सोशल मीडिया के सांप्रदायिक दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट ने जो चिंता जताई है, वह बिल्कुल जायज़ है. यह सच है कि सोशल मीडिया बिल्कुल बेलगाम दिखता है. लेकिन क्या इसलिए कि सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए हमारे पास पर्याप्त क़ानून नहीं हैं? जो सूचना प्रौद्योगिकी क़ानून है, उसका इस्तेमाल कर कई पत्रकारों, सामाजिक संगठनों से जुड़े लोगों और यहां तक कि बहुत आम लड़कियों पर भी मुक़दमे किए गए हैं, उन्हें जेल में डाला गया है. कई बरस पहले महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की मौत के बाद मुंबई के हालात को लेकर दो लड़कियों ने सोशल मीडिया पर मामूली सी टिप्पणी की और उनको कुछ दिन जेल में काटने पड़ गए. कोरोना के दौरान लोगों पर बीमारियों का ज़िक्र करने भर से मुक़दमे किए गए.
दरअसल भारत में जितना दुरुपयोग सोशल मीडिया का दिख रहा है, उससे कहीं ज़्यादा दुरुपयोग क़ानूनों का दिख रहा है. सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ नहीं है कि जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर यह टिप्पणी की, उसी दिन एक और अदालत ने दिल्ली दंगों की जांच को लेकर दिल्ली पुलिस को तीखी फटकार लगाई. अदालत ने यहां तक कह दिया कि दिल्ली पुलिस दंगों की जांच के नाम पर जनता के पैसे बरबाद कर रही है- यह एक शर्मनाक दौर है. आज ही दिल्ली दंगों में उमर ख़ालिद के वकील ने जानकारी दी कि दिल्ली पुलिस जिन साक्ष्यों के आधार पर उन्हें आरोपी बना रही है, वे उसके पास हैं ही नहीं. मसलन, वकील के मुताबिक दिल्ली पुलिस ने आरोप पत्र में दावा किया है कि उमर ख़ालिद ने देश के टुकड़े होने का नारा लगाया, जबकि उसके पास कोई वीडियो है ही नहीं.
बहरहाल, सोशल मीडिया पर लौटें. यह सवाल वैध है कि अगर सोशल मीडिया पर लगाम लगाने के लिए क़ानून सख़्त न करें तो क्या करें. दरअसल यह एक लोकप्रिय अवधारणा है कि क़ानून जितने सख़्त होंगे, अपराध उतने कम होंगे. लेकिन दुनिया भर के अनुभव इसकी पुष्टि नहीं करते. उल्टा यह दिखाई पड़ता है कि सख़्त क़ानूनों की मौजूदगी में अपराधियों की सज़ा का प्रतिशत काफ़ी कम हो जाता है. यही नहीं, ऐसे कानूनों के दुरुपयोग का अंदेशा और बड़ा हो जाता है. सरकारों को सख़्त क़ानून बहुत रास आते हैं. इनसे उन्हें अपने विरोधियों पर क़ाबू पाने में मदद मिलती है. सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए भी जो मौजूदा क़ानून हैं, उनका लगातार दुरपयोग ही होता दिख रहा है.
दरअसल सोशल मीडिया के दुरुपयोग को देखने के लिए यह समझना जरूरी है कि यह दुरुपयोग कर कौन रहा है. हर आदमी के पास बेशक, मोबाइल या स्मार्टफोन होता है, इससे वह सेल्फ़ी भी ले सकता है, लेकिन हर आदमी वीडियो नहीं बना सकता. जाहिर है, कुछ समूह हैं जो वीडियो बना रहे हैं. ये समूह कौन हैं? आप इनके प्रोफाइल को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि इनमें ज़्यादातर सरकार समर्थक, बीजेपी समर्थक और संघ परिवार समर्थक लोग हैं. इन्हें प्रधानमंत्री की आलोचना पसंद नहीं, इन्हें महंगे होते पेट्रोल-डीज़ल के दाम की आलोचना पसंद नहीं, इन्हें महंगी होती सब्ज़ियों का रोना रोना मंज़ूर नहीं, इन्हें जीएसटी या नोटबंदी पर सवाल उठाना स्वीकार नहीं, इन्हें अनुच्छेद 370 हटाए जाने या कश्मीर में लोकतंत्र के सवाल पर कुछ कहना पसंद नहीं. इन्हें आज़ादी की लड़ाई में गांधी-नेहरू की भूमिका का बखान भी पसंद नहीं. इन्हें आरक्षण मंज़ूर नहीं, इन्हें माओवाद के नाम पर होने वाले दमन से गुरेज नहीं, इन्हें विकास की आलोचना पसंद नहीं. इसके अलावा ये तालिबान को कोस सकते हैं, पाकिस्तान को कोस सकते हैं, मुसलमान को कोस सकते हैं, इस बात पर चिंता जता सकते हैं कि फल बेचने के कारोबार पर मुसलमानों का क़ब्जा बढ़ रहा है, नेहरू और गांधी को लेकर फ़र्ज़ी ख़बरों से लेकर अश्लील कहानियां तक गढ़ना इनका शौक है. इस प्रवृत्ति और मनोवृत्ति को पोषण देने के लिए बाक़ायदा एक आइटी सेल है ही.
जाहिर है, यह तबका किसी शून्य से पैदा नहीं हुआ है. उसे पिछले पचास बरस में संघ परिवार तैयार करता रहा है. भारत के भीरू-मध्यवर्गीय समाज के भीतर गांधी-नेहरू को लेकर, आज़ादी की लड़ाई को लेकर, फिरोज़ गांधी और इंदिरा गांधी को लेकर तरह-तरह की कहानियां चलती रही हैं. इसी तरह हिंदू श्रेष्ठता और वैज्ञाानिकता के उद्धरण भी पेश किए जाते रहे हैं. जब आज यह विचारधारा सत्ता में है और सोशल मीडिया जैसा हथियार इसके पास सुलभ है तो घरों के भीतर होने वाली बेसिरपैर की चर्चाएं वाट्सऐप समूहों और तरह-तरह के यूट्यूब चैनलों पर अब आधिकारिक वक्तव्यों की तरह पेश की जाने लगी हैं. दुर्भाग्य से इन्हीं बरसों में विश्वविद्यालयों में कला संकाय की पढ़ाई बिल्कुल आउट ऑफ़ फैशन हो चुकी है और लोगों को इतिहास-समाजशास्त्र और भूगोल का कुछ अता-पता नहीं है. वे तकनीकी पढ़ाई करके लाखों कमा रहे हैं और इसी में खुश हैं. ऐसे में उन्हें ऐसे यू ट्यूब चैनल और वाट्सऐप वीडियो अपने ज्ञान का सबसे आसान ज़रिया मालूम पड़ते हैं.
ऐसा नहीं कि इस खेल में दूसरी विचारधाराएं या पार्टियां शामिल नहीं हैं. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी जैसे दलों के भी अपने आइटी सेल हैं. वहां से भी फ़र्ज़ी खबरें निकलती हैं जिनमें कई बार बीजेपी के नेताओं के प्रति विद्वेष होता है. लेकिन उनमें सामाजिक-सांप्रदायिक विद्वेष की जगह नहीं होती. दूसरी बात यह कि उनके गलत प्रचार पर क़ाबू पाने के लिए, उन्हें दंडित करने के लिए बाक़ायदा तैयार क़ानून हैं जिनका इस्तेमाल होता है. पिछले दिनों कांग्रेस नेता राहुल गांधी की एक मामूली सी चूक पर ट्विटर ने उनका और पूरा कांग्रेस का अकाउंट कुछ दिन के लिए स्थगित कर दिया. बेशक, उसके अपने तकनीकी आधार रहे होंगे, लेकिन ट्विटर, फेसबुक या वाट्सऐप क्या वाकई फ़र्ज़ी संदेशों की बाढ़ को लेकर किसी कसौटी पर अमल करते हैं? शायद वे कर भी नहीं सकते. केंद्र सरकार के मंत्रियों के भ्रामक ट्वीट अब भी ट्विटर के संसार में पड़े मिल जाएंगे.
जाहिर है, मामला क़ानूनों का नहीं, सत्ता की नीयत का है. और इसका असर सिर्फ़ सोशल या डिजिटल मीडिया पर नहीं, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भी दिखता है. कई टीवी चैनलों पर जिस तरह का सांप्रदायिक विषवमन चलता है, उसे देखते हुए उनके लाइसेंस कब के रद्द हो जाने चाहिए, लेकिन वे हो नहीं सकते. क्योंकि उनकी पीठ पर सत्ता का हाथ है. इसके मुकाबले जो चैनल सरकार के साथ नहीं हैं, उन्हें मामूली चूकों पर भी, टाइपो एरर पर भी, माफी मांगने की ज़रूरत पड़ती रहती है.
तो सुप्रीम कोर्ट की चिंता सही है. लेकिन जिस रोग की ओर अदालत इशारा कर रही है वह सिर्फ डिजिटल मीडिया संसार में नहीं है और न ही इसका इलाज सख्त क़ानून बनाने में है- दरअसल यह हमारे समाज और हमारी राजनीति में फैली बीमारी है जो सत्ता के कूलर के साफ़ पानी में पल रही है. जब तक यह पानी नहीं हटाया जाएगा, तब तक समाज के ज़हरीले सांप्रदायिकीकरण की प्रक्रिया चलती रहेगी. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसे किस तरह लें- मासूमियत से इनके दुष्प्रचार के शिकार होते रहे और अनजाने में अपनी मानसिकता में एक तरह की संकीर्णता आने दें या फिर इनका प्रतिरोध कर न्याय और बराबरी पर आधारित लोकतंत्र की बुनियाद मज़बूत करें. यह सोशल नहीं, ऐंटी सोशल मीडिया है जिसका हमें सामना करना है.
प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...
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