कर्नाटक चुनाव में रणनीति बदलना क्यों नहीं आया BJP के काम : समझें आंकड़ों से

कर्नाटक चुनाव से पहले BJP ने दो साहसिक कदम उठाए थे - आमतौर पर कर्नाटक में BJP की बागडोर संभालते रहे मज़बूत लिंगायत राजनेताओं पर निर्भरता को कम कर दिया, और अलोकप्रिय माने जाने वाले विधायकों के टिकट काट दिए. उस वक्त BJP के रणनीतिकारों का कहना था, यह सत्ता-विरोधी लहर का मुकाबला करने के लिए गुजरात और मध्य प्रदेश से अपनाई गई रणनीति थी, जहां 'हिन्दुत्व' अक्सर जातिगत हिसाब-किताब और विधायकों के व्यक्तिगत प्रभाव पर भारी पड़ता रहा है.

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कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2023 के नतीजों के आंकड़ों से साफ है कि BJP के दो साहसिक कदम पूरी तरह नाकाम रहे...
नई दिल्ली:

2023 के कर्नाटक चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (BJP) का कमजोर प्रदर्शन एन्टी-इन्कम्बेन्सी और विपक्ष द्वारा किए गए मज़बूत प्रचार अभियान के साथ-साथ शायद पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग रणनीतियों का भी नतीजा है.

चुनाव से पहले BJP ने दो साहसिक कदम उठाए थे - आमतौर पर कर्नाटक में BJP की बागडोर संभालते रहे मज़बूत लिंगायत राजनेताओं पर निर्भरता को कम कर दिया, और अलोकप्रिय माने जाने वाले विधायकों के टिकट काट दिए. उस वक्त BJP के रणनीतिकारों का कहना था, यह सत्ता-विरोधी लहर का मुकाबला करने के लिए गुजरात और मध्य प्रदेश से अपनाई गई रणनीति थी, जहां 'हिन्दुत्व' अक्सर जातिगत हिसाब-किताब और विधायकों के व्यक्तिगत प्रभाव पर भारी पड़ता रहा है.

अब 2023 के चुनाव परिणाम आंकड़ों से पता चल रहा है कि BJP दोनों ही मोर्चों पर नाकाम रही - लिंगायत कांग्रेस की ओर चले गए, और बागी BJP के वोट खा गए.

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कांग्रेस का जातिगत हिसाब-किताब BJP पर भारी पड़ा
चुनाव-बाद के आंकड़ों से अर्थ निकालना अक्सर मुश्किल होता है, क्योंकि किसी भी पार्टी द्वारा स्वीप किए जाने की स्थिति में आमतौर पर उसके प्रत्याशियों का प्रदर्शन बेहतर हो ही जाता है, भले ही जाति कुछ भी हो. मौटे तौर पर देखा जाए, तो कांग्रेस की AHINDA रणनीति (अल्पसंख्यकों, अन्य पिछड़े वर्गों और दलितों पर फोकस करने के लिए कन्नड़ भाषा के शब्दों का संक्षिप्त रूप) काम करती दिखी, और पार्टी के इन समुदायों से खड़े किए प्रत्याशियों का स्ट्राइक रेट काफी ऊंचा रहा, बस, ब्राह्मण प्रत्याशियों में BJP का स्ट्राइक रेट अच्छा रहा है.

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अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सीटों पर भी कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद प्रभावशाली रहा है, जहां पार्टी ने अनुसूचित जनजाति - दक्षिणपंथी (जो बड़े पैमाने पर कृषि प्रधान हैं) प्रत्याशियों पर फोकस किया, जहां से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी आते हैं. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 51 सीटों में से 2018 की तुलना में कांग्रेस को 15 सीटों का लाभ हुआ, जबकि BJP को 10 और JDS को 4 सीट का नुकसान हुआ. इन विधानसभा सीटों पर कांग्रेस का वोट शेयर लगभग 9 फीसदी बढ़ा है.

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लिंगायत गए कांग्रेस की ओर, वोक्कलिगा से BJP को हुआ लाभ
जिन विधानसभा सीटों पर BJP और कांग्रेस ने समान जाति के प्रत्याशी उतारे थे, उनसे मौटे तौर पर (हालांकि आधा-अधूरा) जातियों के आधार पर वोट देने को लेकर मतदाताओं के रुझान का अंदाज़ा मिल सकता है. इसका अर्थ यह हुआ कि अगर किसी विधानसभा सीट पर दो प्रमुख पार्टियों के प्रत्याशी अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) समुदाय से हैं, तो माना जा सकता है कि उस विधानसभा सीट पर OBC मतदाताओं की खासी संख्या मौजूद है. ऐसी सीटों पर वोटिंग पैटर्न का अध्ययन कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किस समुदाय ने किस पार्टी को वरीयता दी.

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102 विधानसभा सीटें, जहां कांग्रेस और BJP ने समान जाति (या दलित और आदिवासी समुदायों के मामलों में एक ही उपजाति के) के प्रत्याशियों को टिकट दिया, में कांग्रेस को कुल 32 सीटों का लाभ हुआ, जबकि BJP ने यहां 19 सीटें गंवा दीं.

नतीजों से ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस के लिए कामयाबी का दरवाज़ा न सिर्फ उसके लिंगायत प्रत्याशियों के प्रदर्शन ने खोला था, बल्कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों पर उनके प्रत्याशियों के प्रदर्शन ने भी खासा योगदान दिया.

कांग्रेस के लगभग तीन-चौथाई लिंगायत प्रत्याशियों ने जीत हासिल की, खासतौर से उत्तरी कर्नाटक में. चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस ने ऐसा नैरेटिव बना दिया था कि BJP ने पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा को दरकिनार कर, और पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टर और पूर्व उपमुख्यमंत्री लक्ष्मण सावदी का टिकट काटकर लिंगायतों के साथ धोखा किया, और उन्हें उपेक्षित किया. हालांकि शेट्टर काफी बड़े अंतर से हारे, फिर भी ऐसा महसूस होता है कि कांग्रेस के नैरेटिव को काफी लोगों ने मान लिया था.

इसका साफ-साफ अंदाज़ा उन 38 विधानसभा सीटों से मिल सकता है, जहां कांग्रेस ने BJP के लिंगायत प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ लिंगायत प्रत्याशी ही खड़े किए थे.

इन विधानसभा सीटों पर BJP को भारी नुकसान हुआ है. वर्ष 2018 में जीती 21 सीटों की तुलना में 2023 में BJP को सिर्फ 8 सीटों पर जीत से संतोष करना पड़ा. फायदा कांग्रेस को हुआ, जिसने वर्ष 2018 में सिर्फ 14 सीटें जीती थीं, जबकि 2023 में उन्हें 29 सीटों पर जीत हासिल हुई. उधर, इस बार JDS यहां सिर्फ 1 सीट ही जीत पाई.

फायदा वोट शेयर में भी दिखा. माना जा सकता है कि जिन विधानसभा सीटों पर BJP और कांग्रेस ने लिंगायत प्रत्याशी खड़े किए थे, उनमें लिंगायत आबादी खासी रही होगी. इनमें से 38 विधानसभा सीटों कांग्रेस का वोट शेयर 7 फीसदी बढ़ा है, जो विधानसभा चुनाव 2023 में पार्टी के कुल वोट शेयर से कहीं ज़्यादा है.

संयोग से जिस चुनाव (2023) में BJP के वोट शेयर में लगभग कोई बढ़ोतरी नहीं हुई, उसमें भी दक्षिणी कर्नाटक के वोक्कलिगा क्षेत्र में पार्टी का प्रदर्शन काफी बेहतर हो गया. यहां BJP ने एक अतिरिक्त विधानसभा सीट जीती, और उसका वोट शेयर 9.5 फीसदी बढ़ा. ऐसा साफ तौर पर JDS की कीमत पर हुआ, जिसने वोक्कलिगा-बहुल विधानसभा सीटों (जहां तीनों प्रमुख पार्टियों ने वोक्कलिगा समुदाय के प्रत्याशी उतारे थे) पर लगभग इतना ही वोट शेयर गंवा दिया.

ऐसा कई वजहों से हुआ हो सकता है कि जिस दक्षिणी कर्नाटक में BJP पारम्परिक रूप से कमज़ोर मानी जाती रही है, वहां भी BJP की हाज़िरी बढ़ी है. इसके संभावित कारणों में पिछले 4 साल के दौरान JDS के कई विधायकों और पार्टी नेताओं के BJP में शामिल होने और BJP के दक्षिणी कर्नाटक पर फोकस करने वाले आक्रामक प्रचार अभियान - जिसमें चुनाव प्रचार की शुरुआत के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मांड्या में की गई विशाल रैली शामिल है - का कुछ असर हो सकता है.

इन सीटों पर हुआ वोट शेयर का नुकसान JDS के लिए, जो आमतौर पर वोक्कलिगा नेतृत्व वाली पार्टी मानी जाती है - निराशाजनक होना चाहिए.

बागी और पार्टी बदलने वाले
एन्टी-इन्कम्बेन्सी से निपटने के उद्देश्य से BJP ने मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए, और नए चेहरे मैदान में उतारे, जो अपनी साफ-सुथरी छवि के साथ प्रतिद्वंद्वियों से मुकाबिल हो सकें. यह रणनीति हाल ही में गुजरात में शानदार तरीके से कामयाब रही थी, और उससे पहले, मध्य प्रदेश में भी, जहां BJP सत्ता-विरोधी लहर के बावजूद बहुमत के करीब तक पहुंच गई थी.

BJP ने 21 मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए थे, और कई ऐसे टिकट चाहने वाले रहे, जिनके स्थान पर पार्टी ने नौसिखियों को मैदान में उतारा.

केवल 103 विधानसभा सीटों पर - सूबे की कुल 224 विधानसभा सीटों के आधे से भी कम - BJP ने 2018 के अपने प्रत्याशियों को टिकट दिया. इसके उलट, कांग्रेस मोटे तौर पर मौजूदा विधायकों और उन प्रत्याशियों के साथ मैदान में गई, जो 2018 में उनकी टिकट पर चुनाव हार गए थे.

विधानसभा चुनाव 2023 के नतीजे बताते हैं कि BJP कैसी 'सांप-छछूंदर वाली हालत' में थी. BJP को सीटों की संख्या और वोट शेयर में सबसे ज़्यादा मुकसान उन विधानसभा सीटों पर हुआ, जहां पार्टी ने मौजूदा विधायकों या पिछले चुनाव के प्रत्याशियों को दोहराया. सत्ता-विरोधी लहर में वे सभी बह गए. बहरहाल, जिन विधायकों का टिकट पार्टी ने काट दिया था, वे या तो कांग्रेस में चले गए या निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़े, और इसी वजह से BJP को सीटों और वोटों में नुकसान हुआ.

विडम्बना यह रही कि कांग्रेस या JDS छोड़कर जाने वाले 19 प्रत्याशियों (इनमें कांग्रेस के वे नेता भी शामिल हैं, जिन्होंने टिकट न दिए जाने की वजह से कांग्रेस को छोड़ा था) ने अच्छा प्रदर्शन किया, और प्रत्याशियों की व्यक्तिगत लोकप्रियता के कारण BJP को 6 सीटें मिलीं.

जिन विधानसभा सीटों पर BJP ने नए चेहरे उतारे थे, वहां पार्टी ने बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन यह प्रदर्शन सत्ता-विरोधी लहर के चलते हुए कुल नुकसान की भरपाई करने लायक हरगिज़ नहीं हो पाया. नए चेहरों को सामने लाने की रणनीति ने पार्टी में जगह-जगह बगावत का बिगुल बजा दिया, और आखिरकार BJP के वोट कट गए, और सीटों को जीतने या बरकरार रखने की संभावना भी घट गई.

इसी तरह का केस पुत्तूर में हुआ, जहां BJP के कट्टरपंथी कार्यकर्ता अरुण कुमार पुथिला ने निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा, क्योंकि वह खुद और उनके समर्थक BJP द्वारा उतारे गए 'नए चेहरे' से नाराज़ थे. अरुण कुमार पुथिला को 60,000 से ज़्यादा वोट हासिल हुए, जो BJP को मिले वोटों से दोगुने थे, और 'भाइयों' के बीच हुए इस झगड़े में कांग्रेस जीत गई.

इसी तरह के नतीजे नौ विधानसभा सीटों पर देखे गए, जहां विरोधी दल की जीत का अंतर BJP के बागी प्रत्याशी को मिले वोटों से कम रहा.

विवादास्पद माइनिंग बैरन और BJP के पूर्व मंत्री गली जनार्दन रेड्डी ने विधानसभा चुनाव 2023 से पहले नई पार्टी, कल्याण राज्य प्रगति पक्ष, का गठन किया. हालांकि उनकी पार्टी सिर्फ एक सीट जीत पाई, लेकिन इस पार्टी ने तीन अन्य विधानसभा सीटों पर BJP की हार तय कर दी, जिनमें से दो तो जनार्दन रेड्डी के ही भाई हैं.

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