World Bank Report: भारतीय महिलाओं के रोजगार से जुड़ी वर्ल्ड बैंक की महत्वपूर्ण रिपोर्ट सामने आई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में विवाहित महिलाओं की रोजगार दर 12 प्रतिशत गिर गई है. शादी के बाद तीन में से एक महिला नौकरी छोड़ देती है. एत तरफ जहां विवाहित महिलाओं की रोजगार दर घटी है वहीं विवाहित पुरुषों की रोजगार दर 13 प्रतिशत बढ़ गई है. कामकाजी महिलाओं का यह हाल सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे दक्षिण एशिया में है. इससे सवाल उठ रहा है कि शादी महिलाओं के लिए ‘मैरिज पेनाल्टी' क्यों साबित हो रही है?
पूरी दुनिया में शादी जीवन की एक नई शुरुआत मानी जाती है, लेकिन भारत में अक्सर महिलाओं का विवाह उनके करियर और महत्वाकांक्षाओं का अंत कर देता है. वर्ल्ड बैंक की हाल में आई रपोर्ट के आंकड़ों से पता चलता है कि शादी के बाद भारत की महिलाओं की रोजगार दर में एक तिहाई तक की गिरावट आ जाती है. यह आंकड़े भारतीय समाज में लैंगिक असमानता को उजागर करने वाले हैं. महिलाओं को विवाह करने पर 'दंड' भोगना पड़ रहा है. इन आंकड़ों से समाज के पितृसत्तात्मक मानदंड उजागर हो रहे हैं. इससे महिलाओं की पेशेवर और व्यक्तिगत क्षमताएं कम हो जाती हैं.
परिवार बसाना रोजगार में रोड़ा
महिलाओं का विवाह करना तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से नुकसान पहुंचा ही रहा है, उनका घर परिवार बसाना भी उन्हें हानि पहुंचा रहा है. विवाहित महिलाओं का मां बन जाना भी उनके रोजगार में रोड़ा बन जाता है. बच्चों की देखभाल संबंधी जिम्मेदारियां अक्सर उन्हें जॉब छोड़ने को मजबूर कर देती हैं. यह उनके लिए 'चाइल्ड पैनाल्टी' है.
13 घंटे काम और सैलरी सिर्फ 7 घंटे की, ऐसी है इस देश की महिलाओं की हालत
रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक शादी के बाद महिलाओं की रोजगार दर में 12 प्रतिशत की गिरावट आती है, भले ही उनके बच्चे न हों. दूसरी तरफ पुरुषों को विवाह फायदा देने वाला होता है. विवाहित पुरुषों की रोजगार दर में 13 प्रतिशत की वृद्धि होती है. यह विरोधाभास भारत में लैंगिक भेदभाव को जाहिर करता है. महिलाओं पर घर-परिवार की देखभाल करने वाली और गृहिणी के रूप में पारंपरिक जिम्मेदारियों का बोझ डाल दिया जाता है. यह ऐसी भूमिकाएं हैं जिन्हें समाज में उनकी पेशेवर महत्वाकांक्षाओं से ऊपर रख जाता है.
सामाजिक मानदंड बन रहे बेड़ियां
भारत में शादी महिलाओं के करियर पर उल्टा प्रभाव क्यों डालती है? सामाजिक मानदंडों के मुताबिक महिलाओं को परिवार की जिम्मेदारियों को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिसके कारण अक्सर उन्हें या तो रोजगार खोना पड़ता है या फिर कम सैलरी वाली नौकरी का विकल्प चुनना पड़ता है. इससे उनकी वित्तीय स्वतंत्रता सीमित हो जाती है और लैंगिक असमानता भी बरकरार रहती है. कामकाजी महिलाओं को जरूरी सुविधाओं का नितांत अभाव है, जैसे सस्ती चाइल्डकेयर सुविधा की कमी, कामकाज में लचीलेपन के लिए विकल्प उपलब्ध नहीं. इस स्थिति में भारतीय महिलाओं के लिए अपने परिवार और काम के बीच संतुलन बनाना और भी मुश्किल हो जाता है.
ये क्या, आखिर नौकरी क्यों छोड़ना चाहती हैं ज्यादातर महिलाएं!
वर्ल्ड बैंक की नई रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण एशिया में महिलाएं शादी के बाद कम से कम कुछ साल के लिए वर्क फोर्स से बाहर हो जाती हैं. दक्षिण एशिया में रोजगार के मामले में लैंगिक भेदभाव लगातार जारी है. शादी के बाद एक तिहाई महिलाओं को जॉब छोड़ना पड़ता है.
महिलाओं की भागीदारी से बढ़ सकती है जीडीपी
यह सब तब हो रहा है जब संभावना है कि कार्यबल में महिलाओं की भागेदारी जीडीपी बढ़ा सकती है. साउथ एशिया के लिए चीफ इकॉनामिस्ट फ्रानजिस्का ओह्नसोर्ज का मानना है कि अगर दक्षिण एशिया में महिलाएं प्रोडक्टिव काम में जुड़ें तो जीडीपी 51 फीसदी से बढ़ सकती है. इस मामले में खास तौर पर भारत एक ब्राइट स्पॉट है.
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महिलाओं के शादी करने को लेकर कई पूर्वाग्रह हैं. माना जाता है कि महिलाओं को काम पर नहीं, परिवार पर ध्यान देना चाहिए. महिलाओं के मातृत्व अवकाश लेने की संभावना होती है. मातृत्व के बाद बच्चे उनकी प्राथमिकता होते हैं. इन कारणों से कंपनियां महिलाओं की नियुक्ति करने से बचती हैं.
महिलाओं के घरेलू काम जीडीपी में नहीं शामिल
महिलाओं के घर-परिवार के काम जीडीपी में नहीं गिने जाते. वे बच्चों का लालन-पालन करती हैं, उन्हें पढ़ाती भी हैं. वे बुज़ुर्गों की देखभाल करती हैं, कपड़ों की धुलाई, घर की सफाई आदि भी करती हैं. दक्षिण एशिया में ज़्यादातर पुरुष इस तरह के कामों से दूर रहते हैं.
दुनिया में सिर्फ 6 देश ऐसे हैं, जहां महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार हासिल हैं. बराबरी के 35 मानदंडों पर खरे उतरने वाले यह देश- बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, लातविया, लक्समबर्ग और स्वीडन हैं. इन देशों में पिता अगर पैरेंटल लीव न लें तो इस पर सवाल किया जाता है. पिता का फर्ज न निभाना भी आपत्तिजनक है. सिंगल पैरेंट्स को 480 दिन का ऑफ मिलता है. पहले 390 दिनों के लिए 80 प्रतिशत वेतन के बराबर फायदे मिलते हैं. सन 1974 में यह नीति लागू हुई तो इसका लाभ 0.5% अभिभावक उठाते थे. सन 2016 तक आते-आते 30% अभिभावक इसका फायदा ले रहे हैं.
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