इमरजेंसी पूरे 19 महीने तक यानी करीब 635 दिन तक चली, क्या इमरजेंसी सिर्फ 50 दिनों में ही खत्म होने वाली थी. 15 अगस्त 1975 को जब इंदिरा गांधी लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करने वाली थीं, क्या उसी वक्त वो इमरजेंसी को खत्म करने का एलान करने वाली थीं. जानिए
इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर एक चौंकाने वाली जानकारी आपतक हम लेकर आए हैं. 25 जून 1974 की रात को जो इमरजेंसी इंदिरा गांधी ने लगाई थी, और जो इमरजेंसी पूरे 19 महीने तक यानी करीब 635 दिन तक चली, क्या वो इमरजेंसी सिर्फ 50 दिनों में ही खत्म होने वाली थी. 15 अगस्त 1975 को जब इंदिरा गांधी लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करने वाली थीं, क्या उसी वक्त वो इमरजेंसी को खत्म करने का एलान करने वाली थीं. आखिर ऐसा क्या हुआ था कि इंदिरा गांधी इमरजेंसी खत्म कर सकती थीं, सारे विपक्षी नेता और कांग्रेस के भी चंद्रशेखर जैसे नेता जेलों से रिहा किए जा सकते थे और ऐसा होना ही था तो फिर ऐसी क्या आफत आ गई थी कि 15 अगस्त को इमरजेंसी हटाने के लिए विचार करने वाली इंदिरा गांधी अपने इरादे से पीछे हट गईं.
जब जेपी की आवाज दिल्ली दरबार ने सुनी
इन सवालों के जवाब 25 जून 1975 की आधी रात के बाद बल्कि कहना चाहिए कि अलसुबह लगी इमरजेंसी के साये में मिलेंगे बल्कि उससे भी एक साल बीस दिन पहले 5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान में जयप्रकाश नारायण, जिन्हें लोग सम्मान से जेपी भी बुलाते थे, उनकी एक रैली हुई थी. वो रैली छात्रों के आक्रोश का प्रदर्शन था जो बिहार में कांग्रेस की सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का समाधान चाहता था. प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर ज्ञान प्रकाश अपनी किताब Emergency Chronicles: Indira Gandhi and Democracy's Turning Point में लिखा है कि वहां जेपी ने अपने मित्र, प्रशंसक और समर्थक महान कवि रामधारी सिंह दिन की कविता जनतंत्र की आठ पंक्तियां पढ़ीं. उन आठ पंक्तियों की गूंज दिल्ली दरबार ने भी सुनी. 72 साल की बूढ़ी आवाज में जेपी ने वो कविता पढ़ी
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.
यही बात जेपी ने 25 जून 1975 को कुछ ज्यादा तीखे तेवर, कुछ ज्यादा आत्मविश्वास और कुछ ज्यादा विक्षोभ के साथ नई दिल्ली के रामलीला मैदान में भी कही. 25 जून की उस भीषण गर्मी की चिपचिपाती शाम दिल्ली के रामलीला मैदान का नजारा भारत के मजबूत लोकतंत्र की गवाही दे रहा था. जेपी का स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था, लेकिन लोकतंत्र को बचाने की उनकी इच्छाशक्ति उस दिन अद्भुत थी. उनके साथ विपक्ष के तमाम दिग्गज भी वहां हाजिर थे, जिनमें मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस, मधु लिमये जैसे नेता था. जेपी ने वहां सेना और पुलिस से भी ये कह दिया कि इंदिरा गांधी की सरकार अवैध है, इसीलिए सेना और पुलिस भी इस सरकार की हुक्म को ना माने.
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है...जेपी ने पढ़ी कविता
दिनकर की कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है को जेपी ने एक बार फिर दोहराया. लेकिन साथ ही ये भी बता दिया कि वो अबकी बार इंदिरा गांधी की सत्ता से आरपार की लड़ाई लड़ने के लिए आए हैं. अपने जज्बात को अभिव्यक्त करने के लिए जेपी ने हरिवंश राय बच्चन की कविता उस सभा में पढ़ी कि तीर पर कैसे रुकूं मैं, आज लहरों का निमंत्रण. वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के मीडिया सलाहकार रहे कुलदीप नैयर ने अपनी किताब On Leaders and Icons:From Jinnah to Nehru में लिखा है कि जब रात के 9 बजे के करीब जेपी भाषण देकर अपनी कुर्सी पर बैठे तो एक बड़े विपक्षी नेता और ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने कहा कि जेपी, अब इंदिरा आपको भाषण नहीं देने देंगी, वो आपको जेल में डाल देंगी. इस पर जेपी और मोरारजी देसाई दोनों ने कहा कि नहीं, वो ऐसा नहीं करेगी. कुछ भी हो, वो जवाहरलाल की बेटी हैं. तब बीजू ने जवाब दिया कि वो जवाहरलाल की बेटी थीं, अब वो संजय गांधी की मां हैं. बीजू पटनायक का वो कथन इस घटना के छह घंटे बाद ही सही साबित हुआ, जब रात को तीन बजे जेपी को उस वक्त गिरफ्तार किया गया जब गांधी शांति प्रतिष्ठान में वो सो रहे थे.
जेपी की गिरफ्तारी और पटनायक की भविष्यवाणी
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा जिंदगी का कारवां में लिखते हैं- साढ़े तीन बजे भोर में हमारे पास अचानक फोन आया कि जेपी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंच गई है. हम टैक्सी लेकर गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंचे. वहां हम पहुंचे, तबतक पुलिस जेपी को लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने में गई. पीछे पीछे हम भी पहुंचे. वहां के एसपी ने मुझसे कहा कि जेपी के लिए गाड़ी आ गई है. मेरी हिम्मत नहीं होती ये कहने के लिए, आप उनसे कहिए और हां, आपको दूसरी जगह जाना है. तब जेपी से मैंने कहा- आप तो जाइए, आपकी गाड़ी आ गई है. मुझे दूसरी जगह जाना है. उन्होंने कहा- आप भी गिरफ्तार हैं, मैंने कहा- हां. तब उन्होंने थाने से बाहर निकलते हुए कहा- विनाश काले विपरीत बुद्धि. लेकिन विनाश वाली इस बुद्धि के लिए उस रात बहुत माथापच्ची हुई थी.
उधर रामलीला मैदान में जेपी की रैली चल रही थी, तभी देश पर इमरजेंसी थोपने और लोकतंत्र को सस्पेंड करने की तैयारी शुरु हो गई. वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर अपनी किताब The Emergency: A personal History में लिखती हैं कि 25 जून की शाम को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निजी सहायक आरके धवन के कमरे में हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसी लाल, गृह राज्य मंत्री ओम हेतना, क्राइम इन्वेस्टिगेशन डिपार्टमेंट यानी सीआईडी के एसपी के एस बाजवा की बैठक चल रही थी. उसी बीच उप राज्यपाल किशन चंद ने शाम साढ़े सात बजे मुख्य सचिव जेके कोहली, आजी भवानी मल, डीआईजी भिंडर के साथ एक बैठक बुला ली. उसके एक घंटे बाद ही मुख्य सचिव ने तिहाड़ जेल में जाकर जेल सुप्रिटेंडेंट को बता दिया कि 200 नागा कैदियों के लिए आप सुबह सवेरे तक इंतजाम रखिए.
इमरजेंसी और संजय गांधी का प्रभाव
इधर बडबोले बंसीलाल ने इंदिरा गांधी से कहा कि बहनजी, आप उन सबको मुझे सौंप दीजिए और मैं उन सबको ठीक कर दूंगा. ये साफ था कि तब तक इंदिरा गांधी वही करने लगी थीं, जो संजय गांधी चाहते थे. फिर भी वो संजय गांधी या बंसीलाल की तरह एक्सट्रीम स्टेप नहीं उठाना चाहती थीं. उन्होंने अपने मित्र और कानूनी सलाहकार सिद्धार्थ शंकर रे से कहा कि देश को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है. इंदिरा गांधी ने तय कर लिया था कि वो इमरजेंसी लगाएंगी और उनके इस खेल में हिस्सेदार वहीं थे, जो उनके या संजय गांधी के हर हुक्म को संविधान के ऊपर भी तरजीह देने को तैयार रहे. इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है कि तब गृह मंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी थे. लेकिन उनको कोई नहीं पूछता था और राज्य मंत्री होकर भी ओम मेहता इतने ताकतवर थे कि तब मजाक होने लगा था कि भारत में होम मिनिस्ट्री नहीं, ओम मिनिस्ट्री काम करती है.
इंदिरा की आशंकाएं...
इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने के लिए कैबिनेट से भी राय मशविरा नहीं किया, राय मशविरा तो दूर, उन्हें बताया तक नहीं. दरअसल इंदिरा गांधी जितना विपक्षी नेताओं से सशंकित रहती थीं, उतनी ही शंका उन्हें अपनी पार्टी के नेताओं पर भी थी. तब के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने इंदिरा गांधी को भारत का पर्यायवाची बताते हुए नारा दिया था कि इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा. लेकिन उसी बरुआ ने इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला इंदिरा गांधी के खिलाफ आने के बाद संजय गांधी को सुझाव दिया कि जब तक इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिलती, तब तक वो प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं और इसीलिए पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ देंगे. बरुआ का ये प्रस्ताव संजय गांधी को कतई रास नहीं आया.
जगजीवन राम देख रहे थे पीएम बनने का सपना
दरअसल इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस जगमोहन सिन्हा के फैसले ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को खारिज कर दिया. तब प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी सरकार के कई मंत्री दावेदारी दिखाने लगे, उनमें सबसे आगे जगजीवन राम थे. कूमी कपूर लिखते हैं कि इंदिरा गांधी को आईबी से ये जानकारी मिल गई थी कि करीब 80 दलित सांसदों के बल पर जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं. उमा वासुदेव ने इंदिरा गांधी की जीवनी 'टू फ़ेसेज़ ऑफ़ इंदिरा गाँधी' में लिखा है कि जगजीवन राम को ये अहसास हो गया था कि पार्टी पर इंदिरा गांधी का पूरा कंट्रोल है और वो उन्हें मात नहीं दे पाएंगे तो चुपचाप बैठ गए. दूसरे नेता स्वर्ण सिंह थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने एक बार सोच लिया था कि वो प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर स्वर्ण सिंह को प्रधानमंत्री बना देंगी. जब तक सुप्रीम कोर्ट से वो बरी नहीं हो जातीं.
जब इंदिरा गांधी ने इस्तीफ़ा देने का मन बनाया
अपने जमाने के मशहूर पत्रकार इंदर मल्होत्रा ने अपनी किताब 'इंदिरा गांधी अ पर्सनल एंड पॉलिटिकल बायोग्राफ़ी' में लिखा कि 12 जून, 1975 को एक समय ऐसा आया जब इंदिरा गांधी ने इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया था. वो अपनी जगह स्वर्ण सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की सोच रही थीं. लेकिन जगजीवन राम की दावेदारी को देखते हुए उन्होंने अपना विचार बदल दिया. कांग्रेस के एक और दिग्गज नेता वाईबी चह्वाण थे, जिनकी एक तिरछी नजर दिल्ली के तख्त पर थी, लेकिन इंदिरा गांधी के खिलाफ खड़ा होने वाली ताकत उनमें भी नहीं थी. अपनी पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं और कमजोरियों को इंदिरा गांधी बहुत अच्छे से जानती थीं. इसीलिए आधी रात को इमरजेंसी लगाने का प्रस्ताव राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के पास भेजा गया और उन्होंने बिना सुगबुगाए उस पर दस्तखत कर दिए. उसके बाद इंदिरा गांधी ने कैबिनेट की बैठक बुलायी.
इंदिरा के इमरजेंसी लगाते ही छा गया सन्नाटा
26 जून 1975 की सुबह जब उनके मंत्रियों को कैबिनेट बैठक की सूचना मिली तो उनको कोई कारण नहीं पता था. 6 बजे सुबह कैबिनेट बैठक शुरु हुई तो इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने की बात बताई. कैबिनेट बैठक में मरघट का सन्नाटा छा गया. जो नेता प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते थे, उन्होंने भी चूं तक नहीं किया. बस रक्षा मंत्री स्वर्ण सिंह ने पूछा और वो भी बहुत नरमी से कि जब देश में पहले से एक्सटर्नल इमरजेंसी है तो दूसरी इमरजेंसी की क्या जरूरत है. लेकिन इंदिरा गांधी के तेवर को देखकर वो भी चुप रह गए. उनका सवाल उठाना इंदिरा गांधी को रास नहीं आया. कुछ समय बाद ही उनकी रक्षा मंत्री के पद से छुट्टी हो गई.
क्या 50 दिन में खत्म हो सकती थी इमरजेंसी?
अब उस सवाल पर आते हैं कि क्या इंदिरा गांधी इमरजेंसी लगाने के 50 दिन बाद ही पंद्रह अगस्त 1975 को इमरजेंसी हटाने वाली थीं. इसका जवाब इंदिरा गांधी की सहेली पुपुल जयकर की किताब इंदिरा गांधी- ए बायोग्राफी में मिलता है. दरअसल इमरजेंसी लगाने के बाद जब विपक्षी नेता जेलों में ठूंस दिए गए तो उसके कुछ दिनों बाद देश में फैले सन्नाटे को इंदिरा गांधी ने शांति मान लिया. उनको लगा कि अब देश का राजनीतिक वातावरण उनके पक्ष में हो चुका है. उन्हें लगा कि विपक्ष अब इतना कमजोर हो चुका है कि उनके सामने खड़ा नहीं हो पाएगा. साथ ही अच्छी बारिश के कारण खरीफ की फसल अच्छी होने के आसार दिखने लगे. इस बीच आंकड़ों में ही सही, अचानक महंगाई और बेरोजगारी भी कम होते दिखने लगे.
15 अगस्त की सुबह राजनीतिक समीकरण कैसे बदला
इंदिरा गांधी को लगने लगा कि वो लाल किले के प्राचीर से इमरजेंसी हटाने का एलान करके देश की सहानुभूति भी बटोर लेंगी कि लोकतंत्र के प्रति उनकी कितनी आस्था है और ऐसे वातावरण में छह महीने के भीतर चुनाव करवाकर वो फिर से प्रधानमंत्री बन सकती हैं. लेकिन फिर ऐसा कुछ हुआ, जिसने सारा खेल पलटकर रख दिया. पुपुल जयकर अपनी किताब इंदिरा गांधी- ए बायोग्राफी में लिखती हैं कि इंदिरा गांधी 15 अगस्त को लाल क़िले से राष्ट्र के नाम संबोधन में ये घोषणा करने वाली थीं, लेकिन 15 अगस्त की सुबह सुबह ही बांग्लादेश में जो कुछ हुआ उसने भारत का राजनीतिक समीकरण बदल दिया.
दरअसल 15 अगस्त 1975 की सुबह सुबह बांग्लादेश के संस्थापक और पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान की उनके परिवार के आठ सदस्यों के साथ उनके घर में ही हत्या कर दी गई. इंदिरा गांधी के लिए शेख़ मुजीबुर्रहमान की हत्या बेहद हिला देने वाली घटना थी. पुपुल जयकर लिखती हैं कि इंदिरा गांधी ने लाल किले से भाषण देने से पहले उनसे कहा कि पुपुल, मैं किस पर विश्वास करूं. दरअसल इंदिरा गांधी ने शेख मुजीबुर्रहमान के उस इतिहास को कुरेदा होगा जिसकी चर्चा अपनी किताब में ज्ञानप्रकाश ने की है.
25 जनवरी 1975 को शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश में इमरजेंसी घोषित कर दी थी और उसे वन पार्टी स्टेट घोषित कर दिया. यानी वहां भी लोकतंत्र के लिए कोई मतलब नहीं रह गया. संभव है कि इंदिरा गांधी को लगा हो कि उनका इमरजेंसी हटाने का फैसला उनकी कमजोरी का प्रतीक ना मान लिया जाए और फिर यहीं उनके परिवार के लिए बहुत बड़ा खतरा ना बन जाए. अपनी जिंदगी की परवाह कहें या सत्ता की अंतहीन ख्वाहिश, पचास साल पहले इंदिरा गांधी पर इस कदर हावी हुआ कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र 19 महीने तक सलाखों के पीछे सिसकता रहा।.