महिलाओं पर हर दिन जुल्म, मगर इंसाफ की तलाश अब भी अधूरी

दरिंदों को उम्र से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. न छोटी बच्चियां बख्शी जाती हैं, न बुज़ुर्ग महिलाएं. साल 2022 में ही 6 साल से कम उम्र की 32 बच्चियों का रेप हुआ. 6 से 12 साल की 88 बच्चियों के साथ रेप हुआ. 12 से 16 साल की 370 बच्चियों के साथ रेप या गैंगरेप हुआ. 18 से 30 साल की उम्र की 21 हजार से ज़्यादा लड़कियों के साथ रेप हुआ. और 60 साल से ज़्यादा उम्र की 87 बुज़ुर्ग महिलाओं को भी इस अपराध ने नहीं छोड़ा.

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  • भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही है, 2022 में दर्ज हुए रेप मामलों की संख्या तीस हजार से अधिक है.
  • ओडिशा की एक छात्रा ने कॉलेज में शिक्षक द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायत की, लेकिन न्याय न मिलने पर आत्मदाह कर लिया.
  • महिलाओं के खिलाफ अपराधों में घरेलू हिंसा, छेड़छाड़ और रेप के मामले प्रमुख हैं, लेकिन सजा का अनुपात केवल चौथाई के आसपास है.
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नई दिल्ली:

आप मेरे हाथ में जो मोमबत्ती देख रहे हैं, वो वही मोमबत्ती है जो कभी निर्भया के लिए जलाई गई थी, कठुआ की बच्ची के लिए जलाई गई थी, उन्नाव की पीड़िता के लिए जलाई गई थी. वो मोमबत्ती जो महिला अत्याचार के खिलाफ इस देश की आंखों में आंसू और दिल में आग भर देती थी. लेकिन अब ऐसा लगता है जैसे ये मोमबत्ती बुझ चुकी है. अब हमारे समाज ने जैसे महिलाओं के लिए इंसाफ मांगना छोड़ दिया है. अब अगर किसी महिला के साथ रेप होता है, कोई टीचर छात्रा का यौन शोषण करता है, कोई लड़की आत्महत्या करने पर मजबूर होती है तो ये बातें लोगों को झकझोरती नहीं हैं, लोगों को गुस्सा नहीं आता, ना सोशल मीडिया पर ट्रेंड बनते हैं और ना ही प्राइम टाइम में इन पर बहस होती है.

आपको राजा रघुवंशी याद है? सौरभ राजपूत, अतुल सुभाष, नीरज गुप्ता, प्रदीप शर्मा, दिनेश यादव और सुनील कुमार का नाम सुना है? ये वो पुरुष हैं जिनकी हत्या उनकी पत्नियों ने की या फिर घरेलू विवादों से परेशान होकर उन्होंने खुदकुशी कर ली. इनकी कहानियां अखबारों में पहले पन्ने पर छपीं, टीवी चैनलों पर हेडलाइन बनीं और सोशल मीडिया पर बहस का मुद्दा रहीं. ये घटनाए  दुर्भाग्य पूर्ण थी पर इन घटनाओं को आधार बनाकर ऐसा माहौल बना दिया गया कि जैसे अब अपराध का शिकार सिर्फ पुरुष ही हो रहे हैं. शादी को लेकर सोशल मीडिया पर मीम्स बनने लगे.

पर अब ज़रा इन आंकड़ों पर ध्यान दीजिए. 2022 में भारत में 31,516 रेप केस दर्ज हुए. यानी हर दिन औसतन 86 और हर घंटे तीन से ज़्यादा रेप. और ये सिर्फ वो मामले हैं जो रिपोर्ट हुए, असल संख्या इससे कहीं ज्यादा है. फिर भी इन घटनाओं पर न कहीं गुस्सा है, न बहस, न मोर्चा, न इंसाफ की मांग. जैसे हम सबने मान लिया है कि अब महिलाओं पर होने वाले अपराध की कोई अहमियत नहीं रही. जैसे महिला का दर्द अब खबर नहीं रहा.

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तो सवाल ये है कि क्या हम अब इंसाफ की उस मोमबत्ती को हमेशा के लिए बुझा देंगे?  आज हम आपसे कुछ कहने आए हैं, याद दिलाने आए हैं कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा रुकी नहीं है, बल्कि अब हम उसे देखना और महसूस करना बंद कर चुके हैं. और जब समाज की संवेदनाएं ही मर जाएं, तो कानून भी बेअसर हो जाता है.

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ओडिशा में क्या हुआ?

ओडिशा की एक 20 साल की छात्रा, जिसने अपने जीवन का हर पल एक सपना लेकर जिया. एक दिन एक आदर्श टीचर बनने का. पढ़ाई में होशियार, आत्मनिर्भर बनने की ललक से भरी हुई ये लड़की B.Ed की पढ़ाई कर रही थी. उसके माता-पिता ने भी सपने देखे थे कि उनकी बेटी एक दिन स्कूल में पढ़ाएगी, समाज को दिशा देगी, बेटियों की मिसाल बनेगी. लेकिन उन्होंने ये नहीं सोचा था कि उसी कॉलेज में एक वहशी उसकी ज़िंदगी को नर्क बना देगा.

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उस कॉलेज का एक शिक्षक, समीर साहू जो वहां पढ़ाने के लिए रखा गया था, उस बच्ची का शोषण करने लगा. उसने उसका यौन उत्पीड़न किया, उसे गलत निगाहों से देखा, जबरन नज़दीकियां बनाने की कोशिश की. जब लड़की ने मना किया, तो वो उसकी ज़िंदगी में ज़हर घोलने लगा. उसे मानसिक रूप से टॉर्चर करने लगा. जानबूझकर परीक्षा में फेल किया, अटेंडेंस में गड़बड़ी की गई ताकि वह परीक्षा में बैठ ही न सके. ये वही तरीका था जो अक्सर ताकतवर लोग इस्तेमाल करते हैं, दबाने, तोड़ने और चुप कराने के लिए.

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लेकिन इस लड़की ने चुप रहना नहीं चुना. उसने वो किया जो हम सब कहते हैं कि अन्याय हो तो आवाज़ उठाओ. उसने कॉलेज के प्रिंसिपल दिलीप घोष को लिखित शिकायत दी. अपने विभागाध्यक्ष (HOD) को बताया. साथियों को इस उत्पीड़न के बारे में बताया. जब वहां कोई सुनवाई नहीं हुई, तो उसने सोशल मीडिया पर मदद की गुहार लगाई. खुलेआम वीडियो और पोस्ट डालकर न्याय की भीख मांगी. लेकिन न सरकार ने सुना, न मीडिया ने दिखाया, न समाज ने झांका.

और फिर वो हुआ, जो नहीं होना चाहिए था.

उस बच्ची की हिम्मत, उम्मीद और आत्मसम्मान, तीनों को कुचल दिया गया. इंसाफ की सारी राहें बंद हो गईं. और एक दिन उसने खुद को आग लगा ली. उसने सिस्टम को तमाचा मारा. उसने आग लगाकर दुनिया से पूछा, "अब क्या सुनाई दे रही है मेरी आवाज़?" अब वो लड़की अस्पताल में जिंदगी की जंग हार चुकी है. शरीर बुरी तरह जला हुआ था. उसके मां-बाप अस्पताल के बाहर बैठे रहे — उनकी आंखों में आंसू नहीं, बल्कि सवाल भी है — "क्या हमारी बेटी का दोष बस इतना था कि उसने सच बोला?"

अब जाकर सरकार हिली. कॉलेज के प्रिंसिपल को सस्पेंड किया गया. शिक्षा विभाग ने जांच बैठा दी है. बयान दिए जा रहे हैं. लेकिन ये सवाल अब भी खड़ा है, जब उस बच्ची ने ज़िंदा रहते मदद मांगी, तो कोई क्यों नहीं बोला? क्यों हर संस्था, हर अधिकारी, हर मीडिया हाउस ने उसकी आवाज़ अनसुनी कर दी? क्या हम सिर्फ लाशों पर कार्रवाई करने वाले लोग बन चुके हैं? अब आप सोचिए,  क्या आपने इस खबर को किसी न्यूज़ चैनल पर देखा? किसी प्राइम टाइम में सुना? क्या कोई रिपोर्टर उस बच्ची के गांव गया? क्या कोई एंकर उसकी मां से सवाल पूछने गया? नहीं. क्योंकि ये कहानी ‘मसालेदार' नहीं थी. कोई सेलिब्रिटी इसमें शामिल नहीं था  और शायद इसीलिए, किसी को फर्क नहीं पड़ा.

लेकिन फर्क पड़ना चाहिए. क्योंकि ये सिर्फ एक लड़की की कहानी नहीं है. ये हर उस लड़की की कहानी है, जो कॉलेजों, ऑफिसों और सड़कों पर चुपचाप शोषण झेल रही है. ये उस सिस्टम की कहानी है जो शिकायत तो लेता है, लेकिन कार्रवाई नहीं करता. ये उस समाज की कहानी है जो बेटी से कहता है "आवाज़ उठाओ", पर जब वो उठाती है, तो उसे अकेला छोड़ देता है.

एक राज्य या एक कॉलेज की बात नहीं

ये बात सिर्फ ओडिशा की उस छात्रा की नहीं है. ये किसी एक कॉलेज या एक राज्य की नहीं है. ये हर उस लड़की की कहानी है जो गलत के खिलाफ आवाज़ उठाती है, लेकिन उसकी आवाज़ सुनी नहीं जाती. कुछ ही समय पहले कोलकाता के सबसे बड़े लॉ कॉलेज में एक बहुत ही डराने वाली घटना हुई. वहीं काम करने वाले एक आदमी ने एक छात्रा के साथ गैंगरेप किया. सबसे हैरानी की बात ये है कि ये पहली बार नहीं था. उस आदमी पर पहले भी कई छात्राओं ने छेड़छाड़ के आरोप लगाए थे, लेकिन हर बार वो बचता रहा क्योंकि वो सबको यही कहता था कि तुम मेरे अंकल को नहीं जानतीं... वो विधायक हैं. और सच में, उसके अंकल पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी पार्टी TMC के नेता थे. शिकायतें होती रहीं, लेकिन कॉलेज चुप रहा, प्रशासन चुप रहा, क्योंकि अपराधी के पीछे एक बड़ा और ताकतवर नाम था.

हमारे देश की यही सबसे बड़ी परेशानी है कि जब भी किसी लड़की के साथ कुछ गलत होता है, तो बहुत बार अपराधी को बचाने के लिए कोई न कोई बड़ा आदमी सामने आ जाता है. और जब अपराधी को ये लगने लगता है कि उसे कोई सज़ा नहीं मिलेगी, तब वो बार-बार वही गुनाह करता है. उससे भी ज़्यादा दुख की बात ये है कि जब लड़की अपनी आपबीती बताती है, तो समाज उल्टा उसी से सवाल पूछने लगता है. अगर किसी बस में रेप होता है, तो कहा जाता है कि वो लड़की बस में क्या कर रही थी? अगर रात को होता है, तो कहा जाता है कि वो इतनी देर से बाहर क्यों निकली थी? अगर कोई डॉक्टर ड्यूटी पर होती है और उसके साथ कुछ गलत हो जाए, तो भी लोग उसी डॉक्टर की नीयत पर सवाल उठाने लगते हैं. अगर कोई गुंडा रास्ते में किसी लड़की को छेड़े, तो लड़की से कहा जाता है कि तुमने रास्ता क्यों नहीं बदल लिया? या तुमने नजरें नीचे क्यों नहीं रखीं?

हमारा समाज आज भी औरतों को ही दोषी मानता है. अगर कोई लड़का सिगरेट पिए, तो कहा जाता है कि उसके फेफड़े खराब होंगे, लेकिन अगर कोई लड़की सिगरेट पिए, तो कहा जाता है कि इसका चरित्र ठीक नहीं है. हर बार कुछ लोग ऐसे मिल जाते हैं जो पीड़िता से ही सवाल करने लगते हैं, क्या पहन रखा था? रात को क्यों निकली? लड़कों से दोस्ती क्यों की? या फिर हंसी क्यों? फोन क्यों चलाया? इंस्टाग्राम पर फोटो क्यों डाली? लेकिन असली सवाल तो उस अपराधी से पूछे जाने चाहिए जिसने किसी लड़की की इज्ज़त, उसका आत्मविश्वास और उसका हक छीन लिया.

अब समय आ गया है कि हम सिर्फ ये न कहें कि "बेटी को आवाज़ उठानी चाहिए", बल्कि ये भी सुनिश्च‍ित करें कि जब वो आवाज़ उठाए तो उसे सुना जाए, समझा जाए और उसकी रक्षा की जाए. हमें बेटियों को नहीं, बेटों को समझाना होगा कि किसी लड़की की मर्ज़ी के बिना कुछ भी करना गुनाह है. ताकत का मतलब ये नहीं कि आप किसी को नुकसान पहुंचा सकते हैं. अगर आज भी हम चुप रहे, तो कल फिर कोई लड़की अकेले रोएगी, चुपचाप टूटेगी या खुद को आग लगा लेगी.

अब चुप रहना सही नहीं है. अब सवाल उठाना ज़रूरी है. आवाज़ बनिए उन बेटियों की, जो अकेली पड़ गईं. उनके लिए खड़े होइए, क्योंकि अगर आज आपने कुछ नहीं कहा, तो कल आपकी अपनी बहन, बेटी या दोस्त के साथ भी यही हो सकता है. 

महिला अपराध अब भी ज्यादा

हम मानते हैं कि आजकल पुरुषों के खिलाफ भी अपराध बढ़ रहे हैं और ये चिंता की बात है, लेकिन इससे ये सच्चाई नहीं बदल जाती कि महिलाओं की हालत आज भी कहीं ज़्यादा खराब है. और ये कोई भावना नहीं, आंकड़ों से साबित होने वाली सच्चाई है. भारत में हत्या, लूट, अपहरण और डकैती जैसे अपराधों से भी ज्यादा तेजी से रेप और गैंगरेप के मामले बढ़े हैं. इन अपराधों में 120 फीसदी से ज़्यादा की बढ़ोतरी दर्ज हुई है. 2022 में भारत में कुल 31,516 रेप केस दर्ज हुए. यानी हर दिन औसतन 86 और हर घंटे 3 से ज़्यादा रेप. सोचिए, हर घंटे. और ये सिर्फ दर्ज हुए केस हैं. असल संख्या इससे कहीं ज्यादा है.

देश के जिन पांच राज्यों में महिलाओं के खिलाफ अपराध सबसे ज़्यादा होते हैं, उनमें दिल्ली सबसे ऊपर है. हर 1 लाख महिलाओं में 144 महिलाएं दिल्ली में किसी न किसी अपराध की शिकार होती हैं. हरियाणा में ये आंकड़ा 118 है, तेलंगाना में 117, राजस्थान में 115, ओडिशा में 103 और केरल जैसे पढ़े-लिखे राज्य में भी ये आंकड़ा 82 है. पूरे देश में हर साल करीब 4 लाख महिला अपराधों के केस दर्ज होते हैं और ये सिर्फ वो मामले हैं जिनमें महिलाएं डर, शर्म और सामाजिक दबाव को पार कर पुलिस तक पहुंचती हैं. हजारों मामले ऐसे होते हैं जो कभी सामने आते ही नहीं, क्योंकि रिश्तेदार, समाज और कई बार खुद परिवार की ओर से लड़की को चुप रहने के लिए मजबूर किया जाता है. खासकर घरेलू हिंसा के मामलों में. जब कोई लड़की कहती है कि उसका पति या ससुरालवाले उसे मारते हैं, तो जवाब आता है कि चुप रहो, सब ठीक हो जाएगा. बदनामी मत करो.

क्या कहतें है महिलाओं पर अपराध के आंकड़े

NCRB के आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के खिलाफ दर्ज अपराधों में 31 फीसदी मामले पति या ससुराल वालों की क्रूरता से जुड़े हैं. करीब 19 फीसदी मामले छेड़छाड़ के हैं, और 7-8 फीसदी रेप से जुड़े. और ये सिर्फ कानून में दर्ज आंकड़े हैं. मैरिटल रेप कि यानी शादी के बाद जबरदस्ती संबंध बनाना को तो हमारे कानून ने आज तक अपराध माना ही नहीं. राष्ट्रीय महिला आयोग के अनुसार जनवरी से जून 2025 के बीच सिर्फ घरेलू हिंसा की 1500 से ज्यादा शिकायतें आई हैं. यानी हर महीने 250 से 300 महिलाएं अपने ही घर में पीटी जाती हैं, और हिम्मत करके शिकायत करती हैं. सोचिए, जो नहीं कर पातीं, वो कितनी होंगी?

सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि जिन मामलों में एफआईआर होती है, उनमें भी सज़ा का अनुपात सिर्फ 25 से 26 फीसदी है. यानी हर चार में से तीन मामलों में या तो आरोपी बच जाते हैं या न्याय बहुत देर से मिलता है. दफ्तरों और काम की जगहों पर भी महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न के मामले लगातार सामने आते हैं. फर्क बस इतना है कि कभी वो शिकायत हो जाती है, और ज़्यादातर बार महिला चुप रह जाती है.

सबसे डराने वाली बात ये है कि कुछ दरिंदों को उम्र से भी कोई फर्क नहीं पड़ता. न उन्हें छोटी बच्चियां बख्शी जाती हैं, न बुज़ुर्ग महिलाएं. साल 2022 में ही 6 साल से कम उम्र की 32 बच्चियों का रेप हुआ. 6 से 12 साल की 88 बच्चियों के साथ रेप हुआ. 12 से 16 साल की 370 बच्चियों के साथ रेप या गैंगरेप हुआ. 18 से 30 साल की उम्र की 21 हजार से ज़्यादा लड़कियों के साथ रेप हुआ. और 60 साल से ज़्यादा उम्र की 87 बुज़ुर्ग महिलाओं को भी इस अपराध ने नहीं छोड़ा. ये आंकड़े सिर्फ गिनती नहीं हैं. ये हर उस दर्द, डर और चीख का प्रमाण हैं जो आज भी लाखों महिलाओं की ज़िंदगी का हिस्सा है. सवाल ये नहीं है कि क्या ये हालात बदलेंगे. सवाल ये है कि हम सब कब तक आंखें मूंदे रहेंगे?

हम अक्सर सुनते हैं कि भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध को रोकने के लिए बहुत सख्त कानून हैं. उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सज़ा दी जाती है. लेकिन सच्चाई ये है कि इतने सख्त कानूनों के बावजूद अपराध रुकते नहीं हैं. और इसकी सबसे बड़ी वजह है, हमारी न्यायिक व्यवस्था. कानून सिर्फ किताबों में सख्त हैं, ज़मीन पर नहीं. इसका सबसे खौफनाक उदाहरण है मध्य प्रदेश का वो मामला, जिसमें एक शख्स को 22 साल पहले एक पांच साल की बच्ची के रेप के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. कोर्ट ने इसे दोषी माना और 10 साल की सज़ा सुनाई. लेकिन जब ये 2014 में जेल से बाहर आया, तो इसने फिर से सिहोर में एक बच्ची के साथ रेप किया. इस बार उसे फांसी की सज़ा सुनाई गई, लेकिन हाई कोर्ट ने ‘तकनीकी आधार' पर, यानी सबूतों के अभाव में उसे बरी कर दिया. और फिर, वही शख्स फिर से जेल से बाहर आया और इस बार इसने 11 साल की एक मूक-बधिर बच्ची का रेप किया. अब वो फिर से पुलिस की हिरासत में है.

ये कहानी कोई इकलौती नहीं है. ऐसे सैकड़ों केस हैं, जहां अपराधी बार-बार वही गुनाह करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि सिस्टम इतना ढीला है कि या तो सबूत नहीं मिलेंगे, या केस सालों तक खिंचता रहेगा, या फिर टेक्निकल वजहों से छूट जाएंगे. और यही बात सबसे खतरनाक है, क्योंकि इसका मतलब है कि हमारे कानून जितने भी सख्त हों, जब तक हमारी पुलिस, हमारी जांच एजेंसियां और हमारी अदालतें अपना काम मजबूती से नहीं करतीं, तब तक इन कानूनों का कोई असर नहीं होने वाला. ये अपराधी जानते हैं कि पकड़ भी लिए गए तो कुछ नहीं होगा, और यही वजह है कि अपराध दोहराए जाते हैं, बच्चियों की ज़िंदगी तबाह होती है और समाज बस आंकड़े गिनकर भूल जाता है. जब तक सज़ा तय, तेज़ और तय समय पर नहीं होगी. तब तक डर नहीं बैठेगा और जब तक डर नहीं होगा, तब तक ये घटनाएं नहीं रुकेंगी.

समाधान क्या है?

आज जब पुरुषों के खिलाफ अपराधों की कुछ घटनाओं को दिखाकर महिलाओं की तकलीफों को कमतर दिखाने की कोशिश की जा रही है, तब ये और ज़रूरी हो जाता है कि हम सच्चाई को साफ-साफ दिखाएं. ये ज़रूरी है कि इस कचहरी के ज़रिए, इस मंच के ज़रिए पूरे देश को बताया जाए कि महिलाओं के खिलाफ अपराध की स्थिति आज भी बदली नहीं है. आज भी एक लड़की को सच बोलने की सज़ा मिलती है, आज भी एक महिला को इंसाफ मांगने पर समाज के ताने झेलने पड़ते हैं. और ये सब तब हो रहा है जब कानून, संविधान और समाज – तीनों उसे सुरक्षा देने का वादा करते हैं.

लेकिन वादा करने और निभाने में फर्क है. इन अपराधों को रोकने के लिए सिर्फ कानून काफी नहीं हैं, हमें सोच बदलनी होगी. हमें महिला विरोधी मानसिकता को जड़ से खत्म करना होगा. ये समझना होगा कि अगर कोई महिला आवाज़ उठा रही है, तो वो झूठ नहीं बोल रही – वो मदद मांग रही है. और उस वक्त हमें उसे चुप कराने के बजाय उसके साथ खड़ा होना होगा.

पुलिस को भी अपनी भूमिका समझनी होगी. सिर्फ कागज़ भरना और रिपोर्ट लिखना काफी नहीं है. ईमानदारी से जांच होनी चाहिए, सबूत इकट्ठा होने चाहिए, ताकि अदालत में अपराधी बच न सके. और अदालतों को भी ये देखना होगा कि 'टेक्निकल कारणों' के नाम पर कोई अपराधी छूट न जाए. कानून का मतलब सिर्फ फैसले देना नहीं है, इंसाफ देना है. आखिर में बस एक बात, जो समाज महिलाओं पर होने वाले अपराधों पर चुप रहता है, जो हर बार पीड़िता से सवाल करता है लेकिन अपराधी से नहीं, जो घटना हो जाने के बाद भी बग़ैर कोई गुस्सा, बग़ैर कोई आवाज़ उठाए चुप बैठा रहता है. वो समाज चाहे जितनी ऊंची इमारतें बना ले, असली तरक्की कभी नहीं कर सकता. क्योंकि जो अपनी बेटियों को सुरक्षित नहीं रख सकता, वो किसी भी मायने में सफल नहीं है.

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