मृत्युदंड पर लोअर कोर्ट्स को निर्देश देने का मामला, SC में अब 5 जजों की संविधान पीठ करेगी सुनवाई

शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि अगर अपराध सिद्धांत (थ्योरी) के आधार पर अदालत इस नतीजे पर पहुंचती है कि मौत की सजा जरूरी नहीं है, तो उसे उसी दिन उम्रकैद की सजा देने की आजादी होनी चाहिए.

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CJI जस्टिस यूयू ललित की अगुवाई वाली 3 जजों की खंडपीठ ने मामले को 5 जजों की संविधान पीठ को भेज दिया है.
नई दिल्ली:

देशभर की निचली अदालतों को मौत की सजा (मृत्युदंड) पर गाइडलाइन जारी करने के लिए अब सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ मामले पर सुनवाई करेगी. CJI जस्टिस यूयू ललित की अगुवाई वाली तीन जजों की खंडपीठ ने मामले को पांच जजों वाली संविधान पीठ को भेज दिया है. अदालत ने कहा कि हमें लगता है कि इस मामले में आरोपी की सजा कम करने के लिए कारकों को लेकर सभी अदालतों के लिए समान नियम जरूरी हैं.

CJI यू यू ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट और जस्टिस सुधांशु धूलिया की बेंच ने आज यह निर्णय लिया. यह मामला मौत की सजा पर स्वत: संज्ञान लेने से जुड़ा मामला है. सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा को कम करने वाली परिस्थितियों से संबंधित गाइडलाइन पर अपना फैसला सुनाया है. 

सुप्रीम कोर्ट को इन बातों को लेकर दिशा-निर्देश जारी करना था कि निचली अदालत में सुनवाई के दौरान किन परिस्थितियों में और कब मौत की सजा को कम करने पर विचार किया जा सकता है? सीजेआई यूयू ललित की बेंच ने 17 अगस्त को मामले को लेकर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. तब उन्होंने कहा था, "मृत्युदंड एक ऐसी सजा है, जिसके बाद दोषी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और मरने के बाद फैसले को किसी भी हाल में पलटा या बदला नहीं जा सकता है."

उन्होंने कहा था कि इस वजह से आरोपी को उसके अपराध गंभीरता को कम साबित करने का प्रत्येक अवसर देना जरूरी है, ताकि कोर्ट को इस बात के लिए राजी किया जा सके कि मामले में मृत्युदंड की जरूरत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट इस याचिका के फैसले पर इस बात को सुनिश्चित करना चाहता था कि मृत्युदंड की संभावना वाले मामलों में ट्रायल के दौरान परिस्थितिजन्य साक्ष्यों को भलीभांति तरीके से शामिल किया जाए.

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सुप्रीम कोर्ट को ऐसा लगा कि इस मामले में त्वरित कार्रवाई की जरूरत है. इसलिए, अदालत ने इस मामले में स्वत: संज्ञान लिया था और कहा था कि यह सुनिश्चित करने की तत्काल आवश्यकता है कि उन अपराधों के लिए सजा कम करने वाली परिस्थितियों पर (निचली अदालत में) सुनवाई के स्तर पर ही विचार किया जाना चाहिए, जिनमें मौत की सजा का प्रावधान है.

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यह मामला इरफान नाम के एक व्यक्ति की याचिका से उत्पन्न हुआ था, जिसमें निचली अदालत द्वारा उसे दी गई मौत की सजा को चुनौती दी गई थी, जिसकी पुष्टि मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने की थी.  CJI यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने पिछली सुनवाई (17 अगस्त) के दौरान कहा था कि अदालतें उचित रूप से राहत के लिए सजा देने से पहले मामले को स्थगित कर सकती हैं.

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शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि अगर अपराध सिद्धांत (थ्योरी) के आधार पर अदालत इस नतीजे पर पहुंचती है कि मौत की सजा जरूरी नहीं है, तो उसे उसी दिन उम्रकैद की सजा देने की आजादी होनी चाहिए. वहीं अगर मामले में मौत की सजा के संबंध में कुछ अतिरिक्त बातचीत की आवश्यकता है, तो उसको लेकर कोशिश की जानी चाहिए. 

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एमिकस क्यूरी सिद्धार्थ दवे ने कहा  कि ऐसे मामलों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले दिए निर्णयों के अनुसार निर्देशित करना चाहिए. दूसरी ओर अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने भी कहा था कि मृत्युदंड वाले संभावित मामलों में ऐसे तथ्यों को शामिल करने के कार्य को हाईकोर्ट के विवेक पर छोड़ देना चाहिए. इस पर पीठ ने कहा था कि यह निचली अदालत के जजों को अभियुक्तों के पक्ष में कमजोर परिस्थितियों को देखने के अवसर से वंचित कर देगी. साथ ही कहा कि मौत की सजा वाले अपराध के लिए, राज्य को उचित वक्त पर आरोपी के मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन का खुलासा करने के लिए सत्र न्यायालय के समक्ष पहले से जमा किए गए सबूत पेश करने चाहिए.

आपराधिक कानून में, सजा कम करने वाली परिस्थितियां कारक हैं जो अपराधी के अपराध को कम करने में मदद करते हैं और जजों को सजा के साथ अधिक उदार होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. पीठ ने कहा था कि वर्तमान में अपराध और उसकी प्रकृति, चाहे वह दुर्लभतम से दुर्लभ श्रेणी में आता हो, पर चर्चा की जाती है और अपराधी और उसके पक्ष में आने वाली परिस्थितियों को सजा के समय ही निपटाया जाता है. 

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