साइबर क्राइम की खौफनाक दुनिया, एक उपन्यास, जो सच लगता है

भौतिकतावादी दौर में जब परिवार बिखर रहे हैं, उस वक्त लेखक ने ये बताने की कोशिश की है कि अपने भाई को बचाने के लिए एक लापरवाह सा दिखने वाला भाई कैसे अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है. 

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Book Review: क्‍यों खास है ये उपन्‍यास?

डिजिटल अरेस्ट. आजकल धोखाधड़ी के लिए इस्तेमाल होने वाला सबसे चर्चित तरीका है. ये जानते हुए कि डिजिटल अरेस्ट नाम की कोई चीज नहीं होती, लोग धोखेबाजी का शिकार अनायास हो जाते हैं. ये डिजिटल अरेस्ट हमारे सिस्टम पर, डिजिटल व्यवस्था पर, साइबर क्राइम से निपटने वाले तंत्र पर सबसे बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न बनकर खड़ा है. आप रोज अखबारों में इसके बारे में पढ़ते हैं. आप तमाम केस स्टडी से रूबरू होते हैं. पीड़ितों की व्यथा कथा जानते हैं. फिर भी आप डिजिटल अरेस्ट हो जाते हैं. और आपकी गाढ़ी कमाई कोई लूटकर चला जाता है. लेकिन इस धोखाधड़ी का पूरा सिस्टम कैसे काम करता है, इसका मोडस ऑपरेंडी क्या है, इसमें कैसे आदमी बहुत समझदार होकर भी उलझता और फंसता जाता है और कैसे अंतर्राष्ट्रीय रैकेट इसके पीछे काम करता है, इन सवालों का जवाब अक्सर आपको नहीं मिलता. लेकिन ये जवाब आपको एक उपन्यास के जरिए मिल सकता है, जिसका नाम है Press 9 for a Crime.

उपन्यास अंग्रेजी में है और इसके लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार और फिल्मकार शैलेंद्र झा. शैलेंद्र जी की बात आगे होगी, अभी बात उनके उपन्यास की. उपन्यास भले अंग्रेजी में है, लेकिन उसकी विषय वस्तु, उसके पात्र, उसका समाज, उस समाज में फैली गंदगी, उससे लड़ने का लोगों का दमखम और माद्दा, सब ठेठ हिंदी का मसला है. 

एक प्रवासी पुरबिया किन परिस्थितियों में दिल्ली आता है, कैसे ऑटो रिक्शा चलाकर एक आदमी अपनी पत्नी और चार बच्चों का पेट पालता है, वैसे मामूली आय वाले परिवारों में जिंदगी कैसी होती है, किन संघर्षों और मुश्किलों से गुजरना होता है, उसको बड़ी सहजता और बारीकी से उपन्यास में उकेरा गया है. बड़े होते बच्चों के अपने संबंध और हित कैसे अंतरद्वंद्व का शिकार होते हैं, उनके बारे में उपन्यास में जिस तरह बताया गया है, उसको देखकर लगता है कि निम्नवर्गीय परिवार की जिंदगी बिल्कुल वैसी ही होती है. कैसे बड़े बेटे की नौकरी विदेश में लगने भर से पूरे परिवार को लगता है कि जिंदगी सुधर जाएगी लेकिन उन्हें क्या पता है कि भविष्य किस खतरनाक और अंधेरे मोड़ पर खड़ा होने जा रहा है, इसको लेकर उपन्यास में सस्पेंस भी होता है और खौफनाक मंजर की विवेचना भी. शैलेंद्र जी ने इन सारे सवालों के बीच डिजिटल अरेस्ट के फ्रॉड को बखूबी दिखाया है. अपनी कल्पनाशीलता को कभी भी वास्तविकता की लक्ष्मणरेखा का उल्लंघन नहीं करने दिया है, इसीलिए पूरी कहानी बेहद जीवंत लगती है. 

जब आप Press 9 for a Crime पढ़ेंगे तो लगेगा कि आप कोई कहानी नहीं पढ़ रहे हैं, बल्कि एक कड़वा सच अपनी संपूर्ण वास्तविकता में आपके आगे आगे दौड़ रहा है. हम सब यही सोचते हैं कि कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति कैसे डिजिटल अरेस्ट का शिकार हो जाता है. 

शैलेंद्र जी ने अपने उपन्यास में बताया है कि कुछ इंसान के हालात, कुछ टूटे हुए जजबात और कुछ मनोवैज्ञानिक दबाव पढ़े लिखे लोगों को भी टूटन का शिकार बना देते हैं. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उपन्यास में डिजिटल अरेस्ट का शिकार व्यक्ति एक पत्रकार है. जिस पत्रकार के लिए डिजिटल अरेस्ट रोजमर्रे की खबर है, वो भी इसका शिकार हो सकता है तो उसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं, इसको आप उपन्यास Press 9 for a Crime में उसी तरह समझ सकते हैं, जैसे बत्ती जलाते ही आप रोशनी को समझ जाते हैं. 

जिस डिजिटल अरेस्ट में हम सबको लगता है कि ये सब भारत के ही किसी कोने से संचालित होता है, उसके तार विदेशों से जुड़े होते हैं. और वहां धोखाधड़ी और साइबर क्राइम के कई अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बेहद क्रूरता के साथ इस काम को कैसे अंजाम देते हैं, उसको समझने के लिए ये उपन्यास एक मार्मिक मंच है. साथ ही जिन पारिवारिक मूल्यों को हम सब सोचते हैं कि दिन प्रतिदिन कमजोर होते जा रहे हैं, उनकी मजबूती क्यों जरूरी है, इसको भी दुख, शक और स्वार्थ के बीच सहयोग और बलिदान की कहानी से लेखक ने बहुत खूबसूरती से जोड़ा है. 
हर युवा के अपने सपने होते हैं. लेकिन वो सपने कभी पूरे होते हैं, कभी नहीं होते हैं. उस सपनों के चक्कर में कई बार युवा अपने ही परिजनों से कटने लगता है और स्वार्थी दिखने लगता है. लेकिन कोई स्वार्थी है या नहीं, ये संकट के समय पता चलता है. 

दिल्ली के एक कम आय वाले इलाके में, आनंद परिवार की उम्मीदें बड़े बेटे अतुल पर टिकी हैं, जिसको बैंकॉक में एक अच्छी-खासी नौकरी मिल गई थी. अतुल के बैंकॉक जाने तक तो चारों तरफ खुशियां ही खुशियां दिख रही थीं लेकिन उसके बाद अचानक अतुल गायब हो गया. वो कहां गया, उसका पता कैसे नहीं लग रहा है और उसके साथ हुआ क्या, इस गहराते सस्पेंस में आपकी दिल की धड़कनें भी ब़ढ़ सकती हैं. विदेश में कहीं दूर देश से संचालित एक क्रूर साइबर घोटाले के केंद्र में कैसे भारतीय फंस जाते हैं, कैसे उनके सपने ही नहीं टूटते, उनके विश्वास भी टूटते हैं, इसको संपूर्णता में इस उपन्यास में बताया गया है. 

उपन्यास का मतलब ही है कि उसका थीम बहुआयामी हो. एक मूल मुद्दा जरूर होता है लेकिन कई पहलुओं को उसमें उपन्यासकार समेट कर चलता है. Press 9 for a Crime सिर्फ साइबर क्राइम की ही कहानी नहीं है, उसमें आने वाली लापरवाही, इसकी साजिशों के लंबे गहरे खेल और उससे लड़ने वाले लोगों के परिवारों के संत्रास की कहानियां कभी साथ साथ तो कभी समांतर चलती हैं.

भौतिकतावादी दौर में जब परिवार बिखर रहे हैं, उस वक्त लेखक ने ये बताने की कोशिश की है कि अपने भाई को बचाने के लिए एक लापरवाह सा दिखने वाला भाई कैसे अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है. 

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लेखक का संभवत: ये पहला उपन्यास है. लेकिन वो प्रोग्रामिंग के धुरंधर रहे हैं. साथ ही लंबे समय से फिल्मी दुनिया में उन्होंने अपना प्रभाव जमा रखा है. कुछ साल पहले ही वेब सीरीज ग्रहण आई थी, जिसके निर्माता शैलैंद्र झा ही हैं. उस वेब सीरीज में 1984 के सिख दंगों के साए में पलती एक प्रेम कहानी को जितनी संजीगदी से दिखाया गया है, उतनी ही संजीदगी इस उपन्यास में आपको देखने को मिलेगी, जिसमें सस्पेंस है, सहयोग है, विश्वास है, बलिदान है, धोखा है, झांसा है लेकिन इन सबको जोड़कर एक मनोरंजक और आंखें खोल देने वाली लंबी कहानी है.

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