हिंदी की लेखिका अलका सरावगी ने अपने एक कॉलम में लिखा था- इस देश में गरीब आदमी कुत्ते की मौत मरता है और अमीर आदमी वेंटिलेटर की. कई प्राइवेट अस्पताल बिल्कुल मॉल में बदल गए हैं. बाहर से देखने में भी और दुकानदारी में भी. आपको आद्या नाम की सात साल की बच्ची की याद है? शायद नहीं ही होगी. इस सुपरसोनिक समय में हम इतनी तेज़ी से बढ़ रहे हैं कि कुछ भी याद नहीं रखते. सितंबर 2017 में सात साल की इस बच्ची को डेंगू हुआ था. गुड़गांव के एक कॉरपोरेट अस्पताल में दो हफ़्ते उसका इलाज़ चला. इलाज़ में लापरवाही की बात सामने आई और बच्ची को बचाया नहीं जा सका. लेकिन अस्पताल ने 16 लाख का बिल जरूर बना दिया. ये अकेला मामला नहीं है. इलाज में लापरवाही के मामले सालाना 110 फ़ीसदी के हिसाब से बढ़ रहे हैं. इसी हिसाब से डॉक्टरों की फीस भी बढ़ रही है और तरह-तरह की जांच का तामझाम भी.यही नहीं, इलाज में तरह-तरह के रैकेट चलने लगे हैं- किडनी रैकेट, ब्लड बैंक रैकेट.सोचने से डर लगता है कि जान बचाने का जो काम कभी भगवान के काम के बराबर समझा जाता था, उसकी दुकानें ही नहीं खुल गई हैं, उसका काला बाज़ार भी खड़ा हो गया है.