देस की बात, देश की नहीं. जब श का शिष्टाचार अत्याचार में बदल जाता है तो लोग देस की तरफ लौटने लग जाते हैं. जब स से सरकार अपना काम नहीं करती, मददगार नहीं बनती, तो लोग उस देस की ओर लौटने लगते हैं जहां से वो उस देश को बनाने आए थे, जो हमें दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, सूरत, बेंगलुरु, पुणे और न जाने कहां-कहां से दिखाई देता है. श के शिष्टाचार का इंतजार पूरी तरह से खत्म हो जाता है तो उनके पास एक ही रास्ता बचता है कि देस की तरफ चलो. इसलिए हम देस की बात करना चाहते हैं. उस देस की जहां देश को बनाने वाले लोग रहते हैं.