दुनिया की नजरें इस समय मध्य-एशिया में तेजी से बदलते घटनाक्रम पर टिकी हैं. लेबनान में युद्धविराम के बाद सीरिया की सत्ता पर हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएएस) के लड़ाकों का कब्जा हो गया है. राष्ट्रपति बशर अल असद देश छोड़कर भाग गए हैं. सीरिया के इस घटनाक्रम के बाद इराक में स्थिरता को लेकर भी चर्चा हो रही है. सवाल ये है कि बशर अल असद की सरकार को हर बार बचाने वाले रूस और ईरान ने इस बार उनकी सरकार को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की. इन दोनों देशों ने असद को उनके हाल पर क्यों छोड़ दिया. वहीं सवाल यह भी है कि इन तमाम घटनाओं का भारत समेत बाकी दुनिया पर क्या असर पड़ने वाला है. इस हालात में भारत की रणनीति क्या होनी चाहिए.
बशर अल असद के शासन का अंत
बशर अल असद अपने पिता हाफिज अल असद की मौत के बाद 17 जुलाई 2000 को सीरिया के राष्ट्रपति बने थे.उनके कार्यकाल में आंदोलन, हिंसा और युद्ध के अलावा गिनाने के लिए बहुत कम बातें हैं. तकरीबन 25 साल के उनके शासन का एक बड़ा हिस्सा आईएसआईएस और अल कायदा के अलावा तमाम तरह के आतंकवादी संगठनों से निपटने में गुजर गया. असद सरकार के खिलाफ मार्च 2011 में जनांदोलन खड़ा हुआ. जल्द ही यह हिंसक हो गया. उसके बाद से ही सीरिया गृहयुद्ध की चपेट में है. इस बीच रूस, ईरान और लेबनान के हिजबुल्लाह की मदद से असद सत्ता में बने रहे. लेकिन पिछले कुछ दिनों में घटनाक्रम तेजी से बदला. विद्रोहियों ने आठ दिसंबर की सुबह राजधानी दमिश्क पर कब्जा कर लिया.इसी के साथ असद परिवार की दशकों पुरानी सत्ता का अंत हो गया.
सीरिया में विद्रोहियों ने जब 29 नवंबर को अलेप्पो शहर पर कब्जा जमाया तो पूरी दुनिया की नजरें सीरिया पर लग गईं. जिस तेजी से हयात तहरीर अल-शाम (एचटीएएस) के लड़ाके अलेप्पो से एक के बाद एक शहर पर कब्जा करते हुए राजधानी दमिश्क तक पहुंचे हैं, उसने हैरान किया है. इस दौरान बशर अल असद की सेना और उनकी समर्थक मिलिशिया ने कोई प्रतिरोध नहीं किया.कहा जा रहा है कि विद्रोहियों के दमिश्क पर कब्जा जमाने से पहले ही ईरान ने अपने सैनिक और साजो-सामान सीरिया से निकाल लिए.रूस ने भी तारतूस में अपने नौसैनिक अड्डे को इससे पहले तकरीबन खाली कर दिया.आठ दिसंबर को जिस समय प्रधानमंत्री मोहम्मद गाजी अल जलाली ने सत्ता हस्तांतरण का ऐलान किया, उस समय तक मध्य पूर्व में बहुत कुछ बदल चुका था.
क्या रूस और ईरान असद को बचा सकते थे
अब लोगों में मन मे सबसे बड़ा सवाल यही है कि ईरान और रूस ने असद की सत्ता क्यों छिन जाने दी. ये इसलिए भी अहम है क्योंकि पिछले करीब 15 साल से ईरान और रूस ने सीरिया में काफी निवेश किया था. दोनों के लिए सीरिया की बहुत अधिक रणनीतिक अहमियत थी.हालांकि सामने से देखने में लग रहा है कि रूस यूक्रेन में उलझा हुआ है, लेबनान में हिजबुल्लाह अपने जख्म सहला रहा है और ईरान इस समय कोई नई लड़ाई लड़ने की हालत में नहीं है. आर्थिक तंगी और युद्ध पर भारी-भरकम खर्च के चलते ईरान ने सीरिया को फिलहाल कुर्बान कर दिया है. लेकिन मामला इतना सीधा भी नहीं है. यह सच है कि ईरान आर्थिक तंगी में है और सीरिया में उसका खर्च अपनी अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ साबित हो रहा था. तमाम ट्रेनिंग, हथियार और पैसे देकर भी ईरान सीरियाई सेना में प्रतिरोधात्मक क्षमता विकसित कर पाने में नाकाम रहा. जब भी मौका आया सीरियाई सैनिक पीछे हट गए. इसकी कीमत ईरान के सैन्य सलाहकारों के साथ-साथ रेजिस्टेंस समूहों को चुकानी पड़ी. एक अनुमान के मुताबिक पिछले दस साल में ईरान ने सीरिया को बचाने में अपने टॉप कमांडरों समेत कम से कम छह हजार सैनिक खोए हैं. इसके अलावा रिवोल्यूशनरी गार्ड, हिजबुल्लाह, फातमिऊन और मोबालाइजेशन यूनिट के हजारों लड़ाकों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी है. किसी दूसरे देश में अपने हित बचाए रखने के लिए ये बहुत बड़ी कीमत है. लेकिन इतने भर से ईरान और रूस ने असद को छोड़ने का फैसला नहीं लिया.
रूस और ईरान के असद को अकेला छोड़ देने के पीछे कई और कारण हैं. एक तो असद के लिए इन दोनों देशों ने जितना किया उसके बदले में उन्होंने कुछ लौटाया नहीं. रूस यूक्रेन के साथ युद्ध में शामिल हुआ तो उसे उम्मीद थी कि सीरिया से उसे कुछ मदद मिलेगी. इसी तरह की उम्मीद लेबनान में इजरायली हमलों के बाद ईरान को भी थी. लेकिन असद ने इससे तटस्थ रहते हुए अमेरिका और इजरायल से ही संपर्क बना लिए. पिछले कुछ दिनों से चर्चा थी कि असद इजरायल से शांति समझौता करने की फिराक में थे. इजरायल और अमेरिका उनकी सत्ता को स्वीकार कर लेते. इसके बदले में असद ईरानी सैन्य सलाहकारों, लड़ाकों और रिवोल्यूशनरी गार्ड्स को सीरिया से बाहर जाने के लिए कहते. असद की यह कूटनीतिक पहल ईरान और रूस से छिपी नहीं थी. इस बीच इजरायल ने सीरिया में ईरान के ठिकानों को निशाना बनाया. ईरानी सूत्रों का दावा है कि इजरायल को इन ठिकानों की जानकारी सीरियाई सेना के लोगों ने दी.
असद की किस बात से परेशान थे रूस और ईरन
असद को लेकर ईरान और रूस की एक और बड़ी शिकायत थी. सीरिया अपने सैनिकों की तनख्वाह और सहयोगी देशों से मिल रहे हथियारों का भुगतान नहीं कर रहा था. इस बीच इजरायली हमलों में नष्ट हुए हथियारों के लिए भी सीरियाई सरकार ने अपना पल्ला झाड़ लिया. जाहिर है कि जब अपनी ही अर्थव्यवस्था दबाव में हो तो कोई भी देश इस तरह के खर्च वहन नहीं कर सकता. ईरान भले ही सीरिया को एक्सिस ऑफ रेजिस्टेंस का हिस्सा मान रहा था, लेकिन सीरिया की ओर से ऐसी कोई भावना नहीं थी. इसका एक उदाहरण यमन में अंसारुल्लाह के राजधानी सना पर कब्जे के बाद देखने के मिला. अंसारुल्लाह सीरिया में अपना दूतावास खोलना चाहता था. लेकिन तुर्की, कतर और इजरायल के डर से असद ने ऐसा नहीं होने दिया. इसके बरअक्स अक्टूबर 2023 में असद ने अंसारुल्लाह से दमिश्क में यमनी दूतावास खाली कराकर उसे सऊदी अरब के समर्थन वाली सरकार को सौंप दिया. यह बात ईरान को नागवर गुजरी.
असद ने अपने शासन के शुरुआती दस साल में सीरिया को सेक्युलर देश बनाने और अपने पिता के शासनकाल की सख्तियां कम करने की कोशिश की थी. इससे उनकी छवि एक ऐसे प्रगतिशील शासक की बनी जो सभी धर्मों और जातीय समूहों को साथ लेकर चलना चाहता है. लेकिन गृह युद्ध ने उनकी इस छवि को ध्वस्त कर दिया. अब असद के जाने के बाद जो लोग सत्ता में आए हैं, उनको लेकर शंकाएं लाजिम हैं. विद्रोही नेता अबू मोहम्मद अल जुलानी इस्लामिक स्टेट, अल कायदा और अल नुसरा जैसे संगठनों में रहे हैं. दुनिया इन संगठनों को आतंकी संगठन ही मानती है. कुल मिलाकर सीरिया में अफगानिस्तान जैसे हालात हैं.
सीरिया के हालात पर भारत को क्या करना चाहिए
एचटीएएस से दुनिया को बहुत अधिक उम्मीद नहीं है.इसके बाद भी दुनिया मध्य-एशिया में शांति चाहती है. चर्चा है कि असद के बदले एचटीएएस को सत्ता में लाने के लिए कतर ने तुर्की, रूस और ईरान के बीच डील कराई है. इसके मुताबिक एचटीएस को सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण होगा. इसके बदले में सीरिया की नई सरकार अल्पसंख्यक ईसाई, अलावी, द्रूज, शिया या कुर्द आबादी का दमन नहीं करेगी. किसी तरफ से बदले की कोई कार्रवाई नहीं होगी. सीरिया में ईसाई और शियाओं के धार्मिक महत्व की जगहों को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा.सीरिया में सबका प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार लाने के लिए सब मिलकर प्रयास करेंगे.
इस हालात में भारत समेत पूरी दुनिया सिर्फ दुआ ही कर सकती है कि तमाम पक्ष इन शर्तों पर कायम रहे. सीरिया में भारत के लिए फिलहाल देखो और इंतजार करो वाली स्थिति है. दमिश्क में भारतीय सूत्र नई सरकार के साथ सामंजस्य बिठाने में लगे होंगे. हालांकि तुर्की का दखल इसमें रोड़ा बन सकता है.इसके बाद भी हम उम्मीद कर सकते हैं कि शांति कायम हो ताकि भारत और भारतीयों के लिए मध्य पूर्व में सुरक्षा का वातावरण बने. इस्लामी मिलिशिया और आतंकी संगठनों की बढ़ती ताकत से भारत का चिंतित होना लाजिम है, लेकिन मौजूदा हालत में भारत कुछ ज्यादा करने की हालत में नहीं है. भारत को अभी इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि मध्य-पूर्व की हिंसा और धटनाओं का असर घर में न हो और लोग इन घटनाओं को सांप्रदायिक या जातीय तनाव बढ़ाने में न करें.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पश्चिम एशिया के मामलों के जानकार हैं.
(अस्वीकरण: यह लेखक के निजी विचार हैं. इसमें दिए गए तथ्यों और विचारों से एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है. )
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