समलैंगिक विवाह पर सुनवाई न करें, ये मामला संसद पर छोड़ दें : SC से केंद्र की अपील

केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से आग्रह किया कि वह समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता देने के अनुरोध वाली याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों को संसद के लिए छोड़ने पर विचार करे.

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नई दिल्‍ली:

समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता देने के मामले में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि असली सवाल यह है कि शादी की परिभाषा क्या है? और यह किसके बीच वैध मानी जाएगी, इस पर फैसला कौन करेगा? केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय से आग्रह किया कि वह समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता देने के अनुरोध वाली याचिकाओं में उठाए गए मुद्दों को संसद के लिए छोड़ने पर विचार करे. समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता के मामले पर सुनवाई के दौरान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि आप एक बेहद जटिल मुद्दे पर सुनवाई कर रहे हैं, जिसके व्यापक सामाजिक प्रभाव हैं.

समलैंगिक शादी को मान्यता देने की याचिकाओं पर सुनवाई का पांचवां दिन है. याचिकाकर्ताओं की ओर से बहस पूरी हो गई है. अब इस मामले में केंद्र की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहस शुरू की है

तुषार मेहता ने सुनवाई के दौरान कोर्ट में कहा...
- मैं पहले कोर्ट के अफसर और एक नागरिक के तौर पर भी बोल रहा हूं. ये बड़ा जटिल सवाल है, इसे संसद पर छोड़ देना चाहिए. सवाल ये है कि शादी का गठन कैसे होता है और शादी किनके बीच होती है? इसके बहुत प्रभाव पड़ेंगे, सिर्फ समाज पर ही नहीं बल्कि दूसरे कानूनों पर? इस पर अलग-अलग राज्यों, सिविल सोसाइटी ग्रुप व अन्य समूहों के बीच बहस होनी चाहिए.
- स्पेशल मैरिज एक्ट और अन्य विवाह कानूनों के अलावा 160 ऐसे कानून हैं जिन पर इसका प्रभाव पड़ेगा. कोर्ट एक जटिल विषय से निपट रहा है, जिसका गहरा सामाजिक प्रभाव है. केवल संसद ही यह तय कर सकती है कि विवाह क्या होता है और विवाह किसके बीच हो सकता है. इसका विभिन्न कानूनों और पर्सनल लॉ  पर प्रभाव पड़ता है.
- इससे पहले एक बहस होनी चाहिए, विभिन्न हितधारकों से परामर्श किया जाना चाहिए, राष्ट्रीय दृष्टिकोण, विशेषज्ञों को ध्यान में रखा जाना चाहिए और विभिन्न कानूनों पर प्रभाव पर भी विचार किया जाना चाहिए.
- भारतीय कानूनों और पर्सनल लॉ में विवाह की विधायी समझ केवल एक जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच विवाह को संदर्भित करती है. शादी का अधिकार सरकार को इसका व्याख्या बदलने के लिए मजबूर करना नहीं है. शादी का अधिकार एक संपूर्ण अधिकार नहीं है.
- सभी कानून दीवानी, फौजदारी वे पारंपरिक अर्थों में पुरुष और महिलाओं को परिभाषित करते हैं. जब इस सवाल पर पहली बार बहस हो रही है, तो क्या इसे पहले संसद या राज्य विधानमंडल के पास नहीं जाना चाहिए? कोई भी ये नहीं कह रहा है कि यह अच्छा है या बुरा. इस समुदाय से  कोई कलंक नहीं जुड़ा है. 
- संसद ने उनकी पसंद के अधिकार, यौन पसंद के मामले में स्वायत्तता और निजता यानी अंतरंग संबंधों के अधिकार को स्वीकार कर लिया है. इसमें कोई कलंक नहीं जुड़ा है, क्योंकि ट्रांसजेंडर एक्ट में विधायी नीति बहुत स्पष्ट है, जहां ट्रांसजेंडरों को अधिकार दिए गए हैं. 
-  नवतेज जौहर मामले में अदालत के फैसले के मद्देनजर टीजी अधिनियम संसद की प्रतिक्रिया है. ऐसे विशिष्ट प्रावधान हैं जहां भेदभाव निषिद्ध है और इसे अपराध बना दिया गया है. सवाल  यह है कि क्या एक सामाजिक संस्था के रूप में विवाह करने के अधिकार को न्यायिक फैसले के रूप में प्रार्थना की जा सकती है?
- शादी का अधिकार भी संपूर्ण नहीं है, क्योंकि इसके लिए भी कानून हैं कि कितनी उम्र में शादी की जा सकती है. समलैंगिक विवाह का असर विषमलिंगी लोगों पर भी पड़ेगा, क्योंकि स्पेशल मैरिज एक्ट को इंटर फेथ शादी के लिए बनाया गया था. इससे स्पेशल मैरिज एक्ट में दो वर्ग हो जाएंगे. एक विषमलिंगी और दूसरा समलिंगी. कानूनों में पति-पत्नी का मतलब जैविक पुरुष और महिला.
-  विवाह धर्म से जुड़ा एक मुद्दा है और संस्थाएं धर्म के मुताबिक उसे मान्यता देती है, यह समाज का आधार है. इसके कई शेड्स और स्पेक्ट्रम हैं, हम केवल LGBTQIA के साथ काम नहीं कर रहे हैं. अलग-अलग कानूनों  में 160 प्रावधान हैं और हम इन कई स्पेक्ट्रम और रंगों के साथ कैसे सामंजस्य बिठा पाएंगे
- अदालती फैसले के माध्यम से अन्य कानूनों के साथ SMA का समाधान करना असंभव है. संसद के लिए भी मुश्किल होगी. क्या अदालत के लिए नियम बनाना विवेकपूर्ण होगा?  हम एक अज्ञात वर्ग के साथ व्यवहार कर रहे हैं. क्या न्यायिक पक्ष पर इस विषय से निपटना विवेकपूर्ण होगा?
- अदालत शादी पर रोक की जांच नहीं कर रहा है. LGBTQIA के लिए शादी करने पर कोई रोक नहीं है. न्यायालय से विवाह को कानूनी दर्जा देने के लिए कहा जा रहा है, जिसे सभी धर्म एक संस्था मानते हैं.चाहे वो हिंदू धर्म हो या मुस्लिम. 
- विवाह कानूनी स्थिति के साथ प्रदान की गई एक सामाजिक संस्था है. ये सभी सामाजिक संस्थाएं लाखों वर्षों से  विषमलैंगिक जोड़ों की शादी को स्वीकार कर चुकी हैं. भारत में विवाह पवित्र मिलन और एक संस्कार है.

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इससे पहले उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का अनुरोध करने वाली याचिकाओं में उठाये गये मुद्दों पर संसद के पास अविवादित रूप से विधायी शक्ति है. प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ गोद लेने, उत्तराधिकार, पेंशन से जुड़े कानून और ग्रेच्युटी आदि विषयों पर कई कानूनी प्रश्नों का सामना कर रही है. न्यायालय ने कहा कि यदि समलैंगिक विवाह की अनुमति दी जाती है, तो इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए न्यायिक व्याख्या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 तक सीमित नहीं रहेगी और पर्सनल लॉ भी इसके दायरे में आ जाएगा.

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