सुप्रीम कोर्ट द्वारा अंतरिम रोक लगाए जाने के बाद भी असम के 47 निवासियों के घरों पर बुलडोजर चलाने के मामले में असम सरकार को नोटिस जारी कर दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में असम सरकार से तीन हफ्तों के अंदर जवाब मांगा है. सुप्रीम कोर्ट ने अगली सुनवाई तक इस स्थिति को बरकरार रखने का भी आदेश दिया है.
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का मतलब है कि असम सरकार फिलहाल बुलडोजर नहीं चला सकती है. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस के वी विश्वनाथन की बेंच ने इस मामले की सुनवाई की.
दरअसल, 17 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर की कार्यवाही को लेकर दाखिल की गई अलग-अलग याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जारी किए गए अपने आदेश में कहा था कि कोर्ट की पूर्व अनुमति के बिना देश में कोई भी बुलडोजर की कार्रवाई नहीं की जाएगी और अगर ऐसा करना जरूरी होगा तो इससे पहले कोर्ट से अनुमति लेनी होगी.
हालांकि, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया था कि यह आदेश सार्वजनिक सड़कों, फुटपाथों, रेलवे लाइनों या जल निकायों के अतिक्रमण पर लागू नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद असम में 47 निवासियों के घरों पर बुलडोजर कार्रवाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई अवमानना याचिका में कहा गया है कि असम के अधिकारियों ने बिना किसी पूर्व सूचना कि उनके घरों को गिरा दिया. यह सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन है इसलिए इसमें शामिल अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई की जाए.
सुप्रीम कोर्ट मे दाखिल याचिका मे गुवाहाटी हाईकोर्ट के उस आदेश का भी हवाला दिया गया है जिसमें असम के एडवोकेट जनरल ने आश्वासन दिया था कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ तब तक कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी, जब तक कि उन निवासियों के अर्जी का निपटारा नहीं हो जाता.
इसके बावजूद, अधिकारियों ने कथित तौर पर कार्रवाई की. जिसकी वजह से न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन हुआ. याचिका में यह दावा किया गया कि कार्यवाई के आदेश की प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों, खास तौर पर ऑडी अल्टरम पार्टम(दूसरे पक्ष की बात सुनें बिना) के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, जो निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की गारंटी देता है.
इसमें कहा गया कि उन्हें अपना बचाव करने का कोई अवसर नहीं दिया गया और नोटिस की कमी ने उन्हें उनके घरों और आजीविका से वंचित कर दिया है, जो संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन है. याचिका में जिला प्रशासन द्वारा याचिकाकर्ताओं को आदिवासी भूमि पर “अवैध कब्जाधारी” या “अतिक्रमणकारी” के रूप में वर्गीकृत करने को चुनौती दी गई.
याचिकाकर्ताओं का दावा है कि उन्हें मूल पट्टादारों द्वारा भूमि पर रहने की अनुमति दी गई थी, जिनमें से कुछ संरक्षित आदिवासी वर्ग से संबंधित हैं. उनका य़ह भी कहना है कि याचिकाकर्ताओं ने कभी भी स्वामित्व अधिकारों का दावा नहीं किया और न ही उन्होंने असम भूमि और राजस्व विनियमन, 1886 का उल्लंघन नहीं किया, क्योंकि उन्होंने भूमि की प्रकृति में कोई बदलाव नहीं किया.
उनका तर्क है कि आदिवासी बेल्ट के कुछ हिस्सों में ऐसे लोग रहते हैं, जो आदिवासी समुदाय का हिस्सा नहीं हैं, जबकि अन्य क्षेत्र जहां आदिवासी अल्पसंख्यक हैं, उन्हें आदिवासी बेल्ट में शामिल किया गया है. इतना ही नहीं वह जिस भूमि पर काबिज हैं, वह 1920 के दशक से ही उनके पूर्वजों के कब्जे में है, जो कि 1950 में एक सरकारी अधिसूचना द्वारा घोषित क्षेत्र में आदिवासी बेल्ट की स्थापना से बहुत पहले की बात है. साथ ही याचिकाकर्ताओं को उनके निवास के आधार पर बिजली, राशन कार्ड, आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र जैसी आवश्यक सेवाएं भी प्रदान की गई है.