देश-प्रदेश की सियासत में व्यापम घोटाले की आंच अभी ठंडी नहीं पड़ी थी कि जबलपुर मेडिकल यूनिवर्सिटी में कथित तौर पर मार्कशीट घोटाले के आरोप लगने लगे हैं. आरोप है कि यूनिवर्सिटी में उन छात्रों को भी पास कर दिया गया, जिन्होंने कभी परीक्षा ही नहीं दी. सरकार का कहना है कि उन्होंने ही मामले को पकड़ा और जांच के आदेश दिये हैं. सरकार ने कहा कि जांच में दोषी पाए जाने पर किसी भी शख्स को बख्शा नहीं जाएगा. वहीं कंपनी का कहना है कि विश्वविद्यालय के एक अधिकारी की वजह से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. उम्मीद है कि उन्हें अदालत से न्याय मिलेगा.
बता दें कि मध्यप्रदेश आर्युविज्ञान विश्वविद्यालय से 300 कॉलेज अटैच हैं. इस विश्वविद्यालय से अटैच कॉलेजों में लगभग 80,000 छात्र शिक्षारत हैं. मध्यप्रदेश आर्युविज्ञान विश्वविद्यालय राज्य के सारे मेडिकल, डेंटल, नर्सिंग, पैरामेडिकल, आर्युवेद, होमियोपैथी, यूनानी, योगा कॉलेजों का गर्वनिंग बॉडी है. जो अब फर्जी मार्कशीट घोटाले के आरोपों में घिरा है. हाईकोर्ट में पेश की गई मामले से जुड़ी जांच रिपोर्ट के मुताबिक प्रश्न पत्र बनाने से लेकर उत्तर पुस्तिका जांचने, रीवैल्यूएशन से लेकर मार्कशीट जारी करने में गंभीर अनियमितता हुई है. ना सिर्फ नंबरों में हेरफेर कर मार्कशीट जारी की गई, बल्कि कई ऐसे छात्रों को पास कर दिया गया जो परीक्षा में बैठे ही नहीं.
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सूचना के अधिकार से जुड़े एक्टिविस्ट अखिलेश त्रिपाठी ने इस मामले का खुलासा किया है. उन्होंने कहा कि जांच कमेटी ने पाया है कि छात्रों को पास फेल करके पैसा कमाया गया है. कंपनी ने ज्यादा पैसा लिया राजस्व का नुकसान किया यहां के लोग भ्रष्ट तंत्र में डूबे हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि मामला सामने आने के बाद भी रिजल्ट बनाने वाली कंपनी पर एफआईआर नहीं हुई, सिर्फ उसका ठेका निरस्त हुआ. कंपनी ने विश्वविद्यालय को डेटा तक नहीं दिया. कंपनी ने कहा कि बेंगलुरू में उनका कार्यालय लॉकडाउन में बंद है, फिर टर्मिनेशन के खिलाफ कंपनी हाईकोर्ट चली गई, यूनिवर्सिटी अब जवाब पेश नहीं कर रही है.
विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार डॉ प्रभात बुधौलिया ने कहा कि कंपनी कोर्ट में चली गई है. हमने वकील नियुक्त कर दिया है, अब माननीय न्यायालय फैसला करेगा. दरअसल, मामले की जांच के लिये पूर्व कुलसचिव डॉक्टर जेके गुप्ता की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय कमेटी बनाई गई थी. जिसमें पता चला कि विश्वविद्यालय में परीक्षा कार्य इंटरफेस निर्धारित नहीं है, ईमेल से सारा काम होने से डेटाबेस में फेरबदल हुआ. सॉफ्टवेयर में आईपी एड्रेस के बजाए मेक एड्रेस है जो सुरक्षा के हिसाब से उचित नहीं. अंकसूची में उपकुलसचिव के हस्ताक्षर अनिवार्य हैं, लेकिन टीआर शीट से मिलान वर्जित किया गया जो आपत्तिजनक है. विश्वविद्यालय के गोपनीय कक्ष में कंपनी का सर्वर है, लेकिन डेटाबेस मांगने पर भी दिया नहीं गया. अंकसूची का डेटा ईमेल के जरिये पीडीएफ और एक्सेल में कट-पेस्ट कर बनाया गया, जिससे डेटा परिवर्तन और त्रुटिपूर्ण होने की आशंका है. नतीजे घोषित होने से पहले इसे विश्वविद्यालय के कर्मचारी को मेल आईडी पर भेजा गया. परीक्षा नियंत्रक ने छुट्टी पर रहते अंक भेजे, जिसे कंपनी ने मार्कशीट में दर्ज किया. डेटा की सॉफ्ट कॉपी यूनिवर्सिटी में जमा करवाने की शर्त का भी उल्लंघन हुआ.
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हालांकि, कंपनी ने ईमेल के जरिये जो प्रतिक्रिया भेजी है, उसमें सारे आरोपों का खंडन किया गया है. कंपनी ने कहा है कि पिछले कुछ महीनों में हमें निहित कारणों से विश्वविद्यालय के एक अधिकारी ने परेशान किया. उक्त अधिकारी ने हमारी टीम पर परीक्षा की पवित्रता से समझौता करने का दबाव बनाया. जिसे हमने मानने से इनकार कर दिया. जिसकी वजह से उस अधिकारी ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए हमारा अनुबंध समाप्त कर, हमें ब्लैक लिस्ट कर दिया. इस फैसले को हमने हाईकोर्ट में चुनौती दी है. माननीय अदालत ने 29 जुलाई को विश्वविद्यालय के फैसले पर रोक लगाकर 16 अगस्त को अगली सुनवाई रखी है. उम्मीद है माननीय उच्च न्यायालय से हमें न्याय मिलेगा, मामला अदालत में है लिहाजा उस अधिकारी पर हम कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते.
जानकार मानते हैं कि पूरे मामले में यूनिवर्सिटी-प्रशासन-पुलिस सबकी भूमिका संदिग्ध है, हाईकोर्ट के वकील अमिताभ गुप्ता ने कहा यहां जो रजिस्ट्रार साहब की रिपोर्ट है वो पर्याप्त है पुलिस चाहे तो पूरी कहानी को उधेड़ सकती है. जांच कमेटी के जेके गुप्ता पद से हटाये जा चुके हैं. वहीं परीक्षा नियंत्रक जिन्हें परीक्षा परिणामों के लिये जिम्मेदार बताकर हटाया गया था, उनका तबादला आदेश अगले दिन निरस्त कर दिया गया. जुलाई में मामले की और परतें खुलने के बाद उन्हें फिर पद से हटा दिया गया.