कई बार इंसान का मन करता है कि आज घर का टिफ़िन नहीं लाएं या खाने का मन नहीं कर रहा तो चलो स्विगी या जोमेटो पर कुछ अच्छा देखें. पिज़्ज़ा खाया जाए या कुछ जलेबी समोसे ही हो जाएं. उसके बाद ऑर्डर आता है, हम खा लेते हैं, मस्त रहते हैं. ये कभी नहीं सुना कि कोई सहयोगी उठ के बोले कि ध्यान रखना डिलिवरी बॉय सरजूपारी ब्राह्मण होना चाहिए.अच्छा वो नहीं तो कम से कम हिंदू तो हो ही. मुसलमान आएगा तो कैंसिल कर देंगे. ऐसा सुनकर ही इतना अटपटा लगता है. यकीन जानिए ऐसा असलियत में हो भी रहा है. सुन के दुख ज़रूर होता है लेकिन जब कुछ ऐसा ज़ोमैटो पर हुआ तो कंपनी ने ऐसा जवाब दिया कि फरमाइश करने वाला भी पचा नहीं पाएगा. जोमेटो ने कहा, ''खाने का कोई धर्म नहीं. खाना ख़ुद एक धर्म है'' आज खबरों की खबर में चर्चा इसी मसले पर और हमारे तीन सवाल हैं ये- 1. क्या धर्म के नाम पर पगलाए लोगों को है ये मुंहतोड़ जवाब? 2. बिज़नेस से ऊपर होती है इंसानियत. क्या हर कंपनी को करना चाहिए यही? 3. क्या इसको मानसिक लिंचिंग माना जाए? क्यों न हो ऐसे लोगों पर नफ़रत फ़ैलाने के नाम पर क़ानूनी कार्रवाई?