अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे के मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संविधान पीठ में कानूनी लड़ाई शुरू हो गई है. चीफ जस्टिस (CJI) डी वाई चंद्रचूड़ ने पहले दिन की अहम मौखिक टिप्पणी में कहा कि आज के समय में भी जब आप संस्थान चलाते हैं तो शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर संविधान की धारा 30 के तहत आपको केवल धार्मिक पाठ्यक्रमों का संचालन नहीं करना है, आप एक विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष शैक्षणिक संस्थान का संचालन कर सकते हैं.
सीजेआई ने कहा कि कानून ये नहीं है कि आप केवल अपने समुदाय के छात्रों को ही दाखिला दें. आप किसी भी समुदाय के छात्रों को दाखिला दे सकते हैं. अनुच्छेद 30, स्थापना और प्रशासन करने की बात करता है, लेकिन प्रशासन का कोई पूर्ण मानक नहीं है, जिसे आपको 100% प्रशासित करना होगा, ये एक भ्रामक मानक होगा.
उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 30 को प्रभावी बनाने के लिए हमें ये मानने की ज़रूरत नहीं है कि अल्पसंख्यक द्वारा प्रशासन एक पूर्ण प्रशासन होना चाहिए, इस अर्थ में आज विनियमित समाज में कुछ भी निरंकुश नहीं है. वस्तुतः जीवन का हर पहलू किसी न किसी तरह से विनियमित होता है.
पीठ इस बात की जांच कर रही है कि क्या संसदीय क़ानून द्वारा बनाई गई कोई शैक्षणिक संस्था संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त कर सकती है, जो धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों को स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार देता है.
तत्कालीन CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 12 फरवरी, 2019 को इस मुद्दे को सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ के पास भेज दिया था. संविधान पीठ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले की सत्यता की जांच करेगी, जिसमें घोषणा की गई थी कि AMU अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है.
AMU की ओर से, वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने पहले दलील दिया था कि इसमें शामिल संवैधानिक मुद्दे महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि शीर्ष अदालत ने 2002 में टीएमए पाई मामले में अपने सात न्यायाधीशों की पीठ के फैसले में ये स्पष्ट नहीं किया था कि अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना के लिए क्या आवश्यकता होनी चाहिए. अगर सुप्रीम कोर्ट अंततः AMU को अल्पसंख्यक संस्थान घोषित कर देता है, तो एससी, एसटी और ओबीसी को प्रवेश में आरक्षण नहीं मिलेगा.
यह फैसला जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की स्थिति पर इसी तरह की कानूनी लड़ाई के लिए एक न्यायिक मिसाल कायम करेगा, जिसे 2011 में यूपीए सरकार के दौरान अल्पसंख्यक संस्थान घोषित किया गया था.
सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की संविधान पीठ में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जेबी पारदी वाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं. सीनियर एडवोकेट राजीव धवन ने अपने अंदाज में बहस शुरू करते हुए कहा कि मुझे अपनी दलीलें रखने दें. हम आपके सभी सवालों का उत्तर देंगे. इस मामले पर बहस करने के लिए मुझे समुचित समय की आवश्यकता होगी.
धवन ने कहा कि किसी को भी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के दर्जे पर 2005 तक कोई आपत्ति नहीं थी. यहां तक कि 1968 को अज़ीज़ पाशा मामले में पांच जजों के संविधान पीठ ने भी उन्होंने इस क़ानून का खंडन किया था, लेकिन अब शासन में बदलाव आने से उसके रुख में भी बदलाव आ गया है, इसलिए इस पर गौर करने की जरूरत है.
CJI डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि आपके मुताबिक ये संस्थान एक प्राचीन चरित्र रखता है, उदाहरण के लिए ये एक इंजीनियरिंग कॉलेज भी हो सकता है. अज़ीज़ बाशा के मुद्दे पर हम अपनी पसंद कैसे बनाते हैं. पहला- बाशा फैसले का कहना है कि विश्वविद्यालय में अल्पसंख्यक हो सकते हैं. दूसरा- बाशा फैसले का कहना है कि इस संस्थान के निर्माण में एक की भूमिका और पृष्ठभूमि को पहचाना जाता है और कहा जाता है कि ये स्पष्ट रूप से मुस्लिम है और तीसरा ये कि यह अधिनियम के पूरी तरह अनुकूल है.
इसका उद्देश्य सभी स्तरों पर रेक्टर और चांसलर के पास सलाहकारी शक्ति है कि वो अल्पसंख्यक प्रवेश में हस्तक्षेप नहीं करेगा. इस मामले में सुनवाई बुधवार को भी जारी रहेगी.