जानवरों के बाद इंसानों में भी सफल रहा पार्किंसन का ट्रायल, जल्द ही बाजारों में आ सकती है दवा

इस शोध से जुड़े मुख्य रसायन विज्ञानी व कुमाऊं विश्व विद्यालय के कुलपति प्रोफेसर दीवान सिंह रावत ने बताया कि अमेरिका के बोस्टन में इसका मानवों पर परीक्षण सफल रहा है.

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पार्किंसन नर्वस सिस्टम की गंभीर बीमारी है, जिसमें हमें शरीर के अंगों पर कंट्रोल करने में कठिनाई होती है. इस बीमारी के उपचार के लिए अमेरिका के बोस्टन में चल रहे ट्रायल जानवरों के बाद अब इंसानों में भी सफल रहे हैं. अगर सब कुछ ठीक रहा तो जल्दी ही यह दवा बाजार में बिकने के लिए तैयार होगी. इस शोध से जुड़े मुख्य रसायन विज्ञानी व कुमाऊं विश्व विद्यालय के कुलपति प्रोफेसर दीवान सिंह रावत ने बताया कि अमेरिका के बोस्टन में इसका मानवों पर परीक्षण सफल रहा है.

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पार्किसंस के लक्षण: 

उन्होंने कहा, “पार्किंसन मेनली वृद्ध लोगों में होती है. जब यह बीमारी होती है तो इसके सामान्य लक्षणों में हाथ-पैर का कंपन जैसे हिलना, याददाश्त खोना शामिल है. एक अवस्था ऐसी आती है जब व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज नहीं है. इसका कारण यह है कि मानव ब्रेन में लगभग 86 अरब न्यूरॉन होते हैं. इन डोपामिनर्जिक न्यूरॉन डोपामाइन का प्रोडक्शन करते हैं. जब किसी कारणवश डोपामाइन प्रोडक्शन में कमी आती है, तो पार्किंसन रोग के लक्षण दिखने लगते हैं."

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अभी मौजूद दवा सिर्फ लक्षणों को मैनेज करती है:

उन्होंने बताया कि अभी तक जो दवा उपयोग की जाती है, वह एल्डोपा से संबंधित यौगिक हैं. यह दवा इलाज नहीं कर पाती. यह केवल मैनेज करती है. जब पार्किंसन रोग बढ़ता है तो सभी दवाएं बेकार हो जाती हैं. व्यक्ति तब तक पीड़ित रहता है जब तक कि उसकी मौत न हो. इस बीमारी में केवल मरीज ही नहीं, बल्कि उनके परिवार के लोग भी परेशान होते हैं. इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज नहीं है.

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वह आगे कहते हैं कि 2012 में हमने यह कार्य अमेरिकी अधिकारियों के सहयोग से शुरू किया था. चूंकि हम रसायन विज्ञानी हैं. हम यौगिकों को डिजाइन करते हैं और उन्हें बनाते हैं. जब औषधीय रसायन विज्ञानी 10 हजार यौगिकों को बनाते हैं, तो उनमें से केवल एक यौगिक बाजार में दवा के रूप में आता है. इसे विकसित करने में 10 से 18 साल का समय लगता है, जिसमें कुल खर्च लगभग 45 करोड़ अमेरिकी डॉलर होता है. यह बड़ा कठिन कार्य होता है. जब आपके पास 86 अरब न्यूरॉन्स होते हैं और आपको एक न्यूरॉन को टारगेट करना होता है, तो यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है.

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पशुओं पर हो चुका है ट्रायल:

हमारा कोलेबोरेशन बोस्टन के मैकलीन अस्पताल में 2012 में शुरू हुआ था. तब से हम इस पर लगातार कार्यरत थे. हमने पशुओं पर इसका टेस्ट किया और यह भी प्रमाणित किया कि बिना किसी दुष्प्रभाव के इस यौगिक का क्यूरेटिव प्रभाव हो सकता है. यह पार्किंसन रोग को ठीक कर सकता है. इस शोध को हमने पिछले साल एक बड़े जर्नल "नेचर कम्युनिकेशन" में प्रकाशित किया था.

इसके पेटेंट पर बताते हुए वह कहते हैं, “2021 में हमने टेक्नोलॉजी ट्रांसफर किया और अब जो पेटेंट हैं, वे दिल्ली विश्वविद्यालय और मैकलीन अस्पताल के संयुक्त पेटेंट हैं, जिसमें हमने चौदह पेटेंट हासिल किए हैं. पिछले साल इस यौगिक को एक दवा के रूप में बनाने के लिए अमेरिका की तीन कंपनियां एक साथ आई थीं. इसके क्लिनिकल में बहुत खर्च आता है. इसके लिए एमजे फॉक्स फाउंडेशन ने पूरा फंड किया था.

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मानव पर भी हो चुका है फेज 1 क्लिनिकल ट्रायल:

पिछले साल इसका मानव फेज 1 क्लिनिकल ट्रायल शुरू हुआ. हमारे इस रिसर्च को ब्लूमबर्ग और वॉल स्ट्रीट जर्नल ने भी प्रकाशित किया था. यह ऐसा यौगिक है जो लाइलाज बीमारी की संभावना के तौर पर देखा जा रहा है. ह्यूमन क्लिनिकल ट्रायल से पता चला कि इस यौगिक की टॉक्सिटी सीमा में है. अगले साल से इस यौगिक के द्वारा पार्किंसन रोग के मरीजों का उपचार शुरू होगा. हमारे पास जो डेटा है, उसके अनुसार उम्मीद की जा सकती है कि यह यौगिक इंटरनेशनल मार्केट में दवा के रूप में आ सकता है.

उन्होंने आगे कहा कि अगर यह बाजार में आता है तो यह एक बहुत बड़ी खोज होगी. अभी फेज-1 का डेटा हमारे पास आया है. अब इसके लिए बहुत सारे अप्रूवल की जरूरत होती है. इसलिए इसमें थोड़ा समय लगेगा. अगले साल की शुरुआत में चरण 2 में फिर यह देखा जाएगा कि मरीजों के उपचार में कितना सुधार होता है. अगर 40 से 50 प्रतिशत भी सुधार हो जाता है, तो यह न्यूनतम स्थिति होगी. इस लिहाज से हम काफी आशान्वित हैं, क्योंकि फेज 1 बहुत चुनौतीपूर्ण होता है."

(अस्वीकरण: सलाह सहित यह सामग्री केवल सामान्य जानकारी प्रदान करती है. यह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है. अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने चिकित्सक से परामर्श करें. एनडीटीवी इस जानकारी के लिए ज़िम्मेदारी का दावा नहीं करता है.)

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