दक्षिण अफ्रीका के जोहानिसबर्ग में 22–23 नवंबर तक चला G20 शिखर सम्मेलन कई मायनों में ऐतिहासिक रहा. यह पहला मौका था जब G20 सम्मेलन अफ्रीकी धरती पर आयोजित हुआ. इससे भी अधिक चौंकाने वाला था अमेरिका का पूर्ण बहिष्कार. डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाली अमेरिकी सरकार ने दक्षिण अफ्रीका पर'नस्लीय भेदभाव' का आरोप लगाकर शिखर सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया, हालांकि यह आरोप अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अस्वीकार कर दिए गए. इसके बावजूद दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामाफोसा ने एकजुटता दिखाते हुए यह संदेश दिया कि अमेरिका की गैरमौजूदगी G20 की दिशा और उद्देश्य को रोक नहीं सकती. यह सम्मेलन कई दृष्टिकोणों से न केवल प्रतीकात्मक रूप से महत्वपूर्ण था, बल्कि इसमें वैश्विक शासन की बदली हुई प्रवृत्तियां भी स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुईं.
लीडर्स डिक्लेरेशन पर नई रणनीति
इस सम्मेलन में एक असाधारण कदम यह भी देखा गया कि नेताओं की घोषणा (लीडर्स डिक्लेरेशन) शुरुआत में ही अपनाई गई, न कि पारंपरिक रूप से अंत में. यह रणनीति इसलिए अपनाई गई क्योंकि अमेरिका ने स्पष्ट संकेत दिए थे कि वह किसी भी ऐसे मसौदे को स्वीकार नहीं करेगा जिसमें जलवायु परिवर्तन या वैश्विक असमानता जैसे मुद्दों को स्थान दिया गया हो. लेकिन G20 के बाकी सदस्य देशों ने अमेरिका की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए आगे बढ़ने का निर्णय लिया और 122 बिंदुओं वाला घोषणा पत्र पारित किया. इस दस्तावेज में जलवायु संकट, कर्ज राहत, सतत विकास, वैश्विक ऋण ढांचे की पारदर्शिता और अफ्रीकी राष्ट्रों की चिंताओं को विशेष बल दिया गया. यह स्पष्ट करता है कि अब वैश्विक नेतृत्व केवल अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों तक सीमित नहीं रहा.
घोषणा पत्र के विरोध में अमेरिका के साथ अर्जेंटीना ने भी मतभेद जताया. अर्जेंटीना के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जेवियर मिलेइ, जो ट्रंप के करीबी माने जाते हैं. उन्होंने ने भी सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया और अंतिम क्षणों में दस्तावेज़ को समर्थन देने से इनकार कर दिया. उनका तर्क था कि इस घोषणा में इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष को ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया है. फिर भी दक्षिण अफ्रीका ने 'पर्याप्त सहमति' के आधार पर घोषणा पत्र को अपनाया और अमेरिका या किसी एक देश की असहमति के कारण पूरी प्रक्रिया को बाधित नहीं होने दिया. फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने अमेरिका की अनुपस्थिति को दुर्भाग्यपूर्ण बताया, लेकिन स्पष्ट किया कि G20 को अपने दायित्व निभाने चाहिए. चीन के प्रधानमंत्री ली क्यांग ने भी G20 को सहयोग और समन्वय का मंच बनाए रखने का आह्वान किया.
जोहानिसबर्ग में G20 शिखर सम्मेलन का सफल आयोजन यह बताता है कि अब वैश्विक नेतृत्व केवल अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों तक सीमित नहीं रहा.
क्या अमेरिका के बिना आगे बढ़ सकता है G20
यह घटनाक्रम यह दर्शाता है कि G20 अब एक बहुध्रुवीय, समावेशी और जिम्मेदार मंच के रूप में आगे बढ़ रहा है. विशेषकर अफ्रीका की पहली मेजबानी ने यह संदेश दिया कि अब विकासशील राष्ट्र भी वैश्विक एजेंडा तय करने की स्थिति में हैं. रामाफोसा ने इसे 'अफ्रीकी G20 अध्यक्षता की जीत' बताया और इस मंच की प्रतिष्ठा बनाए रखने पर जोर दिया. यह न केवल अफ्रीका के लिए, बल्कि सभी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी एक प्रेरणादायक संकेत था कि वे केवल दर्शक नहीं, बल्कि निर्णायक साझेदार हो सकते हैं.
जोहानिसबर्ग सम्मेलन की सबसे उल्लेखनीय बात यह रही कि यह बिना अमेरिका की भागीदारी के भी आगे बढ़ा. वैश्विक मंचों पर अक्सर यह धारणा रही है कि अमेरिका की सहमति के बिना कोई भी ठोस निर्णय नहीं लिया जा सकता. लेकिन इस सम्मेलन ने यह सोच बदल दी. अमेरिका की गैरहाजिरी के बावजूद बाकी सदस्य देशों ने एकजुट होकर निर्णय लिया कि जलवायु, ऋण और वैश्विक असमानता जैसे मुद्दों पर चुप नहीं बैठा जा सकता. यह इस बात का प्रतीक था कि विश्व अब केवल एकध्रुवीय नेतृत्व पर निर्भर नहीं रहना चाहता, बल्कि साझा समाधान की दिशा में बढ़ना चाहता है.
2023 में भारत की कूटनीतिक जीत
अब अगर हम 2023 में भारत की ओर से आयोजित नई दिल्ली G20 शिखर सम्मेलन की तुलना करें, तो वह भी अत्यंत प्रेरणादायक और सामरिक रूप से निर्णायक था. तब वैश्विक परिदृश्य रूस-यूक्रेन युद्ध से विभाजित था. सभी को आशंका थी कि कोई सर्वसम्मत घोषणा संभव नहीं होगी. लेकिन भारत ने महीनों की कूटनीतिक तैयारी, सैकड़ों द्विपक्षीय बैठकों और सटीक भाषा के माध्यम से एक ऐसा घोषणा पत्र तैयार किया जो सभी पक्षों को स्वीकार्य था. इसमें युद्ध पर सीधी आलोचना नहीं की गई, बल्कि शांति और अंतरराष्ट्रीय चार्टर के मूल्यों की बात की गई.'आज का युग युद्ध का नहीं होना चाहिए' जैसी भाषा ने भारत की संतुलित भूमिका को दर्शाया.
G20 भारत के लिए केवल एक मंच नहीं, बल्कि एक रणनीतिक अवसर है.
नई दिल्ली में संयुक्त घोषणा पत्र के पीछे की मेहनत उल्लेखनीय थी: करीब 300 द्विपक्षीय बैठकें, 15 मसौदे और 200 घंटे की चर्चा के बाद यह दस्तावेज संभव हो पाया. भारत ने यह सुनिश्चित किया कि यूक्रेन युद्ध जैसे विभाजनकारी विषयों के बावजूद अन्य मुद्दों जैसे सतत विकास, डिजिटल समावेशन, वैश्विक दक्षिण की चुनौतियां पर सहमति बने. साल 2022 के बाली घोषणा पत्र की तुलना में नई दिल्ली में युद्ध पर भाषा अधिक नरम थी, लेकिन यह रणनीतिक रूप से आवश्यक था. भारत ने यह साबित किया कि जटिल वैश्विक विभाजनों के बीच भी सामूहिक समझ संभव है.
मजबूत होती भारत की नेतृत्व क्षमता
भारत ने अपने शिखर सम्मेलन में विकास, जलवायु वित्त, ऋण राहत और वैश्विक संस्थाओं में सुधार जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी. अफ्रीकी संघ को स्थायी सदस्यता दिलवाना भारत की एक प्रमुख सफलता रही. इसके साथ ही भारत ने इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर जैसी पहल और डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर वैश्विक साझेदारी की नींव रखी. इन पहलों से भारत ने यह सिद्ध किया कि वह केवल मध्यस्थ की भूमिका नहीं निभा रहा है, बल्कि भविष्य की विकास संरचना को आकार देने में सक्रिय भागीदार है. भारत की नेतृत्व क्षमता का यह प्रतीक था कि वह पश्चिम और वैश्विक दक्षिण के बीच सेतु बन सकता है.
जोहानिसबर्ग और नई दिल्ली में आयोजित शिखर सम्मेलनों ने यह दिखाया कि G20 में अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन निर्णायक नहीं.
G20 भारत के लिए केवल एक मंच नहीं, बल्कि एक रणनीतिक अवसर है. यह मंच भारत को वैश्विक शासन में प्रभावशाली भूमिका निभाने का अवसर देता है, खासकर ऐसे समय में जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाएं ठहराव में हैं. G20 की संरचना जिसमें विकसित और विकासशील दोनों देशों की भागीदारी है, यह भारत के लिए अपनी संतुलित विदेश नीति को अभिव्यक्त करने का अवसर है. भारत अमेरिका और यूरोप के साथ रणनीतिक साझेदारी बनाए रखते हुए रूस और चीन के साथ भी संवाद में रहता है. G20 की भूमिका भारत को उस 'ब्रिज' की भूमिका में लाती है जो दोनों पक्षों के बीच समन्वय बना सके. आर्थिक दृष्टि से भी G20 भारत के लिए निर्णायक है. इस मंच पर लिए गए निर्णय चाहे वे जलवायु वित्त हो, विकास बैंक सुधार या वैश्विक डिजिटल संरचना की साझेदारी, भारत की विकास गाथा से सीधा संबंध रखते हैं. यह मंच भारत को नीति निर्धारण में भागीदार बनाता है, न कि केवल नीति अनुयायी. भारत ने अपने G20 अध्यक्षीय वर्ष में 60 से अधिक शहरों में कार्यक्रम आयोजित कर यह संदेश दिया कि वैश्विक विमर्श केवल राजधानी तक सीमित नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र का हिस्सा हैं. इसने भारत के भीतर भी एक नई चेतना और जुड़ाव पैदा किया. इसमें आम नागरिक को यह अनुभव हुआ कि उनका देश अब केवल वैश्विक मंचों का हिस्सा नहीं, बल्कि उनमें नेतृत्व कर रहा है.
ग्लोबल साउथ की आवाज बना भारत
राजनीतिक दृष्टि से भी G20 की भूमिका भारत के लिए अत्यंत लाभकारी रही है. नई दिल्ली सम्मेलन की सफल मेजबानी ने प्रधानमंत्री मोदी को एक वैश्विक नेता के रूप में प्रस्तुत किया और भारत की उभरती शक्ति की छवि को मजबूत किया. भारत ने न केवल घोषणाएं कीं, बल्कि ठोस पहल कीं— चाहे वह अफ्रीकी संघ की सदस्यता हो या वैश्विक बुनियादी ढांचे की परिकल्पना. G20 की सफल अध्यक्षता ने भारत को उस मुकाम पर पहुंचाया, जहां वह वैश्विक दक्षिण (Global South) की आवाज बनने के साथ-साथ विकसित देशों के बीच एक सम्मानजनक भागीदार के रूप में स्थापित हुआ.
जी 20 शिखर सम्मेलन में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज और कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
जोहानिसबर्ग और नई दिल्ली, इन दोनों सम्मेलनों ने यह दिखा दिया कि G20 में अमेरिका की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन निर्णायक नहीं. दक्षिण अफ्रीका ने यह सिद्ध किया कि अमेरिका की अनुपस्थिति भी प्रक्रिया को नहीं रोक सकती, और भारत ने यह दर्शाया कि गहरे मतभेदों के बीच भी समझौता संभव है. इन दोनों अनुभवों से यह स्पष्ट होता है कि G20 आज भी वैश्विक समन्वय का एकमात्र प्रभावी मंच है. भारत जैसे देश, जो अपनी जनसांख्यिकी, अर्थव्यवस्था और कूटनीति में अद्वितीय हैं, इस मंच का प्रयोग न केवल अपनी हितों की पूर्ति के लिए कर रहे हैं, बल्कि एक अधिक समावेशी, न्यायपूर्ण और उत्तरदायी वैश्विक व्यवस्था के निर्माण हेतु भी कर रहे हैं. इसलिए G20 भारत के लिए केवल एक राजनयिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह उसकी विकासशील आकांक्षाओं, रणनीतिक उद्देश्य और वैश्विक नेतृत्व के भावी मार्ग का हिस्सा है. यह मंच भारत को वह अवसर देता है जहां वह न केवल अपनी बात रख सके, बल्कि दूसरों की भी सुन सके और उन्हें एक साझा समाधान की दिशा में प्रेरित कर सके. वैश्विक उत्तरदायित्व की इस भावना के साथ भारत जैसे देश G20 को और अधिक प्रभावी, समावेशी और सामूहिक निर्णयों वाला मंच बना सकते हैं. यही आने वाले समय की आवश्यकता भी है.
डिस्क्लेमर: लेखक द इंडियन फ्यूचर्स थिंक टैंक के संस्थापक और दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी हैं, उनसे एनडीटीवी का सहमत या असहमत होना जरूरी नहीं है.














