DNA सैंपल किस तरह इकट्ठा हों और कैसे संभालकर रखे जाएं... सुप्रीम कोर्ट ने जारी की देशव्यापी गाइडलाइंस

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के एक दंपत्ति की हत्या और बलात्कार के मामले में मौत की सज़ा पाए व्यक्ति को डीएनए सबूतों के रखरखाव में गंभीर खामियों का हवाला देते हुए बरी कर दिया. अदालत ने आपराधिक मामलों में डीएनए सैंपल आदि के कलेक्शन, प्रोटेक्शन और प्रोसेसिंग को लेकर डिटेल्ड गाइडलाइंस भी जारी कीं.

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  • सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के दंपत्ति की हत्या और रेप के मामले मौत की सजा पाए आरोपी को डीएनए सबूतों में खामियों का हवाला देते हुए बरी कर दिया.
  • अदालत ने आपराधिक मामलों में डीएनए सैंपल के कलेक्शन, संरक्षण आदि से संबंधित नई गाइडलाइंस जारी की हैं, जो पूरे देश में लागू होंगी.
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपराधिक मुकदमों में आरोपी को हर उचित संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए और सबूतों का मूल्यांकन सावधानी से करना चाहिए.
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सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के एक दंपत्ति की हत्या और पीड़िता के साथ बलात्कार के मामले में मौत की सज़ा पाए व्यक्ति को डीएनए सबूतों के प्रबंधन में गंभीर प्रक्रियात्मक खामियों का हवाला देते हुए बरी कर दिया. आदेश सुनाते हुए अदालत ने आपराधिक मामलों की जांच में डीएनए और अन्य जैविक सामग्रियों के संग्रह, संरक्षण और प्रोसेसिंग को लेकर गाइडलाइंस भी जारी की. 

सजा-ए-मौत पाए शख्स को बरी किया

जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने यह फैसला कट्टावेल्लई उर्फ दीवाकर के मामले में सुनाया, जिसे आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 376 (बलात्कार) और 397 (लूटपाट के साथ गंभीर चोट) के तहत दोषी ठहराया गया था. निचली अदालत ने उसे मौत की सजा दी थी. हाईकोर्ट ने भी इस सजा को बरकरार रखा था. 

DNA जांच में खामियों पर सुनाया फैसला

कट्टावेल्लई की यह सजा मुख्य रूप से परिस्थितिजन्य सबूतों और घटनास्थल से इकट्ठा किए गए जैविक नमूनों के अभियुक्त के डीएनए से मिलान पर आधारित थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में अपील के दौरान दोषी ने पुलिस जांच में खामियों खासकर डीएनए सबूतों को इकट्ठा करने, संग्रह करने और आगे भेजने में व्यवस्थागत कमियों का मुद्दा उठाया. कोर्ट ने कस्टडी रजिस्टर में कमियां, फोरेंसिक लैब में नमूने जमा करने में देरी और नमूने जमा करने की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी पर गौर किया. इन कमियों की वजह से डीएनए सबूतों को अविश्वसनीय माना क्योंकि सैंपल के दूषित होने या छेड़छाड़ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

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डीएनए सबूतों के लिए नई गाइडलाइंस

जस्टिस संजय करोल ने फैसला लिखते हुए डीएनए सबूतों के मैनजमेंट को लेकर ये दिशानिर्देश जारी किए-

  • डीएनए सैंपल एकत्र करने के बाद उचित सावधानी से सभी आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन किया जाएगा जिसमें तुरंत और सही तरीके से पैकेजिंग भी शामिल होगी.
  • उस पर एफआईआर संख्या, तारीख, उसमें शामिल धारा व क़ानून, जांच अधिकारी, पुलिस स्टेशन का विवरण और अपेक्षित सीरियल नंबर का विधिवत दस्तावेजीकरण किया जाएगा.
  • सैंपल को दर्ज करने वाले दस्तावेज़ में उपस्थित डॉक्टर, जांच अधिकारी और स्वतंत्र गवाहों के दस्तखत लेना जरूरी होगी. उनके पदनाम भी लिखने होंगे. 
  • स्वतंत्र गवाह नहीं मिलते तो इसे सैंपल जमा करने में बाधा नहीं माना जाएगा. हालांकि उनकी अनुपस्थिति के कारणों को रिकॉर्ड में लिया जाएगा.
  • इन सैंपलों को पुलिस स्टेशन या अस्पताल तक पहुंचाने और 48 घंटे के भीतर फोरेंसिक लैब तक भेजने के लिए जांच अधिकारी जिम्मेदार होगा. अगर देरी होती है तो इसका कारण केस डायरी में दर्ज किया जाएगा. सैंपल की प्रकृति के अनुसार उसके संरक्षण के लिए सभी उपाय किए जाएंगे.
  • डीएनए सैंपल को ट्रायल या अपील के लंबित रहने तक संरक्षित रखना होगा. इन्हें बिना ट्रायल कोर्ट के स्पष्ट आदेश के खोला, बदला या फिर से सील नहीं किया जाएगा. अथॉरिटी केवल मेडकल प्रोफेशनल के इस आश्वासन पर प्रदान की जाएगी कि इससे साक्ष्य की शुद्धता प्रभावित नहीं होगी.
  • एक कस्टडी रजिस्टर बनाया जाएगा, जिसमें सबूत इकट्ठा करने से लेकर आरोपी को सजा या बरी होने तक प्रत्येक गतिविधि को दर्ज किया जाएगा. इसका कारण भी बताया जाएगा. 
  • यह कस्टडी रजिस्टर निचली अदालत के रिकॉर्ड का हिस्सा होगा. इसे बनाए रखने में विफलता के लिए जांच अधिकारी जवाबदेह होंगे. सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशक डीएनए सैंपल प्रपत्र तैयार करेंगे और जिलों में वितरित करना सुनिश्चित करेंगे. 

सुप्रीम कोर्ट ने रजिस्ट्री को आदेश दिया कि इस फैसले की प्रति सभी हाईकोर्ट और राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को अनुपालन के लिए भेजी जाए. साथ ही, पुलिस अकादमियों से जांच अधिकारियों के लिए ट्रेनिंग आयोजित करने को भी कहा गया है ताकि इन दिशानिर्देशों का पूर्ण अनुपालन सुनिश्चित हो.

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जस्टिस एच.आर. खन्ना ने अपने फैसले की शुरुआत में कई प्रमुख बातें भी कहीं- 

  • कोई आपराधिक मुकदमा किसी परीकथा जैसा नहीं होता, जहां कोई अपनी कल्पना को उड़ान देने के लिए स्वतंत्र हो.
  • यह इस प्रश्न से संबंधित है कि क्या मुकदमे में आरोपित उस अपराध का दोषी है, जिसका उस पर आरोप लगाया गया है या नहीं.
  • अपराध वास्तविक जीवन में घटित एक घटना है और विभिन्न मानवीय भावनाओं के आपस में जुड़े संबंधों का परिणाम है.
  • आरोपित के अपराध के बारे में निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए अदालत को साक्ष्य का मूल्यांकन संभावनाओं, उसके आंतरिक मूल्य और गवाहों की शत्रुता के आधार पर करना होता है.
  • कोर्ट को अंतिम विश्लेषण में प्रत्येक मामले को अपने तथ्यों पर निर्भर रखना होगा.
  • अभियुक्त को प्रत्येक उचित संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए. अदालतों को ऐसे सबूतों को जो पहली नजर में विश्वसनीय लगते हैं, उन्हें काल्पनिक या अनुमान के आधार पर अस्वीकार नहीं करना चाहिए. 
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