Afghanistan crisis: अफगानिस्तान में तालिबान ने अपनी नई कैबिनेट का ऐलान कर दिया है. 33 सदस्यों की इस फेहरिस्त में प्रधानमंत्री, उप प्रधानमंत्री समेत 17 सदस्य आतंकी गतिविधि के कारण संयुक्त राष्ट्र (UN)की प्रतिबंधित सूची में हैं. 20 साल बाद जिस अमेरिका ने अफगानिस्तान छोड़ा, उसने कहा है कि उसे पता है इस सरकार के साथ कौन आएंगे.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि चीन को तालिबान से असल समस्या है, वे तालिबान के साथ कोई समझौता कर सकते हैं. पाकिस्तान, रूस और ईरान का भी वही हाल है. हम समझने की कोशिश कर रहे हैं कि वो अब क्या करते हैं...क्या होगा, यह देखना वास्तव में रोचक होगा. दरअसल, जिन देशों का नाम अमेरिका ने लिया है, उन सभी को तालिबान ने सरकार की शुरुआत के समारोह में न्यौता दिया है. चीन ने तो अफगानिस्तान के लिए 31 मिलियन डॉलर की आपात मदद का ऐलान भी कर दिया है. असल में जिन भी देशों को तालिबान की नई सरकार ने न्यौता दिया है, सबका कुछ न कुछ स्वार्थ है. तालिबान तो चाहता ही है कि ज्यादा से ज्यादा देश उसे मान्यता दें. आइए जानने की कोशिश करते हैं कि इन देशों की अफगानिस्तान में क्या रुचि है।
पाकिस्तान : भारत को पछाड़ने के लिए पाकिस्तान दरअसल अफगानिस्तान पर पूरी पकड़ चाहता है. वह चाहता है कि 2670 किलोमीटर लंबी डूरंड लाइन - पाकिस्तान अफगानिस्तान सीमा अफगानिस्तान स्वीकार कर ले. तालिबान के कई कमांडरों के पाक से करीबी रिश्ते हैं और हाल के दिनों में हथियार सहित और कई मदद मिली है.
चीन :भारत के साथ तल्ख रिश्ते रखने वाला चीन नहीं चाहता कि अफगानिस्तान से लगते उसके शिनजियांग प्रांत के उइगर मुस्लिम अतिवादियों को तालिबान से कोई मदद मिले. इसके अलावा
अफगानिस्तान की प्रचूर खनिज संपदा कॉपर, गोल्ड पर भी बीजिंग की नजर है. चीन-पाक इकोनॉमिक कॉरिडोर को वह अफगानिस्तान में बढ़ाना ताकि Belt and road project को मदद मिले.
ईरान : अफगानिस्तान के साथ सीमा साझा करने वाले ईरान ने पंजशीर हिंसा पर विरोध जताया, कहा कि चुनाव के ज़रिए सरकार बने. अफगानिस्तान के 10 फीसद शिया हज़ारा] तालिबान के निशाने पर रहे हैं. सीमावर्ती दक्षिण खुरासान और सिस्तान- बलोचिस्तान में शांति बनाए रखना चाहता है.
कतर : 2012 से तालिबान के राजनीतिक दफ्तर को जगह दी. भले ही शांति वार्ता से ज्यादा कुछ हाथ न आया हो लेकिन एक क्षेत्रीय ताकत के तौर पर उसने खुद को स्थापित किया. खासकर तब जब UAE और सउदी अरब से उसके रिश्ते तनावपूर्ण रहे हैं.
रूस :सबसे बड़ी वजह अमेरिका की हार है. इस्लामिक स्टेट खोरासान से निबटने में मदद और क्षेत्र में दबदबा चाहता है.
तुर्की : 10 फीसदी से ज्यादा तुर्क मूल के अफगान, इस्लामिक देशों के बीच दबदबा चाहता है. पाकिस्तान से करीबी रिश्ते हैं और हवाई अड्डे को शुरू करने में मदद कर रहा है
अफगानिस्तान के आम लोगों के सामने भूखमरी और आर्थिक संकट जैसी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं. अमेरिका ने कहा है कि सीझे तालिबान सरकार तो नहीं पर स्वतंत्र एजेंसियों के ज़रिए उनकी मदद कर सकते हैं पर ये कैसे होगा अभी साफ नहीं है तो क्या आम अफगान को कोई राहत मिलेगी? ये फिलहाल सबसे बड़ा सवाल है.
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