Blogs | Ravish Kumar |गुरुवार मार्च 3, 2016 10:28 AM IST क्या मख़्दूम मोइनुद्दीन की इस रचना से हमारी समझ कुछ बेहतर होती है या फिर हम अभिशप्त हैं 'मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती...' टाइप ही सुनते रहने के लिए। उगलते रहिए, निगलते रहिए। राष्ट्रवाद के बर्गर को भकोसते रहिए, जो फास्ट फूड हो गया है राष्ट्रभक्त होने का।