पिछले काफी सालों में हीमोफीलिया (Hemophilia) के इलाज के लिए चिकित्सीय प्रौद्योगिकी में सुधार हुआ है. लेकिन बावजूद इसके हेल्थ एक्सपर्ट का मानना है कि खून की इस गंभीर बीमारी से पीड़ित करीब 80 प्रतिशत भारतीयों में इसका पता नहीं चलता क्योंकि दूर-दराज के इलाकों में सही निदान की सुविधाओं का अभाव है.
चिकित्सकों ने 17 अप्रैल को विश्व हीमोफीलिया दिवस (World Hemophilia Day) पर कहा कि हीमोफीलिया के मरीजों के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है जहां ऐसे दो लाख मामले हैं. हीमोफीलिया रक्तस्राव की आजीवन चलने वाली बीमारी है, जो खून को जमने (क्लॉटिंग) से रोकती है.
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हीमोफीलिया फाउंडेशन ऑफ इंडिया के मुताबिक हीमोफीलिया के पीछे शरीर की एंटी हीमोफीलिक फैक्टर (एएचएफ) को पर्याप्त मात्रा में नहीं बना पाने की अक्षमता जिम्मेदार है. इस बीमारी का कोई ज्ञात इलाज नहीं है. अगर इसका जल्द पता नहीं चलता है तो जोड़ों, हड्डियों, मांसपेशियों में बार-बार खून बहने से सिनोविटिस, अर्थराइटिस और जोड़ों में स्थायी विकृति हो सकती है.
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जम्मू कश्मीर के गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज श्रीनगर में पैथोलॉजी विभाग की प्रमुख डॉ रूबी रेशी ने कहा कि भारत हीमोफीलिया के इलाज की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है लेकिन असल समस्या रोग का पता चलने की है. रेशी ने को बताया, “देश में हीमोफीलिया से ग्रस्त केवल 20,000 मरीज पंजीकृत हैं जबकि इस आनुवंशिक बीमारी से कम से कम 2,00,000 लोग पीड़ित हैं.”
चिकित्सकों का कहना है कि भले ही सरकार ने हीमोफीलिया के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत पर्याप्त प्रयास किए हैं लेकिन देश के दूर-दराज इलाकों में निदान केंद्र अब भी नहीं बन पाए हैं. हीमोफीलिया आमतौर पर वंशानुगत होता है और प्रत्येक 5,000 पुरुषों में से एक इस बीमारी के साथ पैदा होता है.
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लखनऊ के संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में हीमेटोलॉजी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ राजेश कश्यप ने कहा कि देश के प्रत्येक जिले में डायगनोस्टिक लैब के जाल को बढ़ा देने मात्र से हीमोफीलिया की समस्या का समाधान किया जा सकता है.
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