हैदराबाद युनिवर्सिटी के एक दलित छात्र की आत्महत्या ने हमारे सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। आधुनिक समाज और समय का दावा करने वाले हम ये अपनी आंख से क्यों नहीं देख पाते हैं कि हमारी संस्थाएं आधुनिक हैं भी या नहीं? उनकी सज़ाएं सामंतवादी और जातिवादी सोच से क्यों मिलती जुलती हैं? गांव से निकाल देना, कुएं से पानी नहीं पीने देना, मंदिर में घुसने से रोक देना और होस्टल से निकाल देना, लाइब्रेरी में नहीं जाने देना, कैंपस में नहीं आने देना। ये सज़ा है या सज़ा के नाम पर उसी मानसिकता की निरंतरता?