्मों की शुरुआत ही हुई थी, लेकिन इस शुरुआती दौर में भी वी. शांताराम ने ऐसी बेहतरीन फिल्में बनाईं जिन्हें आज भी मास्टरपीस के रूप में याद किया जाता है. उनकी फिल्मों की चर्चा हिन्दुस्तान की दायरे बाहर विदेशों में भी की जाती थी. चार्ली चैप्लिन जैसे अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अभिनेता ने भी शांताराम के फिल्मों की प्रशंसा की थी. 18 नवंबर को इस महान फिल्मकार की जयंती है. इस मौके पर बात करते हैं उनकी कुछ बेहतरीन फिल्मों की.
दो आंखे बारह हाथ(1957)-
जेल में बंद खूंखार कैदियों को अपनी जिम्मेदारी पर बाहर लाने का प्रयोग करते हुए दिलीप कुमार साहब को 1986 में बनी फिल्म 'कर्मा' में दिखाया गया है. ब्लॉकबस्टर फिल्म 'शोले' में भी संजीव कुमार पेशेवर अपराधियों पर विश्वास करते हैं. लेकिन इन फिल्मों के बहुत पहले ही वी. शांताराम दुर्दांत अपराधियों के मानवीय और भावनात्मकर पक्ष पर प्रकाश डालती फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' का निर्माण कर चुके थे. इस फिल्म को बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी पेश किया. फिल्म को समीक्षकों की खासी सराहना मिली. फिल्म का संगीत भी हिट रहा. 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम....' ये गाना इसी फिल्म का है, जिसे लता मंगेशकर ने स्वर दिया था.
माणूस/आदमी (1939)-
मूल रूप से ये फिल्म एक मराठी फिल्म थी जिसे 'माणूस' इस टाइटल के साथ बनाया गया था. मराठी में माणूस का अर्थ आदमी या इंसान से होता है. ये फिल्म बेहद पसंद की गई और इसे हिन्दी में 'आदमी' इस शीर्षक से बनाया गया. यही वो फिल्म थी जिसकी प्रशंसा चार्ली चैपलिन ने खुलकर की थी. इस फिल्म की कहानी एक पुलिस कांस्टेबल और एक वेश्या के प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई है. पुलिस कांस्टेबल वेश्या से प्रेम करता है और समाज के नियमों के विरुद्ध वेश्या को अपना लेता है, लेकिन समाज इस संबंध को नहीं मानता है. फिल्म का अंत दुखद है और ये दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देता है.
पिंजरा (1972)-
ये फिल्म भी मूल रूप से मराठी में बनाई गई थी. बाद भी इसे हिन्दी में बनाया गया. इसी फिल्म से मराठी सिनेमा के सशक्त हस्ताक्षर डा. श्रीराम लागू ने अपने फिल्मी सफर की शुरुआत की थी. फिल्म में वी. शांताराम की पत्नी संध्या के अभिनय को भी बेहद सराहा गया. फिल्म में एक अध्यापक के एक तमाशा दिखाने वाली के प्रेम में पड़ने की कहानी है. विडंबना ये है कि ये अपने रिश्ते को स्वीकार भी नहीं कर सकते. फिल्म की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ये फिल्म पुणे के एक थिएटर में लगातार 134 हफ्ते चली थी.
नवरंग (1959)
इस फिल्म का एक बेहतरीन गीत उस वक्त किया गया एक गजब का प्रयोग था. 'अरे जा रे हट नटखट.... ना छू रे मेरा घूंघट...' इस गाने पर लड़के और लड़के दोनों ही का नृत्य करते हुए अभिनेत्री संध्या को देखना अद्भुत था. सी रामचंद्र के म्यूजिक और आशा भोंसले की आवाज से सजा ये गाना आज भी क्लासिक की श्रेणी में शुमार किया जाता है.
धर्मात्मा (1935)
ये फिल्म महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत एकनाथ के जीवन पर आधारित थी. इस फिल्म का शीर्षक पहले 'महात्मा' था फिल्म का विषय छूआछूत जैसी बुराई पर आधारित था. जिस वक्त 1935 में ये फिल्म बनी थी उस समय सेंसर बोर्ड को फिल्म के कई दृश्यों पर आपत्ति थी, लिहाजा ये फिल्म सेंसर से पास नहीं हो सकी. ये भी कहा गया कि महात्मा गांधी के नाम को भुनाने के लिए फिल्म का टाइटल 'महात्मा' रखा गया है. आखिरकार शांताराम को फिल्म का टाइटल बदलकर धर्मात्मा रखने पर मजबूर होना पड़ा. इस फिल्म से तत्कालीन समाज में अस्पृश्ता के खिलाफ और समानता की बात को काफी मजबूती मिली.
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