कयामत से कयामत तक ने पूरे किए शानदार 36 साल, लेकिन जानते हैं आमिर खान की इस फिल्म का पहले क्या रखा गया था नाम

आमिर खान और जूही चावला की टाइमलेस मूवी कयामत से कयामत तक ने 36 साल पूरे कर लिए. फिल्म आज ही के दिन 1988 में रिलीज हुई थी. क्या आप जानते हैं कि इस फिल्म का पहले क्या नाम रखा गया था.

कयामत से कयामत तक ने पूरे किए शानदार 36 साल, लेकिन जानते हैं आमिर खान की इस फिल्म का पहले क्या रखा गया था नाम

कयामत से कयामत तक ने पूरे किए 36 साल

नई दिल्ली:

कयामत से कयामत तक 1988 में रिलीज हुई, एक ऐसी टाइमलेस बॉलीवुड लव स्टोरी है, जिसने कई पीढ़ियों से दर्शकों के दिलों पर राज किया है. फिल्म के गाने से लेकर कहानी और कलाकार सब पसंद किए गए. आज, यह सिनेमा के इतिहास की सबसे पसंदीदा रोमांटिक फिल्मों में से एक के रूप में अपनी 36वीं वर्षगांठ मना रही है. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट कहे जाने वाले आमिर खान ने बतौर लीड एक्टर फिल्म कयामत से कयामत तक से अपनी शुरुआत की थी. राज के रूप में उन्हें दर्शकों और क्रिटिक्स दोनों ने खूब पसंद किया था. इतना ही नहीं फिल्म में उनकी जूही चावला के साथ केमिस्ट्री ने सभी का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. फिल्म में दोनों के बीच के रोमांस ने सभी के दिलों को धड़काया था. इस फिल्म ने आमिर खान और जूही चावला को बॉलीवुड में एक मजबूत स्थान दिया था और इस तरह फिल्म ने उन्हें इंडियन फिल्म इंडिस्ट्री में एक आइकॉनिक फिगर्स में से एक बना दिया.

लेकिन आप जानते हैं कि कयामत से कयामत तक का पहले नाम कुछ और था. आईएमडीबी के मुताबिक, इसका पहले टाइटल नफरत के वारिस रखा गया था. लेकिन फिर इस नाम को बदलकर कयामत से कयामत तक कर दिया गया था. मंसूर खान की इस फिल्म की कहानी न सिर्फ शानदार थी, बल्कि इसके टाइमलेस गाने ने भी लोगों पर गहरी छाप छोड़ी. आनंद-मिलिंद द्वारा कंपोज्ड और मजरूह सुल्तानपुरी द्वारा लिखे गए, यह साउंडट्रैक अपनी इमोशनल गहराई की वजह से दर्शकों के बीच तुरंत हिट हो गए. पापा कहते हैं, अकेले हैं तो क्या गम है और ऐ मेरे हमसफर जैसे सॉन्ग्स आज भी खूब पॉपुलर हैं.

कयामत से कयामत तक एक ऐसा पल है, इंडियन सिनेमा के इतिहास में जो हमेशा याद किया जाएगा, क्यों कि इस फिल्म ने इंडस्ट्री के रुख को हमेशा के लिए बदल दिया गया और दर्शकों पर गहरा असर छोड़ा. यह कहना गलत नहीं होगा कि इस फिल्म ने इंडियन सिनेमा के जॉनर को दोबारा परिभाषित कर दिया. 1988 में आई इस फिल्म में माता-पिता के विरोध, सामाजिक अपेक्षाएं और परंपरा और मॉडर्न युग के बीच के संघर्ष जैसे जरूरी सामाजिक मुद्दों को दिखाया गया था. इसने कहानी कहने के क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत की, जिसमें नएपन, सच्चाई और इमोशंस से भरी गहराई थी.

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