रहमत ख़ान के रूप में डैनी डेंग्जोंग्पा की खूब तारीफ हो रही है
नई दिल्ली:
रवींद्रनाथ टैगोर ने सवा सौ साल पहले 'काबुलीवाला' लिखी थी- 1892 में. उसके कुछ पहले- संभवतः 1887 के आसपास- उन्होंने एक पत्रिका के लिए किस्तों में एक उपन्यास 'राजर्षि' लिखा. यह वह दौर है जब टैगोर के भीतर राष्ट्रवादी अवधारणाओं को लेकर संशय के पहले बीज पड़ते दिखते हैं. 'राजर्षि' दो बच्चों की कहानी से शुरू होती है. एक मंदिर के पास रोज़ नदी के किनारे खेलने वाले इन दो बच्चों के साथ वहां का राजा भी खेलता है. मंदिर में किसी पूजा के अवसर पर बलि पड़ती है और इससे बच्ची इतने सदमे में चली जाती है कि वह बीमार पड़ जाती है और एक दिन गुज़र जाती है. राजा इसके बाद राज्य में बलि पर रोक लगाता है, धर्मसत्ता उसके ख़िलाफ़ ख़ड़ी हो जाती है, राजा के अपने लोग उसके ख़िलाफ़ साज़िश में लग जाते हैं और अंततः राजा को एक लंबी और अहिंसक लड़ाई लड़नी पड़ती है. यह का़यदे से गांधी से पहले गांधी का प्रयोग था जो गुरुदेव अपने उपन्यास में कर रहे थे. इसी तरह 'काबुलीवाला' में वे देशों की सरहद के आरपार आती-जाती, विस्थापित उस मनुष्यता की खोज करते हैं जो किसी रहमत ख़ान और किसी मिनी के बीच एक अदृश्य धागा बांध देती है.
शायद यह टैगोर की करुणा, और मनुष्यता के प्रति उनका आग्रह है जो उन्होंने एक बड़ा लेखक बनाता है. 'काबुलीवाला' पर 50 बरस बाद हिंदी में बिमल राय इसी नाम से एक फिल्म बनाते हैं. बलराज साहनी ने इस फिल्म में रहमत ख़ान की भूमिका अदा की है. इसके भी क़रीब 60 साल बाद एक युवा निर्देशक देब मेधेकर को यह कहानी छूती है. लेकिन यह इक्कीसवीं सदी है- राष्ट्रवाद यूरोप में बिखर रहा है तो दक्षिण एशिया में कुरूप शक्लें ले रहा है. परिवार टूट रहे हैं- स्त्री-पुरुष संबंध नई परिभाषाएं मांग रहे हैं.
इन सबके बीच देब मेधेकर काबुलीवाले को ला खड़ा करते हैं- लेकिन अब उसके हाथों में बादाम-किशमिश की जगह बाइस्कोप है. अब वह काबुल से आया बाइस्कोप वाला है. मिनी भी अब बड़ी हो गई है- जिस बाइस्कोप वाले ने उसे बचपन में छलकती ख़ुशियां दीं, उसे वह भूल चुकी है. बाइस्कोप वाला भी अल्ज़ाइमर का शिकार है. मिनी के पिता लेखक नहीं, फोटोग्राफ़र हैं- एक विमान हादसे में उनकी मौत हो चुकी है.
इस बेहद मुश्किल मोड़ पर फिल्म शुरू होती है. फिल्म में निहित नाटकीयता की बहुत सारी गुंजाइशों को सावधानी से हटाते हुए फिल्म चुपचाप उन परतों को खोलती चलती है जिनमें कुछ निजी संबंधों की दुविधाएं हैं और कुछ सार्वजनिक सवाल. पिता की मौत के बाद उनके अवशेष समेट कर लौटी मिनी उनके अंतिम संस्कार के दौरान घर आए लोगों को विदा करते हुए कहती है- पिता का सिर्फ आधा चेहरा देखा था- आधा चेहरा कैमरे से ढंका रहता था, सोचा ही नहीं था कि उनकी मौत के बाद क्या बोलूंगी? पिता और बेटी के संकटग्रस्त रिश्तों का हालांकि कुछ सुराग दर्शकों को पहले ही मिलने लगता है. फिल्म की मूल कथा मिनी और रहमत ख़ान की ही है- जो टैगोर की कहानी की भी है. लेकिन फिल्म में कई उपकथाएं पिरोई हुई हैं- बेटी और मित्र के बीच फंसे पिता की जो अपनी बेटी के साथ सबकुछ नए सिरे से शुरू करना चाहता है मगर कर नहीं पाता; बेटी और पिता के बीच पिसी एक स्त्री की जो कहती है कि जीवन ने इतना कुछ दिया नहीं है जिसे मौत छीन ले; एक जेल काट रहे शख़्स के भीतर ठहरे हुए समय की जिसमें अपनी बेटी के हाथ की छाप लिए पराये मुल्क लौटा एक पिता कभी लौटकर उसे देखने की उम्मीद करता है; और उस मुल्क की, जिसे धर्म के कठमुल्लेपन ने मलबे में बदल डाला है.
कई तहों में बंटी, कई रूपों में बदली, मगर फिर भी मूलतः गुरुदेव की करुणा में पगी यह फिल्म बनाना आसान नहीं था. निर्देशक की सूक्ष्म दृष्टि कई जगह दिखाई पड़ती है. रहमत ख़ान के रूप में डैनी डेंग्जोंग्पा, मिनी के तौर पर गीतांजलि थापा और मिनी के पिता के तौर पर आदिल हुसैन का काम फिल्म को अलग गहराई और तीव्रता देता है. विस्मृति और स्मृति के मानवीय तनाव के बीच अफगानिस्तान का वेधक विध्वंस इस विडंबना की ओर ध्यान खींचता है कि किस तरह विराट राष्ट्रीय परियोजनाओं के टैंकों, बंदूकों और बुलडोजरों तले मानवीय धुकधुकी कुचली चली जाती है.
बस, एक खयाल यह आता है कि 90 के दशक में- जब मिनी पांच साल की रही होगी- क्या कोलकाता में बाइस्कोप का वह आकर्षण बचा होगा जो टीवी के आगमन के पहले वाले दिनों में होता था? बाइस्कोप सत्तर और अधिकतम अस्सी तक के दशकों के मनबहलाव की तरह याद आता है, 90 के बाद की मिनी के खिलौने की तरह नहीं.
फिर भी हिंदी फिल्मोद्योग की शोर-शराबे से भरी सतही दुनिया में यह बाइस्कोप एक ताज़ा हवा के झोंके जैसा है. बेशक, ऐसे झोंके हाल के वर्षों में कुछ बढ़े हैं और यह बात प्रीतिकर है. टैगोर की छोटे कलेवर की एक बड़ी कहानी पर देब मेधेकर ने छोटे कलेवर की एक बड़ी फिल्म बना डाली है.
शायद यह टैगोर की करुणा, और मनुष्यता के प्रति उनका आग्रह है जो उन्होंने एक बड़ा लेखक बनाता है. 'काबुलीवाला' पर 50 बरस बाद हिंदी में बिमल राय इसी नाम से एक फिल्म बनाते हैं. बलराज साहनी ने इस फिल्म में रहमत ख़ान की भूमिका अदा की है. इसके भी क़रीब 60 साल बाद एक युवा निर्देशक देब मेधेकर को यह कहानी छूती है. लेकिन यह इक्कीसवीं सदी है- राष्ट्रवाद यूरोप में बिखर रहा है तो दक्षिण एशिया में कुरूप शक्लें ले रहा है. परिवार टूट रहे हैं- स्त्री-पुरुष संबंध नई परिभाषाएं मांग रहे हैं.
इन सबके बीच देब मेधेकर काबुलीवाले को ला खड़ा करते हैं- लेकिन अब उसके हाथों में बादाम-किशमिश की जगह बाइस्कोप है. अब वह काबुल से आया बाइस्कोप वाला है. मिनी भी अब बड़ी हो गई है- जिस बाइस्कोप वाले ने उसे बचपन में छलकती ख़ुशियां दीं, उसे वह भूल चुकी है. बाइस्कोप वाला भी अल्ज़ाइमर का शिकार है. मिनी के पिता लेखक नहीं, फोटोग्राफ़र हैं- एक विमान हादसे में उनकी मौत हो चुकी है.
इस बेहद मुश्किल मोड़ पर फिल्म शुरू होती है. फिल्म में निहित नाटकीयता की बहुत सारी गुंजाइशों को सावधानी से हटाते हुए फिल्म चुपचाप उन परतों को खोलती चलती है जिनमें कुछ निजी संबंधों की दुविधाएं हैं और कुछ सार्वजनिक सवाल. पिता की मौत के बाद उनके अवशेष समेट कर लौटी मिनी उनके अंतिम संस्कार के दौरान घर आए लोगों को विदा करते हुए कहती है- पिता का सिर्फ आधा चेहरा देखा था- आधा चेहरा कैमरे से ढंका रहता था, सोचा ही नहीं था कि उनकी मौत के बाद क्या बोलूंगी? पिता और बेटी के संकटग्रस्त रिश्तों का हालांकि कुछ सुराग दर्शकों को पहले ही मिलने लगता है. फिल्म की मूल कथा मिनी और रहमत ख़ान की ही है- जो टैगोर की कहानी की भी है. लेकिन फिल्म में कई उपकथाएं पिरोई हुई हैं- बेटी और मित्र के बीच फंसे पिता की जो अपनी बेटी के साथ सबकुछ नए सिरे से शुरू करना चाहता है मगर कर नहीं पाता; बेटी और पिता के बीच पिसी एक स्त्री की जो कहती है कि जीवन ने इतना कुछ दिया नहीं है जिसे मौत छीन ले; एक जेल काट रहे शख़्स के भीतर ठहरे हुए समय की जिसमें अपनी बेटी के हाथ की छाप लिए पराये मुल्क लौटा एक पिता कभी लौटकर उसे देखने की उम्मीद करता है; और उस मुल्क की, जिसे धर्म के कठमुल्लेपन ने मलबे में बदल डाला है.
कई तहों में बंटी, कई रूपों में बदली, मगर फिर भी मूलतः गुरुदेव की करुणा में पगी यह फिल्म बनाना आसान नहीं था. निर्देशक की सूक्ष्म दृष्टि कई जगह दिखाई पड़ती है. रहमत ख़ान के रूप में डैनी डेंग्जोंग्पा, मिनी के तौर पर गीतांजलि थापा और मिनी के पिता के तौर पर आदिल हुसैन का काम फिल्म को अलग गहराई और तीव्रता देता है. विस्मृति और स्मृति के मानवीय तनाव के बीच अफगानिस्तान का वेधक विध्वंस इस विडंबना की ओर ध्यान खींचता है कि किस तरह विराट राष्ट्रीय परियोजनाओं के टैंकों, बंदूकों और बुलडोजरों तले मानवीय धुकधुकी कुचली चली जाती है.
बस, एक खयाल यह आता है कि 90 के दशक में- जब मिनी पांच साल की रही होगी- क्या कोलकाता में बाइस्कोप का वह आकर्षण बचा होगा जो टीवी के आगमन के पहले वाले दिनों में होता था? बाइस्कोप सत्तर और अधिकतम अस्सी तक के दशकों के मनबहलाव की तरह याद आता है, 90 के बाद की मिनी के खिलौने की तरह नहीं.
फिर भी हिंदी फिल्मोद्योग की शोर-शराबे से भरी सतही दुनिया में यह बाइस्कोप एक ताज़ा हवा के झोंके जैसा है. बेशक, ऐसे झोंके हाल के वर्षों में कुछ बढ़े हैं और यह बात प्रीतिकर है. टैगोर की छोटे कलेवर की एक बड़ी कहानी पर देब मेधेकर ने छोटे कलेवर की एक बड़ी फिल्म बना डाली है.
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