2017 से पहले 16 से 18 साल की पत्नी से यौन संबंध रेप नहीं था... इलाहाबाद हाई कोर्ट ने SC के फैसले की क्यों दिलाई याद, पढ़ें

कोर्ट ने कहा कि अपील करने वाला बेल पर है और उसका पर्सनल बॉन्ड कैंसल कर दिया गया है. कोर्ट ने दो महीने के अंदर संबंधित कोर्ट की संतुष्टि के लिए सीआरपीसी की धारा 437-A के तहत बेल बॉन्ड भरने का निर्देश दिया.

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प्रयागराज:

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कानपुर देहात से जुड़ी एक क्रिमिनल अपील पर सुनवाई करते हुए माना है कि साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले 16 से 18 साल उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध आईपीसी के तहत रेप नहीं था. हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 2017 के इंडिपेंडेंस थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसले का हवाला देते हुए में माना है कि 16 साल से अधिक उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने के लिए एक व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही दोषी ठहराया जा सकता है न कि उससे पहले. 

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस अनिल कुमार ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का हवाला देते हुए याची इस्लाम उर्फ पलटू की क्रिमिनल अपील याचिका को स्वीकार करते हुए 16 साल से अधिक उम्र की लड़की के साथ कथित वैवाहिक रेप के लिए 2007 के दोषसिद्धि और उसकी सजा के आदेश को रद्द कर दिया. मामले के अनुसार आवेदक इस्लाम उर्फ पलटू ने कानपुर देहात के एडिशनल सेशंस जज द्वारा 11 नवंबर 2007 के फैसले के खिलाफ सितंबर 2007 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में क्रिमिनल अपील दायर की थी. 

आवेदक के खिलाफ 2005 में कानपुर देहात के भोगनीपुर थाने में आईपीसी की धारा 363, 366 और 376 में मामला दर्ज हुआ था. आवेदक को ट्रायल कोर्ट ने आईपीसी की धारा 363 के तहत दोषी पाया और उसे पांच साल की सजा सुनाते हुए उसपर एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया था. इसी तरह धारा 366 और 376 के तहत अपराधों के लिए भी ट्रायल कोर्ट ने उसे दोषी ठहराया. धारा 366 के तहत सात साल की सजा और एक हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया और धारा 376 के तहत अपराध के लिए भी सात साल की सजा और दो हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया. 25 सितंबर 2005 को फ़ज़ल अहमद ने शिकायत दर्ज कराई कि उनकी बेटी जिसकी उम्र लगभग 16 साल थी जब वो शौच के लिए बाहर गई थी तभी आवेदक इस्लाम और दो दूसरे लोग उसे बहला-फुसलाकर ले गए.

इस मामले के पिता की शिकायत पर 25 सितंबर, 2005 को एफआईआर दर्ज हुई थी। पीड़िता को 25 सितंबर को बरामद किया गया और बाद में उसे मेडिकल जांच के लिए पेश किया गया. CRPC की धारा 164 के तहत उसका बयान भी दर्ज किया गया था. जांच पूरी होने के बाद आवेदक के खिलाफ पुलिस ने ट्रायल कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की थी. चार्जशीट में आवेदक के खिलाफ आईपीसी की धारा 363, 366 और 376 के तहत आरोप तय किए गए. जबकि आवेदक का कहना था कि दोनों मुस्लिम है और उसने सहमति से पीड़िता से निकाह किया था. 

ट्रायल कोर्ट ने पीड़िता को नाबालिग मानते हुए उसकी सहमति को महत्वहीन मानते हुए दुष्कर्म, अपहरण, विवाह के लिए मजबूर करने के इरादे से  दोषी करार देते हुए सजा सुनाई. इस फैसले को अपीलकर्ता इस्लाम ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी थी. आवेदक के अधिवक्ता ने हाईकोर्ट में दलील दी कि पीड़िता की मेडिकल जांच रिपोर्ट के मुताबिक उसकी उम्र 16 वर्ष से अधिक थी हालांकि 18 वर्ष से अधिक नहीं थी. पीड़िता और आवेदक दोनों मुस्लिम थे और उन्होंने निकाह किया था. पीड़िता के बयान से यह स्पष्ट था कि यौन संबंध विवाह के बाद बनाए गए थे. ऐसे में आवेदक को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

हाई कोर्ट ने सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के इंडिपेंडेंट थॉट मामले में दी की गई टिप्पणियों का हवाला देते हुए कहा कि यह बहुत स्पष्ट है कि आईपीसी की धारा 375 अपवाद दो को इस आधार पर रद्द कर दिया गया है कि ये प्रावधान POCSO एक्ट के प्रावधानों के साथ असंगत है और अनुच्छेद 14, 15 और 21 का भी उल्लंघन है. लेकिन यह भी माना गया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का भावी प्रभाव होगा. 

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कोर्ट ने कहा कि इस मामले में यह स्पष्ट है कि कथित घटना साल 2005 में हुई थी. इसलिए आवेदक को रेप के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि घटना के समय पीड़िता 16 साल से अधिक की थी. अपील करने वाले को आईपीसी की धारा 363, 366 और 376 के तहत दोषी ठहराया गया. एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि आवेदक शिकायत करने वाले की 16 साल की बेटी को बहला-फुसलाकर ले गया था. 

आवेदक करने वाले ने हाईकोर्ट में दलील दी कि उसने और पीड़िता ने 29 अगस्त 2005 को शादी की थी और निकाहनामा भी पेश किया था. ट्रायल कोर्ट ने पाया कि पीड़िता के बयान के आधार पर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि उसे बहला-फुसलाकर ले जाया गया था. उसने देखा कि दोनों ने निकाह किया और एक महीने तक खुशहाल शादीशुदा जोड़े की तरह साथ रहे. हालांकि ट्रायल कोर्ट ने अपील करने वाले को दोषी ठहराया क्योंकि पीड़िता नाबालिग थी.

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सज़ा के आदेश के खिलाफ अपील पर फैसला करते हुए कोर्ट ने कहा कि माता-पिता की गवाही से ऐसा कुछ भी पता नहीं चला जिससे पता चले कि अपील करने वाले ने पीड़िता को अपने साथ ले जाने के लिए लालच दिया था. इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि पीड़िता ने अपने बयान में बताया था कि जब आवेदक इस्लाम ने उसे अपने साथ ट्रिप पर चलने के लिए कहा तो वह अपनी मर्ज़ी से गई थी. कोर्ट ने माना कि सिर्फ इसलिए कि उसने उसे अपने साथ ट्रिप पर चलने के लिए कहा यह आईपीसी की धारा 363 के तहत लुभाने और ले जाने का अपराध नहीं दिखाता.

हाई कोर्ट ने कहा कि प्रॉसिक्यूशन कोई सबूत पेश करने में नाकाम रहा है कि अपील करने वाले ने पीड़िता को लुभाया या ले गया था. इसलिए अपील करने वाले के खिलाफ धारा 363 के तहत अपराध नहीं बनता. कोर्ट ने कहा कि क्योंकि वह अपनी मर्ज़ी से उसके साथ भागी थी और अपील करने वाले और विक्टिम के बीच फिजिकल रिलेशन उनकी शादी के बाद बने थे इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि पीड़िता को किडनैप किया गया था. इसलिए धारा 366 के तहत भी कोई जुर्म नहीं बनता. 

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कोर्ट ने इंडिपेंडेंट थॉट्स में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि इस फैसले में आईपीसी और पॉक्सो एक्ट के प्रावधानों पर भी चर्चा की गई थी और यह माना गया था कि आईपीसी और पॉक्सो में निर्धारित रेप की परिभाषा में कोई अंतर नहीं है लेकिन रेप की परिभाषा कुछ अधिक विस्तृत है. यह देखते हुए कि नाबालिग पत्नी के रेप के संबंध में धारा 375 में संशोधन फैसले की तारीख से भावी प्रभाव से किया गया था. 

कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ता को 2005 में अपनी नाबालिग पत्नी के साथ विवाह के बाद यौन संबंध के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता. कोर्ट ने कहा कि इस मामले में यह साफ़ है कि बताई गई घटना साल 2005 में हुई थी. इसलिए अपील करने वाले को रेप के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि घटना के समय पीड़िता 16 साल से ज़्यादा की थी और दोनों के बीच शादी के बाद फिजिकल रिलेशन बने थे. इन बातों को देखते हुए कोर्ट ने आवेदक इस्लाम की अपील मंज़ूर कर ली और  आरोपों से बरी कर दिया। इसलिए ट्रायल कोर्ट के दोषसिद्धि और और सज़ा का आदेश रद्द किया जाता है.

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कोर्ट ने कहा कि अपील करने वाला बेल पर है और उसका पर्सनल बॉन्ड कैंसल कर दिया गया है. कोर्ट ने दो महीने के अंदर संबंधित कोर्ट की संतुष्टि के लिए सीआरपीसी की धारा 437-A के तहत बेल बॉन्ड भरने का निर्देश दिया. ट्रायल कोर्ट का रिकॉर्ड इस फ़ैसले की कॉपी के साथ वापस भेजा जाए। कंप्लायंस रिपोर्ट जल्द से जल्द इस कोर्ट में जमा की जाए. कोर्ट ने ऑफिस को कंप्लायंस रिपोर्ट रिकॉर्ड में रखने का भी निर्देश दिया।

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