फिल्म 'धुरंधर' का एक संवाद है- 'किस्मत के साथ एक अच्छी बात यह होती है कि समय आने पर वह पलट जाती है.' इस फिल्म की किस्मत भी समय पर पलटी है. वरना सच बताने का दावा या दिखावा करने वाली यह फिल्म कई तरह की लेखकीय और निर्देशकीय चूकों से भरी है.
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पहली चूक: मेजर इकबाल बताता है कि 1972 में उसने जिया उल हक का भाषण सुना था कि भारत को हजार जख्म देंगे. लेकिन क्या 1972 में जिया उल हक ऐसी हैसियत में थे कि उनका ऐसा कोई बयान सुना जा सके? यह जुल्फ़िकार अली भुट्टो का था. यह चूक कैसे हुई?
दूसरी चूक: पाकिस्तान में बैठे हैंडलर वहीं से टीवी चैनलों को देखकर आतंकियों को निर्देश दे रहे हैं. लेकिन यह सच है कि अगले ही दिन से मीडिया 'डेफर्ड लाइव' दिखा रहा था- यानी जो घटना पंद्रह मिनट पहले हुई है, वह लाइव की तरह दिखा रहा था. फिर यह एनएसजी के तात्कालिक प्रमुख थे जो हर घंटे एनएसजी जवानों की पोजीशन बता रहे थे. कायदे से अगर कोई संगीन जानकारी सार्वजनिक कर रहा था तो वह खुद एनएसजी प्रमुख थे. फिल्म यहां चुपचाप है.

तीसरी चूक: फिल्म की कहानी इतने लचर ढंग से लिखी गई है कि भारत का तथाकथित जासूस पाकिस्तान में कसाब को खुद हथियार देता है. चूंकि यह कोई सच्ची घटना नहीं है, इसलिए यह लेखकीय चूक है कि उसने भारतीय जासूस को ऐसी विषम स्थिति में डाला.
चौथी चूक: 26/11 के हमले में बलोचों की मदद की कोई बात कभी नहीं आई. लेकिन यह फिल्म बताती है कि बलोचों ने ही इस हमले के लिए हथियार मुहैया कराए. यह इसके असली गुनहगारों को बचाने का काम है.

पांचवीं चूक: फिल्म का नायक रणबीर सिंह पहले रहमान डकैत के साथ है, फिर वह पाकिस्तान के भ्रष्ट नेता के साथ हो जाता है और रहमान डकैत को मार डालता है. इसका तर्क कम से कम फिल्म के इस हिस्से में नहीं मिलता. लगता है कि भारत का यह जासूस भटक रहा है.
छठी चूक: पाकिस्तान के बड़े ताकतवर नेता की बेटी घर से ग़ायब है. लेकिन उसे उसकी परवाह तक नहीं होती. वह किसी से पता करने की कोशिश तक नहीं करता कि बेटी कहां है. वह पुलिस में शिकायत भले न कराए, लेकिन अपने स्रोतों से उसका पता लगवाने की कोशिश तो कर ही सकता है.
सातवीं चूक: घर से निकलने से पहले बेटी मंत्री और डीएसपी की बातचीत का ऐसा वीडियो बना डालती है जैसे उसे बाकायदा इजाजत लेकर शूट किया गया हो. क्या चुपके से शूट किए गए वीडियो ऐसे फिल्मी होते हैं?

आठवीं चूक: शिकायत यह नहीं है कि हिंसा के दृश्य लंबे या वीभत्स हैं, आजकल ऐसे दृश्य आम हो चले हैं- शिकायत यह है कि ये फिल्म में एक हद के बाद विश्वसनीय भी नहीं लगते और ऊब ही पैदा करने लगते हैं- खासकर रणबीर सिंह और अक्षय खन्ना का बहुत लंबा खिंचा फाइट सीन रोमांच नहीं, झल्लाहट पैदा करता है.
नौवीं चूक: रहमान डकैत बिल्कुल हिंदुस्तानी अंदाज में सिर झुका कर हाथ उठाकर सलाम करता है. यह सलामी बलोच सलामी नहीं है.
दसवीं चूक: फिल्म में दिखने वाली छोटी सी प्रेम कहानी भी आधी-अधूरी नहीं, बल्कि अजीब सी है. अपने पिता से मोहब्बत करने वाली लड़की अपने पिता को मारने की योजना बना रहे शख्स पर रीझी हुई है, उसके लिए पिता की जासूसी तक करती है, लेकिन भारत का जासूस उसे अपनी असलियत तक नहीं बता पाता. यह ठीक है कि वह अपनी सच्चाई उजागर नहीं कर सकता था, लेकिन लेखक-निर्देशक ने फिर ऐसी स्थिति क्यों बनाई कि एक भारतीय जासूस एक लड़की से धोखा करता नजर आए?

यह सच है कि बॉलीवुड की मुख्यधारा की फिल्में हमेशा से अतिरंजना की शिकार रही हैं. लेकिन इस अतिरंजना को भी विश्वसनीय बनाने की कोशिश होती है. इस काम में कलाकारों का अभिनय, निर्देशक का हुनर सब काम आते हैं. इस फिल्म में कलाकारों का अभिनय तो बेहतर है, लेकिन निर्देशकीय पकड़ जहां-तहां छूटी है. इसका एक असर यह हुआ है कि साढ़े तीन घंटे बाद भी फिल्म पूरी नहीं हो पाई है. दूसरी बात यह कि यह ऐसी फिल्म बन गई है जिसमें भारतीय जासूसी पूरी तरह नाकाम दिखती है. पाकिस्तान की अराजकता और तथाकथित भारतीय जासूस की बहादुरी पर रीझे लोग इसे देशभक्ति की फिल्म बता रहे हैं और इसकी कमियों की ओर इशारा करने वालों को देशद्रोही करार दे रहे हैं, लेकिन सच यह है कि पहली बार किसी फिल्म में भारतीय एजेंसियां पाकिस्तान में जासूस नहीं, हत्या की मशीन भेजने की बात करती हैं, और इससे भी भारत के राष्ट्रवाद की गरिमा कुछ कम होती है. लेकिन जिनकी आंखों पर नकली और आसान देशप्रेम की पट्टी बंधी हो, उनके लिए यह पचाना मुश्किल है. उनके लिए फिल्म की आलोचना सीधे देश की आलोचना हुई जा रही है.
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