कागजों में पक्के मकान, हकीकत में टपकती छतें... दर्दनाक है मध्य प्रदेश की इस गांव की कहानी

राजकुमार केवट का झोपड़ा ऐसा है जैसे बल्ली के सहारे टिका लोकतंत्र हो. ऊपर से पन्नी, नीचे से पानी. लेकिन कागज पर वो 'पक्का मकान मालिक' हैं. खुद कहते हैं कि अगर मेरा पक्का घर है, तो बताओ, मैं वहीं रहने चला जाऊं.

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  • मध्य प्रदेश के रामपुर बघेलान के अकौना गांव में सरकारी कागजों पर पक्का मकान दर्ज है, जबकि वास्तविकता में लोग झोपड़ी में रहते हैं.
  • कई गरीब परिवारों के नाम सूची से हटाए गए या अपात्र घोषित किए गए, जिससे उन्हें घर मिलने का अवसर नहीं मिला.
  • सतना जिले में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत स्वीकृत आवासों में से केवल कुछ ही पूर्ण हुए, कई किस्तें लंबित हैं.
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भोपाल:

कहते हैं सरकार गरीबों के लिए है... लेकिन जब कागज गरीब की गरीबी को झुठला दें, तो फिर गरीब किसके दरवाजे जाए? ये रामपुर बघेलान विकासखंड का अकौना गांव है, जहां कागजों पर सबके पास पक्का मकान है और हकीकत में पन्नियों और खपरैलों में टपकती रातें.

झोपड़ी तक सरकार की योजना नहीं पहुंची
यहां झोपड़ी में रौशनी है, क्योंकि दीवारों में सुराख हैं. रसोई में गैस नहीं, लेकिन धुआं है. वो भी इतना कि आंखें भर आएं—भले ही नेत्रहीन हों. सरकार ने वादा किया था कि सबको मिलेगा पक्का घर और वादे निभे भी, बस वह घर वहीं बने जहां सबसे ज़्यादा जमीन, सबसे बड़ी गाड़ी और सबसे ऊंची पहुंच हो, जिस देश में हर घर में टीवी पहुंच गया, वहां झोपड़ी तक सरकार की योजना नहीं पहुंची.

यह अकौना है. ग्राम पंचायत रामपुर बघेलान का अभिमानी गांव, जहां फूस की छत को ‘पक्का' घोषित कर दिया गया है और सरकारी कागजों में गरीबी की रेखा अब लकड़ी की बल्ली से टिकी हुई है. राजेश केवट का नाम पहले लिस्ट में था. फिर किसी की पेन की फिसलन से कट गया. दो कमरों में सारा जीवन टिका है. रोटी, कपड़ा, सपना, सब एक साथ. हां, सपना थोड़ा सिकुड़ गया है, क्योंकि सरकारी लिस्ट में जिनका नाम है, उनके पास बंगला भी है और ड्राइवर भी.

कागज पर 'पक्का मकान मालिक'
राजकुमार केवट का झोपड़ा ऐसा है जैसे बल्ली के सहारे टिका लोकतंत्र हो. ऊपर से पन्नी, नीचे से पानी. लेकिन कागज पर वो 'पक्का मकान मालिक' हैं. खुद कहते हैं कि अगर मेरा पक्का घर है, तो बताओ, मैं वहीं रहने चला जाऊं. कौशल केवट का घर दो कमरे का, वो भी मिट्टी का. लेकिन पंचायत को शायद उसके सपने ज़्यादा पक्के लग गए, आरोप है उनका नाम भी काट दिया और जब कौशल जी पूछते हैं कि मेरा घर बना कहां? तो सिस्टम मौन व्रत धारण कर लेता है.

मानस केवट का घर शुरू होता है और खत्म हो जाता है. इतना छोटा कि उसमें सपना भी पूरा नहीं फैल पाता. चूल्हे पर खाना पकता है, रौशनी बल्ब से नहीं, उम्मीद से आती है. लेकिन वो अपात्र हैं.

ग्रामीण राजकुमार केवट ने बताया कि पात्र- अपात्र में पता नहीं क्या करते हैं, कई सालों से नाम बताया है. लेकिन मनमानी है. गरीबों को घर नहीं मिलता है. ग्रामीण मानस केवट ने कहा कि गरीबों का नाम नहीं आया है. ग्रामीण कौशल केवट ने बताया कि पक्का नहीं, मेरा कच्चा मकान है, फिर भी अपात्र कर दिया. पता नहीं कैसे क्यों भगवान जाने.

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यह वही देश है जहां इंसान की गरीबी उसके कपड़े नहीं, उसके संपर्क तय करते हैं. यहां छप्पर भी वोट देता है और पन्नी की छत के नीचे अगर मोबाइल टॉर्च जल रही हो, तो उसे पक्का मकान मान लिया जाता है. एक महिला ने कहा कि रामस्वरूप का नाम नहीं है, मनोज का भी नहीं. इतनी खेती नहीं कि 2-3 किलो अनाज भी हो जाए. कागज देते हैं तो गुम कर देते हैं और पैसा मांगते हैं.

आश्वासनों की छतों के नीचे जी रहा है दंपत्ति

यहां कुछ लोग इतने अपात्र हैं कि आंखें नहीं हैं. लेकिन 'देखकर' ही रहना पड़ता है. रितु सिंह एक आंख से देखती हैं, पति अशोक दोनों से नहीं. मगर दोनों को यह जरूर दिखता है कि हर साल कोई अफसर नया आश्वासन देता है- 'अबकी बार आपका घर पक्का.' दोनों को साफ दिख रहा है कि सरकारी ‘आंखों' में इनकी जगह नहीं है. पिछले 13 साल से यह दंपत्ति आश्वासनों की छत के नीचे जी रहा है और बरसात की बूंदों से लुका-छुपी खेलता है.

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ग्रामीण रितु सिंह ने बताया कि 2012 से नाम है. बोल रहे हैं मिलेगा. आजतक नहीं मिला. हम क्या बताएं बहुत दिक्कत है. बैठने तक की जगह नहीं है.

सरकार और सिस्टम को जो दिखता है, वो आम आदमी को नहीं दिखता. उदाहरण के लिए उमाकांत सिंह, जिनके पास ट्रैक्टर है, जमीनें हैं, लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री आवास योजना के लाभार्थी हैं. कारण...? शायद पात्रता अब घर की हालत से नहीं, पहुंच की ऊंचाई से तय होती है. पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती. उमाकांत सिंह ट्रैक्टर मालिक, जमीन मालिक, फिर भी योजना का लाभार्थी, क्योंकि पंचायत तिकड़ी का मन था और पात्रता का नाम अब 'मन की बात' हो चला है.

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ग्राम पंचायत पंच अनुराग सिंह ने कहा कि प्रशासनिक गलती है. पंचायत ने जिनको अपात्र बताया, प्रशासन ने उनको पात्र बना दिया. कहीं सुनवाई नहीं है.

ग्राम पंचायत अकौना के सरपंच श्रद्धा सिंह ने कहा कि मैं चाहती हूं गरीबों को घर मिले, बड़े लोगों को नहीं पता नहीं वो क्यों गरीबी में जुड़ना चाहते हैं. हर जगह शिकायत की, कलेक्टर से भी हुआ. कुछ नहीं मनमानी कर रहे हैं.

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आरोप है कि पंचायत की तिकड़ी-सचिव, सहायक और कुछ और 'काबिल' लोग ने तय कर लिया कि फूस की छत, मिट्टी की दीवारें और लकड़ी का चूल्हा, दरअसल 'पक्का मकान' ही है. अकौना गांव के लोग अब झोपड़ियों से नहीं, कागज़ों से लड़ रहे हैं. हर साल आंकड़ों की नई परत चढ़ाई जाती है.

  • साल 2025-26 में 24516 आवास स्वीकृत हुए
  • पहली किस्त पेंडिंग है 5387 घरों की
  • दूसरी किस्त पेंडिंग है 3697
  • तीसरी किस्त पेंडिंग 1988 घरों की
  • चौथी किस्त पेंडिंग है 740 घरों की
  • सिर्फ 2186 आवास ही पूर्ण हुए है

प्रधानमंत्री आवास घोटाले की कहानी
वैसे सतना में ये पहली बार नहीं हुआ. 3 साल पहले हमने भूतों के गांव से प्रधानमंत्री आवास घोटाले की कहानी बताई थी. मृतकों के नाम पर घर स्वीकृत हो गये. कहीं गरीबों को मकान नहीं मिला. लेकिन पैसे उनके खाते में आये और चले गए. ये भी पता लगा कि भ्रष्ट सिस्टम कैसे सरकारी योजनाओं के कुंए पी गया, शौचालय चट कर गया. सुनने में अजीब लगा ना. जरा सोचिये जिनके साथ ये हुआ उनपर क्या गुजर रही होगी और उनकी हिमाकत जो प्रधानमंत्री का नाम जुड़ने के बाद भी घोटाला करने से नहीं चूके.

तो साहब, कहानी साफ है. झोपड़ी में रहकर भी कोई अमीर नहीं हो सकता. लेकिन बंगले में रहकर गरीब जरूर बन सकता है. कागजों में,  क्योंकि यहां गरीबी दशा से नहीं, सिफारिश से तय होती है और मकान, वो किस्मत और ‘कनेक्शन' वालों को ही मिलता है. जिनके पास कुछ नहीं है, उनके पास एक उम्मीद थी. वो भी अब टपक रही है. प्रधानमंत्री आवास योजना जिस उद्देश्य से बनी थी, वो अभी भी 'पक्के' इरादों में नहीं उतर पाई है. क्योंकि जब पात्रता, राजनीति और भ्रष्टाचार की गठरी में लिपटी हो, तो गरीब की झोपड़ी सिर्फ एक आंकड़ा रह जाती है. वो भी अधूरा.

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