16 साल की कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिया सिपाही के परिवार को इंसाफ. अब 6 हफ्ते में उत्तर प्रदेश सरकार को देनी होगी नौकरी. दरअसल, मामला ये है कि ड्यूटी के दौरान एक सिपाही को चोट लग गई थी, जिसके बाद उनकी तबीयत खराब हो गई थी. इलाज के दौरान सिपाही की मौत हो गई थी. मौत के समय सिपाही का बेटा नाबालिग था, इसलिए उसकी मां ने बालिग होने का इंतजार किया. बालिग होने के बाद जब नौकरी की मांग की तो सरकार ने मना कर दिया. इसी मामले में एक बड़ा फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में यूपी पुलिस के सिपाही की मौत के बाद बेटे को अनुकंपा के आधार पर नौकरी देने का आदेश दिया है. यूपी सरकार को 6 हफ्ते में बेटे को नौकरी देने के निर्देश दिया गया है
देखा जाए तो 16 साल की कानूनी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने परिवार को इंसाफ दिया है. सिपाही की मौत के 13 साल बाद बेटे ने सरकार के पास अनुकंपा के आधार पर नौकरी की अर्जी लगाई थी, लेकिन सरकार ने देरी के आधार पर नियुक्ति से इनकार कर दिया था. अब सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी है. हाईकोर्ट ने नौकरी के लिए विचार करने का आदेश दिया था जिसे यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस उज्जल भुइयां और जस्टिस संदीप मेहता ने यूपी सरकार की अर्जी खारिज करते हुए कहा, " हम हाईकोर्ट द्वारा लिए गए दृष्टिकोण में कोई त्रुटि या कमी नहीं देखते हैं. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रतिवादी को वर्ष 2010 से बिना किसी गलती के अपीलकर्ताओं द्वारा बार-बार मुकदमेबाजी में घसीटा जा रहा है. इसलिए हम इस अपील पर विचार करने के लिए इच्छुक नहीं हैं, जिसे तदनुसार खारिज किया जाता है."
पीठ ने यूपी सरकार को निर्देश दिया कि वो प्रतिवादी को एक समान पद पर नियुक्ति प्रदान करें जो इस आदेश की एक प्रति प्राप्त होने की तारीख से छह हफ्ते की अवधि के भीतर किया जाएगा. सुनवाई के दौरान एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड वंशजा शुक्ला ने सिपाही के बेटे की ओर से दलीलें दीं और बताया कि हाईकोर्ट ये फैसला देने में बिलकुल सही था कि जिस समय सिपाही की मौत हुई तब बेटा नाबालिग था.
साथ ही ये भी बताया कि सिपाही की पत्नी ग्रामीण क्षेत्र में रहती थी और उस पर 6 लोगों कि जिम्मेदारी थी जबकि उसके पास पेंशन के 3600 रुपये हर महीने आते थे.. शुक्ला ने दलील दी कि ऐसे में यूपी सरकार को देरी के आधार पर नियुक्ति से इनकार नहीं करना चाहिए था. उन्होंने कोर्ट को ये भी बताया कि शिशुपाल सिंह यूपी पुलिस में कांस्टेबल ड्राइवर के रूप में काम कर रहे थे.
1992 में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में गंभीर रूप से जख्मी हुए और इसके बाद वो बीमार रहने लगे. दरअसल अलीगढ़ निवासी वीरेंद्र पाल सिंह पिता शिशुपाल सिंह यूपी पुलिस में कांस्टेबल ड्राइवर के रूप में काम कर रहे थे. 30.10.1995 को बीमारी के कारण उनकी मृत्यु हो गई. चूंकि उनकी मृत्यु के समय बेटा वीरेंद्र पाल सिंह नाबालिग था इसलिए उसकी मां ने अनुकंपा के आधार पर नौकरी की मांग नहीं की.
बालिग होने पर 13 साल बाद 2008 में बेटे ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया जिसे यूपी सरकार ने देरी के आधार पर नामंजूर कर दिया. इसके बाद, बेटे ने सरकाक द्वारा पारित आदेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की. हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने यूपी सरकार को मामले पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया. यूपी सरकार द्वारा मामले पर फिर से विचार किया गया और इसे खारिज कर दिया गया.
सरकार का कहना था कि उसे अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन करने में देरी के लिए माफी का कोई कारण नहीं मिला. इसी तरह कानूनी लड़ाई के चलते कई साल बीत गए. 21 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने यूपी सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया और देरी के आधार के बिना ही चार महीने में वीरेंद्र को नियुक्ति देने पर विचार करने को कहा.
यूपी सरकार ने इस फैसले को हाईकोर्ट की डिविजन बेंच में चुनौती दी लेकिन इसने भी 2022 में खारिज कर दिया और यूपी सरकार को 6 हफ्ते में देरी के आधार पर छोड़कर नियुक्ति पर विचार करने को कहा.