इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि परिसर में बनी दुकानों के कब्जे को लेकर चले 25 साल से अधिक पुराने मुकदमे का रास्ता साफ कर दिया है. कोर्ट ने परिसर में बनी दुकानों के कब्जे को लेकर दाखिल किराएदारों की याचिका खारिज कर दी है. यह आदेश जस्टिस रोहित रंजन अग्रवाल की सिंगल बेंच ने अशोक राघव, पदमा राघव समेत किराएदारों की तीनों याचिकाओं को खारिज करते हुए दिया है. कोर्ट ने तीनों याचिकाएं खारिज करते हुए कहा कि संस्था एक सार्वजनिक धार्मिक और चैरिटेबल ट्रस्ट है और उसकी संपत्तियां यूपी किराया कानून के दायरे से बाहर है. कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को दो मुकदमों को दो महीने में निपटाने का निर्देश भी दिया है.
मामले के अनुसार ये तीन रिट याचिकाएं भारत के संविधान के आर्टिकल 227 के तहत दायर की गई थी जिनमें वादी-प्रतिवादी द्वारा शुरू की गई बेदखली कार्यवाही में ट्रायल कोर्ट द्वारा पारित आदेश का विरोध किया गया था.गौरतलब है कि 1944 में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में श्रीकृष्ण जन्मस्थान के जीर्णोद्धार का काम शुरू हुआ था. सन 1951 में 'श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट' की स्थापना की और 1958 में इसके प्रबंधन के लिए 'श्री कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान' नामक सोसाइटी बनाई गई थी. संस्थान ने परिसर के अंदर कुछ दुकानें बनवाकर उन्हें लाइसेंस के आधार पर किराए पर उठाया. इनमें से दुकान नंबर 8-ए अशोक राघव, दुकान नंबर 8 पद्मा राघव और दुकान नंबर 16-17 स्वर्गीय हरिश राघव (अब उनके वारिस) को दी गई थी.
11 महीने के लाइसेंस की अवधि खत्म होने के बाद भी किराएदारों ने दुकानें खाली नहीं की जिसके बाद संस्थान ने सन 2000-2002 के दौरान इनके खिलाफ बेदखली के मुकदमे दायर किए. किरायेदारों ने कोर्ट में दावा किया कि संस्थान एक सार्वजनिक धार्मिक या चैरिटेबल ट्रस्ट नहीं है इसलिए उत्तर प्रदेश अर्बन बिल्डिंग एक्ट, 1972 लागू होना चाहिए जो किरायेदारों को ज्यादा सुरक्षा देता है. उन्होंने यह भी कहा कि संस्थान के सचिव कपिल शर्मा के पास उनके खिलाफ मुकदमा दायर करने का अधिकार नहीं था. हाईकोर्ट में किराएदारों ने तीन याचिकाएं दायर करते हुए मथुरा
कोर्ट के 2015 और 2025 में दिए गए फैसले को चुनौती दी. याचिकाओं में श्री कृष्ण जन्म सेवा संस्थान को प्रतिवादी बनाया गया.कोर्ट ने याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए ट्रस्ट डीड और सोसाइटी के मेमोरेंडम का अध्ययन करने के बाद कहा कि इसका उद्देश्य पूरे विश्व के हिंदुओं के लिए धार्मिक और कल्याणकारी कार्य करना है. इसलिए यह स्पष्ट रूप से एक 'सार्वजनिक धार्मिक और चैरिटेबल संस्थान'है.ऐसी संस्थाओं की संपत्तियां किराया कानून के दायरे से छूट है.कोर्ट ने कहा कि सोसाइटी के बाय-लॉज के मुताबिक सचिव और जॉइंट सेक्रेटरी को संस्थान की तरफ से मुकदमे चलाने का पूरा अधिकार है.कपिल शर्मा के अधिकार पर संस्थान के किसी भी ट्रस्टी या मेंबर ने आपत्ति नहीं की इसलिए किरायेदार इस आधार पर मुकदमे को चुनौती नहीं दे सकते. कोर्ट ने कहा कि यह एक निर्विवाद तथ्य है कि सोसाइटी ने तीनों रिट याचिकाओं में याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध बेदखली का मुकदमा दायर किया था और तकनीकी आपत्ति उठाई गई थी कि कपिल शर्मा को सोसाइटी की ओर से इस मामले में मुकदमा लड़ने का कोई अधिकार नहीं था.
सोसाइटी के उपनियमों के खंड 26 और 33 से यह स्पष्ट है कि सचिव और संयुक्त सचिव, सोसाइटी की ओर से न्यायालय के समक्ष सभी मुकदमों में मुकदमा लड़ने के लिए अधिकृत है. इसके अलावा सोसाइटी के सचिव के रूप में कार्य करने वाले कपिल शर्मा के अधिकार के संबंध में ट्रस्ट या सोसाइटी के किसी भी ट्रस्टी या सदस्य के बीच कोई विवाद नहीं है. क्योंकि स्थिति यह है कि सोसाइटी के सचिव के रूप में कार्य करने वाले कपिल शर्मा के अधिकार को किसी भी ट्रस्टी या सोसाइटी के सदस्यों द्वारा कभी चुनौती नहीं दी गई है इसलिए किरायेदार-याचिकाकर्ता द्वारा उठाया गया प्रश्न महत्वहीन है.
कोर्ट ने माना कि बेदखली की कार्यवाही पिछले 25 वर्षों से चल रही है और केवल तकनीकी आधार पर ही संबंधित दुकान का कब्ज़ा मकान मालिक-सोसायटी को नहीं सौंपा जा सका. बहस के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता एचएन सिंह ने दलील दी कि मंदिर में प्रतिदिन श्रद्धालुओं की भारी भीड़ के कारण भीड़ को नियंत्रित करना मुश्किल हो गया है और श्रद्धालुओं के लिए मंदिर परिसर में अपने धार्मिक कार्य करने के लिए आसान पहुंच के लिए परिसर के अंदर की दुकानों को हटाना जरूरी है.
कोर्ट ने कहा कि शुरुआत में याचिकाकर्ताओं को केवल 11 महीने की अवधि के लिए लाइसेंस दिया गया था. लाइसेंस का नवीनीकरण न होने के बावजूद वो लंबे समय से इस प्रक्रिया को जारी रखे हुए है. याचिकाकर्ताओं की ओर से एकमात्र प्रयास तकनीकी आधार पर मुकदमे को लंबा खींचना है. कोर्ट ने तीनों याचिकाओं को खारिज करते हुए ट्रायल कोर्ट को आदेश दिया कि वह पद्मा राघव और हरिश राघव के वारिसों के खिलाफ लंबित बेदखली के मुकदमों की प्रक्रिया को दो महीने के अंदर पूरी करे.














