12 साल के बच्चे की मार्मिक कहानी, सुप्रीम कोर्ट ने मानी गलती, कस्टडी फिर से मां को सौंपी 

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने फैसले में माना कि सुप्रीम कोर्ट और केरल हाईकोर्ट के ही बच्चे की कस्टडी पिता को सौंपने के आदेश के चलते लड़के की मानसिक और भावनात्मक हालत खराब हो गई.

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  • सुप्रीम कोर्ट ने 12 वर्षीय बच्चे की कस्टडी पिता को देने के अपने पिछले आदेश को बदलते हुए उसे उसकी मां को सौंप दिया है
  • अदालत ने माना कि पिता को कस्टडी देने के फैसले से बच्चे की मानसिक और भावनात्मक स्थिति खराब हो गई थी
  • बच्चे का इलाज वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सा विभाग में चल रहा है और वह अब अपनी मां के साथ रहेगा
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नई दिल्ली:

ये मार्मिक कहानी 12 साल के एक बच्चे की है जो मां - पिता के झगड़े में मानसिक और भावनात्मक रूप से टूट गया. हालत ये हो गए कि उसके मन में डर बैठ गया. उसकी ये हालत देखते हुए देश की सबसे बड़ी अदालत भी पिंघल गई और उसने अपने ही दस महीने पहले के आदेश को बदलते हुए बच्चे को फिर से उसकी मां को सौंप दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में माना कि बच्चे की कस्टडी पिता को देकर उसने गलती की थी.

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने फैसले में माना कि सुप्रीम कोर्ट और केरल हाईकोर्ट के ही बच्चे की कस्टडी पिता को सौंपने के आदेश के चलते लड़के की मानसिक और भावनात्मक हालत खराब हो गई. जबकि अदालतों ने बच्चे के मन को जानने की बजाए लड़ रहे दंपति के वकीलों की दलीलों पर ही फैसला कर दिया था.

ये बच्चा अदालत के आदेश के कारण अब वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सा विभाग में इलाज करा रहा है. अब अदालत ने कहा कि लड़का अपनी मां के साथ रहेगा, जिसने अब दोबारा शादी कर ली है और पिता को उससे मिलने का अधिकार होगा.  यह मामला ऐसे मामलों में न्यायिक कार्यवाही की कमियों को उजागर करता है, जिसका फैसला अदालतों में झगड़ते माता-पिता की दलीलें सुनकर किया जाता है. बिना बच्चे से बातचीत किए कि उसके जैविक माता-पिता के साथ उसकी सहजता कैसी है.

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ये उदाहरण है कि अदालतों को अलग-अलग रह रहे माता-पिता के बीच बच्चे की कस्टडी के विवादों का फैसला केवल कोर्ट रूम में ही नहीं करना चाहिए बल्कि नाबालिगों से बातचीत करके, माता-पिता के साथ उनकी पसंद और सहजता के स्तर के बारे में जानना चाहिए. अब सुप्रीम कोर्ट ने गलती मानी कि उसके और केरल उच्च न्यायालय द्वारा बच्चे की कस्टडी पिता को देने में गलती हुई जो 12 वर्षों में केवल कुछ ही बार बच्चे से मिलने आया था. 

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पीठ ने कहा कि न्यायिक आदेश का बच्चे के स्वास्थ्य पर "बुरा प्रभाव" पड़ा है और उसने बच्चे की कस्टडी मां को देकर अपने आदेश को पलट दिया है इस तथ्य के बावजूद कि मां ने दूसरी शादी कर ली है. इस मामले में, 2011 में शादी के दो साल के भीतर ही दंपति का तलाक हो गया और तब से बच्चा उसके साथ रह रहा था. 

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तलाक के चार साल बाद उसने दोबारा शादी कर ली. 2022 में, पिता ने बच्ची की कस्टडी के लिए फैमिली कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, इस आधार पर कि वह अपने दूसरे पति के साथ मलेशिया जा रही है. फैमिली कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी, लेकिन केरल उच्च न्यायालय और पिछले साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने भी उसकी याचिका स्वीकार कर ली. 

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अदालत के आदेश के कारण बच्चे का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ गया और नैदानिक मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट में कहा गया कि नाबालिग चिंता और भय से ग्रस्त है, जिससे अलगाव चिंता विकार का खतरा बढ़ गया है. इसके बाद, मां ने आदेश को वापस लेने के लिए पुनर्विचार याचिका दायर की और अदालत के समक्ष चिकित्सा रिपोर्ट पेश की. उसकी याचिका स्वीकार करते हुए, अदालत ने कहा, कानूनी अदालतों के लिए यह बेहद कठोर और असंवेदनशील होगा कि वे बच्चे से यह अपेक्षा करें कि वह एक ऐलियन घर स्वीकार करे और फले-फूले, जहां उसका अपना जैविक पिता उसके लिए अजनबी जैसा है. 

हम उस आघात को नजरअंदाज नहीं कर सकते जो अदालतों द्वारा बच्चे की कस्टडी पिता को सौंपे जाने के आदेशों के परिणामस्वरूप बच्चे को पहुंचाया जा रहा है, जिस पर नाबालिग की कोमल भावनात्मक स्थिति के प्रति उदासीनता दिखाने का आरोप है. अदालत ने स्वीकार किया कि बच्चे का बिगड़ता मानसिक स्वास्थ्य "अदालत द्वारा कस्टडी बदलने के आदेश का परिणाम" था. 

अदालत ने आगे कहा कि बच्चा अपनी मां, सौतेले भाई और सौतेले पिता को अपना निकटतम परिवार मानता है और उस माहौल में पूरी तरह सुरक्षित महसूस करता है. ऐसा कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है जिससे पता चले कि याचिकाकर्ता की बाद की शादी या दूसरे बच्चे के जन्म ने किसी भी तरह से नाबालिग के प्रति उसकी मातृत्व के स्तर को प्रभावित किया है. बच्चे ने अपने स्कूल में उत्कृष्ट शैक्षणिक प्रदर्शन भी दिखाया है और उसकी शैक्षिक आवश्यकताओं को लेकर भी कोई चिंताजनक बात नहीं है. 

यह देखते हुए कि उसके न्यायिक आदेश का नाबालिग पर गहरा भावनात्मक प्रभाव पड़ा है, अदालत ने कहा कि सभी मेडिकल रिपोर्टों से पता चला है कि बच्चा काफी चिंताग्रस्त है. भावनाओं से निपटने में कठिनाई हो रही है और बच्चे के मन में कस्टडी में बदलाव के मंडराते खतरे के कारण अलगाव की चिंता हो रही है.

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