वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) के विश्लेषण से पता चलता है कि गंगा के मैदानी क्षेत्र में रह रहा हर नागरिक औसत रूप से अपनी जीवन प्रत्याशा सात साल खो सकता है. इसकी वजह पर्टिकुलेट प्रदूषण के बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश व पश्चिम बंगाल में ज्यादा होना है. यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ईपीआईसी) के शोध से पता चलता है कि ऐसा इस वजह से है कि वायु गुणवत्ता वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) के फाइन पर्टिकुलेट प्रदूषण के दिशानिर्देश के पालन में विफल है. (दिल्ली की प्रदूषित हवा से बचने के 10 आसान तरीके)
इस क्षेत्र में 1998 से 2016 में प्रदूषण में 72 फीसदी की वृद्धि हुई है, जहां 40 फीसदी भारतीय आबादी रहती है.
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साल 1998 में लोगों के जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव आज के प्रभाव का आधा रहा, निवासी अपनी 3.7 साल जीवन प्रत्याशा खो रहे थे.
गंगा के मैदानी क्षेत्र के बाहर रहने वाले नागरिकों में 1998 में जीवन में 1.2 सालों की कमी देखी गई, ऐसा वायु गुणवत्ता की वजह से हुआ.
निष्कर्षो की घोषणा की गई और एक्यूएलआई के पूरे प्लेटफार्म को हिंदी में सुलभ बनाया गया, जिससे पर्टिकुलेट वायु प्रदूषण के बारे में नागरिकों व नीति निर्माताओं को सूचित करने का विस्तार हुआ. पर्टिकुलेट वायु प्रदूषण, वैश्विक स्तर पर मानव स्वास्थ्य के सबसे बड़ा खतरा है.
मिल्टन फ्रीडमैन अर्थशास्त्र में प्रतिष्ठित प्रोफेसर और ईपीआईसी के निदेशक माइकल ग्रीनस्टोन ने कहा, "इस हिंदी संस्करण के जुड़ने से लाखों उपयोगकर्ता यह जानने में सक्षम होंगे कि पर्टिकुलेट प्रदूषण कैसे उनके जीवन को प्रभावित करता है और खास तौर से कैसे वायु प्रदूषण की नीतिया उनकी जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने में बढ़ा बदलाव ला सकती है."
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