Exclusive: तालिबान बढ़ा रहा भारत से दोस्ती का हाथ, हक्कानी गुट के भी हैं अपने मंसूबे

जाहिर है तालिबान भारत के साथ संबंध बनाने की पुरजोर कोशिश में है, लेकिन सवाल है कि क्या भारत के साथ संबंधों को लेकर तालिबान एकमत होकर सोच रहा है या इसके अंदर विरोधाभास या मतभिन्नता है?

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तालिबान भारत के साथ संबंध बनाने की पुरजोर कोशिश में है...
नई दिल्ली:

अफगानिस्तान में तालिबान की नई सरकार का गठन की तैयारी तेज़ हो गई है. पूरी संभावना है कि इस्लाम के लिहाज़ से पवित्र शुक्रवार औपचारिक तौर इसका ऐलान हो जाए. इसके साथ भी भारत और तालिबान के बीच की बातचीत और आगे रिश्ते कैसे होंगे इसे लेकर मंथन भी तेज़ हो गया है. मंगलवार को दोहा में तालिबान बातचीत के लिए भारतीय दूतावास के दरवाज़े पर पहुंच गया. तालिबानी नेता शेर बहादुर अब्बास स्टैनिकज़ई भारत के राजदूत दीपक मित्तल से मिले. विदेश मंत्रालय की तरफ से जारी बयान में कहा गया कि मुलाकात का अनुरोध तालिबान की तरफ से आया था. स्टैनिकज़ई ने अपने काबुल और दिल्ली के संपर्क सूत्र के जरिए भारत को इस बात के लिए मनाने की कोशिश की थी कि भारत काबुल से अपने राजनयिकों को न निकाले. काबुल में भारत के दूतावास और राजनयिकों की सुरक्षा का भरोसा देने की भी कोशिश की थी. 

इसके अलावा स्टैनिकज़ई ने 45 मिनट के अपने एक वीडियो बयान में भारत के साथ राजनीतिक, आर्थिक व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों की भी बात की थी. जाहिर है तालिबान भारत के साथ संबंध बनाने की पुरज़ोर कोशिश में है और ज़िम्मा स्टैनिकज़ई के साथ साथ अनस हक्कानी ने भी संभाला हुआ है, लेकिन सवाल है कि क्या भारत के साथ संबंधों को लेकर तालिबान एकमत होकर सोच रहा है या इसके अंदर विरोधाभास या मतभिन्नता है?

सूत्रों से मिल रहे संकेतों के मुताबिक- भारत से संबंधों को लेकर तालिबान के भीतर सोच में कुछ अंतर है. खासतौर पर हक्कानी गुट अलग तरह से सोच रहा है. हालांकि स्टैनिकज़ई के साथ साथ अनस हक्कानी ने भी कहा है कि तालिबान भारत से अच्छे संबंध चाहता है. सूत्रों के मुताबिक- अनस हक्कानी ने काबुल और दिल्ली के अपने संपर्क सूत्रों से कहा है कि भारत के साथ संबंधों को लेकर तालिबान सरकार के गठन के कुछ हफ़्तों बाद ही बात आगे बढ़ाई जाएगी. 

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अनस हक्कानी ने अपने संपर्क सूत्रों से ये भी कहा कि जब बातचीत के लिए बैठेंगे तो देखेंगे कि भारत की क्या शर्त होती है. और शर्त सिर्फ़ भारत की ही नहीं होगी शर्त हमारी भी होगी. अनस हक्कानी अपने संपर्क सूत्र से शर्तों का ख़ुलासा नहीं किया. वैसे अपने इंटरव्यूज़ में घोषित तौर पर अनस हक्कानी ने कहा है कि कश्मीर का मुद्दा तालिबान के एजेंडे में नहीं है.

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गौरतलब है कि तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में उसकी जीत पर बधाई देते हुए अलक़ायदा ने अब संघर्ष को आगे बढ़ाने की बात की है. दो पन्ने के मुबारकनामे में कई दूसरे क्षेत्रों के साथ साथ ‘कश्मीर को इस्लाम के दुश्मनों से की आज़ादी' के लिए आगे बढ़ाने को कहा गया है. तालिबान और अलकायदा बेशक दो अलग अलग तंजीमें हों, लेकिन अलकायदा और हक्कानी नेटवर्क के बीच के संबंध जगजाहिर रहे हैं.

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अनस हक्कानी भी तालिबान के कतर ऑफिस के वार्ताकार टीम के सदस्य हैं और तालिबान के प्रभावशाली नेताओं में एक हैं. ये हक्कानी गुट के संस्थापक सिराजुद्दीन हक्कानी के सबसे युवा बेटे और सिराजुद्दीन हक्कानी के भाई हैं. सिराजुद्दीन हक्कानी हक्कानी नेटवर्क के प्रमुख हैं. हक्कानी नेटवर्क तालिबान का वो धड़ा है जो सीधे तौर पर पाकिस्तान शह और ताकत मिलती रही है. हक्कानी नेटवर्क को आईएसआई का ही एक विस्तार माना जाता है. तालिबान पर इसी गुट के सहारे पाकिस्तान अपनी मज़बूत पकड़ बना कर रखता रहा है.

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सूत्रों ने यहां तक बताया है कि पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान सरकार के गठन में इंटिलिजेंस और रक्षा जैसे विभाग और मंत्रालय हक्कानी नेटवर्क के पास रहे. इस बाबत उनसे हक्कानी गुट को सलाह भी दी है. हक्कानी गुट के ज़रिए तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान में अपना एजेंडा चलाने की पाकिस्तान की कोशिश किसी से छिपी नहीं रही है. यही वजह है कि तालिबान का हक्कानी गुट भारत के साथ बातचीत को अपनी सुविधा और शर्तों के हिसाब से आगे बढ़ाना चाहता है. तालिबान में मुल्ला बरादर और सिराजुद्दीन हक्कानी गुट का बंटवारा न सिर्फ़ वैचारिक है बल्कि इसका अफ़ग़ानों के अलग अलग जनजातीय समूह (ट्राइब्स) से भी संबंध है. मुल्ला बरादर और हिब्तुल्लाह अखुंडज़ादा और जैसे तालिबानी नेता दुर्रानी पख़्तून जनजातीय समूह से आते हैं और दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में इनका अधिक प्रभाव है। दूसरी तरफ़ हक्कानी गुट के नेता गिलज़ई (खिलजी) जनजातीय समूह से आते हैं। हक्कानी समूह का अपेक्षाकृत उत्तरी इलाक़ों में गहरी पैठ है. 

जनजातीय समूह और भौगोलिक स्तर पर इस बंटवारे का असर तालिबान के फैसलों में भी देखने को मिलेगा ये तय है, इसलिए भारत के साथ तालिबान की बातचीत की राह इतनी आसान नज़र नहीं आती. अफ़ग़ानिस्तान में भारत के हितों को देखते हुए एक व्यवहारिक रुख़ अपनाना और तालिबान के साथ बातचीत करना भारत की भी मजबूरी है. ख़ासतौर पर तब जब अमेरिका समेत दुनिया के तमाम ताक़तवर देश तालिबान के साथ फिलहाल सहयोग और समन्वय की बात कर रहे हैं तो भारत तालिबान की मुख़ालफ़त का झंडा लेकर अकेला लेकर नहीं चल सकता. चीन पहले ही तालिबान से हाथ मिला चुका है. ये रणनीतिक तौर पर और अहम है कि भारत भी अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदगी ख़त्म न करे. दूसरी तरफ़ रूस भी तालिबान के साथ खड़ा नज़र आ रहा है. रूस भारत को 2018 में इंट्रा अफ़ग़ान वार्ता की मेज पर एक आब्जर्वर के तौर पर बुला चुका है. तालिबान के साथ दोतरफा रिश्ते गांठने में रूस भारत की कुछ हद तक मदद कर सकता है, लेकिन एक बड़ा दारोमदार हक्कानी नेटवर्क और उसके आका पाकिस्तान पर है. 

सूत्र ये भी बताते हैं कि पाकिस्तान चाहता है कि अफग़ानिस्तान में अपना वजूद बनाए रखने के लिए भारत रावलपिंडी का दरवाज़ा खटखटाए, हालांकि तालिबान अपने बेहतर और एक स्वतंत्र भविष्य के लिए पाकिस्तान की बैकसीट ड्राइविंग से पीछा छुड़ाना चाहेगा. भारत, जिसने तालिबान को हमेशा आतंकी समूह माना और उसकी पिछली सरकार को कभी मान्यता नहीं दी, के साथ तालिबान के संबंध अकेला भारत के फायदे के लिए तो होने वाला नहीं, तालिबान को भी इसमें बड़ा फ़ायदा नज़र आ रहा है, लेकिन कुल मिला कर भारत और तालिबान के बीच की बातचीत को अभी कई इम्तिहानों से गुज़रना है.

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