बिहार की राजनीति में भूमिहारों की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण क्यों?

मोकामा के खूनी खेल में 90 के दशक के रणवीर सेना की गूंज दिखी. यह भूमिहारों का हिंसक समूह था. आज भले ही भूमिहारों की आबादी राज्य में केवल 2.9% हैं, पर एनडीए ने उन्हें 32 तो महागठबंधन ने 15 सीटें दी हैं. वजह, राजनीति में भूमिहारों की अहम भूमिका है.

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  • बिहार में भूमिहारों की संख्या केवल 2.9% हैं, पर उन्हें NDA ने 32 तो महागठबंधन ने 15 सीटें दी हैं.
  • भले ही बिहार में भूमिहारों की संख्या जो भी हो पर राज्य के राजनीतिक अखाड़े में उनका एक-एक वोट बेहद अहम है.
  • यह प्रभावशाली समुदाय बिहार की राजनीति की धुरी पर मौजूद है और इनके फैसले की उनकी मौजूदगी से अधिक गूंज होती है.
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बिहार के बीचों बीच बहती पवित्र गंगा के किनारे पटना जिले में पड़ने वाला मोकामा कभी एक औद्योगिक इलाका और दाल उत्पादन का एक महत्वपूर्ण केंद्र हुआ करता था. आज दुखद कड़वा सच ये है कि वही मोकामा राजनीति और अपराध के बीच सांठगांठ का प्रतीक बन गया है. यहां अतीत और वर्तमान में हिंसा, ताकत और चुनावी महत्वकांक्षा के विभिन्न पहलुओं पर आपस में टकराव होते रहे हैं. 2025 के विधानसभा चुनावों के आते ही यह इलाका नए आरोपों के साथ-साथ पुराने जातीय और आपराधिक संघर्षों की छाया में आ गया है.

हाल ही में यहां एक पहले के माफिया डॉन 75 वर्षीय दुलारचंद यादव की हत्या के मामले में जेडीयू नेता और भूमिहार प्रत्याशी 64 साल के अनंत सिंह की गिरफ्तारी यह दिखाता है कि इस अशांत इलाके में बाहुबलियों का असर कितना गहरा है, साथ ही यह टकराव अनंत सिंह के पुराने दुश्मन और कुख्यात बाहुबली सूरजभान सिंह के साथ भयंकर लड़ाई को फिर से जगा देता है. 

हिंसा की विरासत

राजधानी पटना से करीब 70 किलोमीटर दूर पवित्र गंगा नदी के किनारे बसे मोकामा पर एक खूनी इतिहास का दाग है. ये भूमिहारों के दो कुख्यात नेताओं, अनंत सिंह और सूरजभान सिंह के बीच 80 के दशक से ही लगातार टकराव के बीच उलझा हुआ है. उनका इतिहास गोलीबारी और खूनखराबे से भरा पड़ा है, क्योंकि वो सत्ता तक अपने बाहुबल और खौफ के बल पर आए और उस राजनीतिक प्रदेश में आगे बढ़ते गए जहां बाहुबल किसी भी रणनीति पर भारी पड़ता था.

हाल ही राजनीतिक गुटों के बीच झड़प के दौरान जनसुराज समर्थक (लालू यादव के करीबी रह चुके) दुलारचंद की मौत ने मोकामा की समकालीन कहानी में एक और काला अध्याय जोड़ दिया है. अनंत सिंह के समर्थकों से जुड़ी यह घटना न केवल इस क्षेत्र के राजनीतिक जीवन के संकट को उजागर करती है बल्कि  इस क्षेत्र में निर्दयी चालों से भरी भयावहता की याद भी दिलाती हैं. पुलिस दुलारचंद की मौत से जुड़ी परिस्थितियों की जांच कर रही है और शहर अपनी सांसें थामे रखे है, जो अपने हिंसक अतीत के भूतों और चुनावी बदलाव के अनिश्चित वादों के बीच उलझा हुआ है.

वोट की लड़ाई

राज्य की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की वजह से ये पुराने दुश्मन आज चुनावी गठबंधनों और प्रतिद्वंद्विता के बीच फंसे हुए हैं. अनंत सिंह और सूरजभान सिंह को आमने सामने की लड़ाई किए करीब बीस साल हो गए हैं लेकिन आज भी उनके बीच दुश्मनी कम नहीं हुई है. अब की राजनीति में गोलियों की जगह मतपेटियों ने ले ली है.

यह मोकामा में सत्ता की जटिलता को भी दिखाती हैं. 1992 में एक हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा काटने के बाद सूरजभान सिंह अब अपनी पत्नी वीणा सिंह के जरिए राजनीति में वापसी की कोशिश कर रहे हैं. उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अब उनकी पत्नी वीणा देवी के कंधों पर टिकी हैं.वीणा सिंह की उम्मीदवारी न केवल राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का प्रयास है बल्कि यह इन दो बाहुबलियों के साझा इतिहास और मतदाताओं के बीच उनकी निष्ठा का फायदा उठाने के लिए सोच समझ कर उठाया गया कदम है. चूंकि यह प्रचार अनंत सिंह के खिलाफ है, लिहाजा ये दांव राजनीतिक के साथ-साथ उतना ही व्यक्तिगत भी है. 

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भूमिहारों की मुश्किल पहेली

बिहार की राजनीति के तेजी से बदलते स्वरूप में, जहां जाति और समुदाय अक्सर विचारधारा से अधिक निष्ठा को वरीयता देते हैं, भूमिहारों का समुदाय इसके विपरीत रहा है, जो ध्यान देने की चीज है. भूमिहारों की आबादी भले ही केवल 2.9%* है, पर 2025 के विधानसभा चुनावों की तारीखें नजदीक आने के साथ ही भूमिहार जोरदार राजनीतिक दांव-पेंच का केंद्र बन गए हैं. यहां होड़ केवल संख्याबल की वजह से नहीं बल्कि उनके प्रभाव, उनकी पारंपरिक पृष्ठभूमि और राजनीतिक सपनों के अस्तित्व की भी है.

छोटे लेकिन प्रभावशाली समुदाय को लुभाने में लगे सभी

आखिर क्या कारण है कि राज्य की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां, खासकर एनडीए और महागठबंधन, तीन फीसद से भी कम वोट वाले समुदाय को लुभाने में इतनी ताकत क्यों लगा रहे? इसका जवाब भूमिहारों के ऐतिहासिक और पारंपरिक महत्व में निहित है. पारंपरिक रूप से भूमिहारों की गिनती सवर्णों में (ब्राह्मणों के जैसे) होती है. बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में उनकी काफी ताकत रही है.

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भूमिहारों की उत्पत्ति के बारे में यह माना जाता है कि प्राचीन काल में वो ब्राह्मण थे जिन्हें महान बौद्ध शासक सम्राट अशोक से भूमि का अनुदान प्राप्त हुआ था. जब उन्होंने हिंदू धर्म में वापसी करने का फैसला किया तो हिंदू पुजारियों ने उन्हें हिंदू वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों के ठीक बाद स्थान दिया. कुछ उन्हें ब्राह्मण और राजपूतों का मिश्रण मानते हैं. पारंपरिक रूप से भूमिहार भू-स्वामी रहे हैं, और ये छोटी रियासतों और जमींदारियों, जैसे- बेतिया, टिकारी, हथुवा, तमकुही, शिवहर, पाकुड़, महिषादल, महेशपुर के अलावा उत्तर प्रदेश के वाराणसी पर अपना नियंत्रण रखते थे. ब्रिटिश शासन के दौरान भूमिहार बड़ी संख्या में  सेना में शामिल हुए और एक लड़ाके के रूप में उन्होंने अपनी छवि बनाई.

रामधारी सिंह दिनकर से रामवृक्ष बेनीपुरी तक...

भूमिहार समुदाय ने बड़ी संख्या में रचनात्मक बुद्धिजीवियों को दिया है, चाहे वो वीर रस परंपरा के आइकॉन राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर हों या राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी और अन्य कई लेखक. कविराज दिनकर के सम्मान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 नवंबर, 2025 को पटना के दिनकर चौक से अपने रोड शो की शुरुआत करते हुए इसी परंपरा को याद किया. बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह (1946 से 1961) भी भूमिहार थे. उनकी विरासत इतनी बड़ी थी कि वो आज भी इस समुदाय के चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता की याद दिलाता है. उनके लंबे दौर में कई प्रभावशाली भूमिहार नेता उभरे जिनमें महेश प्रसाद सिंह, एलपी शाही, कैलाशपति मिश्र, डॉ. सीपी ठाकुर आदि.

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कैलाशपति मिश्र (गुजरात के पूर्व राज्यपाल) बिहार से आने वाले बीजेपी के प्रभावशाली नेता थे. उसी तरह पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. सीपी ठाकुर थे जो कालाजार के स्पेशलिस्ट डॉक्टर थे. आज बीजेपी में गिरीराज सिंह, मनोज सिन्हा (जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल) और विजय सिन्हा (बिहार के उपमुख्यमंत्री) प्रमुख भूमिहार चेहरे हैं.

“ताज नीतीश को, राज भूमिहार को”

बिहार में जब लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे ओबीसी नेताओं के उभरने के दौर (1990 से 2025) में भी भूमिहारों ने नौकरशाही, शिक्षा, मीडिया और कानून और चिकित्सा जैसे अन्य पेशेवर क्षेत्रों में अपना दबदबा बनाए रखा है. बिहार में बड़े बड़े ठेकेदार भूमिहार समुदाय से आते हैं. 

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आक्रामकता में मामले में भूमिहारों को राजपूतों और यादवों के समान देखा जाता है. तो उद्यम करने के मामले वो बनिया समुदाय से प्रतिस्पर्धा करते दिखते हैं. यहां तक कि राजनीति में भी वो अपना प्रभुत्व रखते हैं- केंद्रीय मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी तथा पंचायती राज मंत्री श्री राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह 2 नवंबर को पटना के रोड शो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ थे, भूमिहारों के बड़े नेता हैं. इसी तरह कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह भी हैं. ललन सिंह दशकों से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी मित्र भी हैं. जब 2005 में नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने, तब पटना में "ताज नीतीश को, राज भूमिहार को" बहुत लोकप्रिय कहावत थी.

भूमिहारों की मौजूदगी पूरे बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में है लेकिन अरवल, जहानाबाद (ओल्ड गया और ओल्ड शाहबाद इलाका); मोकामा और मुंगेर का इलाका; बेगुसराय और लखीसराय और बरैया का इलाका और मिथलांचल क्षेत्र में समस्तीपुर में ये बहुसंख्यक हैं. अक्सर भूमिहारों की शादी ब्राह्मणों के साथ होती है  और इस तरह इन्हें दो-गमिया समुदाय कहा जाता है.

रणवीर सेना प्रमुख ब्रह्मेश्वर सिंह
Photo Credit: PTI

रणवीर सेना की गूंज

आज मोकामा की हिंसा रणवीर सेना के उस गूंज की याद दिलाता है जिसे यहां 'जंगलराज' के दौरे के रूप में जाना जाता है. जब 1990 के दशक में भूमिहारों का राजनीतिक प्रभाव घटा तब कुछ भूमिहार 1994 में गठित निजी सशस्त्र संगठन रणवीर सेना की ओर आकर्षित हुए. इसने 90 के दशक के अंत में नक्सली संगठन लाल सेना के खिलाफ जहानाबाद, मकदूमपुर और औरंगाबाद में कुछ हिंसक हमले किए. तब रणवीर सेना ने लक्ष्मणपुर बाथे और कई अन्य नरसंहारों को अंजाम दिया. बाद में लाल सेना ने सेनारी में दर्जनों भूमिहारों का नरसंहार किया. आज के मोकामा की हिंसा तब के जंगल राज दौर में रणवीर सेना की गूंज की प्रतिध्वनि दिखती है.

जातीय राजनीति की बिसात

बिहार की राजनीति का मुख्य आधार लंबे समय से यहां की जाति व्यवस्था रही है.  और भूमिहार समुदाय अहम चुनावी गठबंधनों के लिए एक जरूरत बन गए हैं. एनडीए ने भूमिहारों की लंबी चली आ रही निष्ठा पर भरोसा करते हुए 32 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं. वहीं, महागठबंधन ने भी 15 भूमिहार उम्मीदवार उतारे हैं (पारंपरिक रूप से एक ओबीसी पार्टी मानी जाने वाली आरजेडी के इनमें से छह उम्मीदवार हैं), जो ऐतिहासिक रूप उनसे दूर रहे सवर्ण वोटबैंक में सेंध लगाने की महागठबंधन की रणनीति मानी जा रही है. 

Photo Credit: PTI

भूमिहार vs भूमिहार

जहां हर दल भूमिहारों को अपनी ओर खींचना चाहता है वहीं यह मुकाबला केवल दलों के बीच तक सीमित नहीं रह गया है. खुद भूमिहार समुदाय के अंदर भी एक मुकाबला है. इससे भूमिहार के सामने भूमिहार की स्थिति भी उभरती है. मोकामा और बिक्रम जैसी जगहों पर एक भूमिहार कैंडिटेड के सामने दूसरा भूमिहार प्रत्याशी ही खड़ा है. इस अंदरुणी प्रतिस्पर्धा न केवल दांव को बढ़ाती है बल्कि वोटरों की निष्ठा को भी आकलन करने के लिए आमंत्रित करती हैं. मोकामा और बिक्रम के अलावा 2025 में कई सीटों पर भूमिहार प्रत्याशी ही आमने सामने हैं, इनमें केसुआ, बरबिघा, बेगुसराय, मतिहानी और लखीसराय शामिल हैं.

कांग्रेस ने बिहार के उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा के खिलाफ अपने भूमिहार प्रत्याशी अमरेश अनीश को उतारा है. इस चुनाव में जिन सीटों पर भूमिहार प्रत्याशी आमने-सामने हैं, वो चर्चा में हैं. इसी तरह पटना की बिक्रम सीट पर बीजेपी प्रत्याशी और वर्तमान विधायक सिद्धार्थ सौरव कांग्रेस के अनिल कुमार सामना कर रहे हैं, ये दोनों ही भूमिहार समुदाय से हैं. अब सवाल ये है कि क्या बीजेपी के प्रति अपनी निष्ठा जताने वाला भूमिहार समुदाय क्या बदलती सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों  में महागठबंधन की ओर रुख करेगा?

सीपी ठाकुर
Photo Credit: ANI

भूमिहार राजनीति के भविष्य की दिशा

जैसे जैसे चुनाव के दिन करीब आते जा रहे हैं भूमिहार समुदाय खुद को दोराहे पर पाता है. एक तरफ बीजेपी का इस समुदाय का लंबे समय से चला आ रहा संबंध उन्हें सुरक्षा का एहसास दिलाता है तो दूसरी तरफ महागठबंधन का आक्रामक प्रचार इस बात का संकेत है कि बदालव की हवा चल रही है. कई नेता जैसे अनिल कुमार और सिद्धार्थ सौरव ने अपनी पार्टी बदल ली हैं, यह दिखाता है कि भूमिहार राजनीति अब पहले जैसी स्थिर नहीं रहीं. 

और अंत में...

बिहार के इस चुनाव में केवल वोटों की नहीं बल्कि जातीय समीकरणों की परीक्षा है. आने वाला चुनाव न केवल निष्ठा की परीक्षा है बल्कि बिहार में जाति पर आधारित राजनीति के बदलते परिदृश्य के एक बैरोमीटर के रूप में भी काम कर रहा है. भूमिहार प्रत्याशियों के एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने से मतदाता अपनी उम्मीदों और शिकायतों के आलोक में मौजूदा विकल्पों पर विचार करेंगे.  
अंत में भूमिहार नामक पहेली खुद में बिहार के पूरे सार को ही समेटे हुए है- भले ही उनकी संख्या जो भी हो पर वो समृद्ध इतिहास की इस भूमि पर अपने विविध पहचान से बुने ताने-बाने के साथ वर्तमान राजनीतिक अखाड़े में अपने हर एक वोट के साथ बेहद अहम हैं. जैसे-जैसे राज्य 2025 के चुनाव के करीब पहुंच रहा है, सब की नजरें इस छोटे पर प्रभावशाली समुदाय पर टिकी हैं, जो बिहार की राजनीति की धुरी पर मौजूद है, और जिनके फैसले राज्य में उनकी मौजूदगी से अधिक गूंज सकते हैं.

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