"फ्रीबी मुद्दे पर विस्तृत सुनवाई ज़रूरी..." : CJI ने मामला तीन जजों की बेंच को भेजा

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फ्री बी मुद्दे पर विस्तृत सुनवाई की जरूरी है. इस मामले को उन्होंने तीन जजों की बेंच को भेज दिया है. इस पर चार हफ्ते बाद सुनवाई होगी.

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सुप्रीम कोर्ट में फ्री बी के मामले पर आज हुई सुनवाई

चुनावों से पहले फ्री बी यानी मुफ्त उपहार का वादा करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने की याचिका पर CJI एन वी रमना, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सी टी रविकुमार की बेंच ने कहा कि फ्री बी मुद्दे पर विस्तृत सुनवाई की जरूरी है. इस मामले को उन्होंने तीन जजों की बेंच को भेज दिया है. इस पर चार हफ्ते बाद सुनवाई होगी. सीजेआई ने कहा कि इसमें दो तरह के मुद्दे थे - पहला, चुनाव से पहले वादा किया गया और दूसरा दूसरा निर्वाचित होने के बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली योजनाएं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है, मतदाता तय करता है कि कौन सी पार्टी जीतेगी.

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सुप्रीम कोर्ट ने कुछ सवाल भी तय किए हैं. मांगी गई राहत के संबंध में न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा क्या है?  क्या आयोग की नियुक्ति से इस मामले का कोई उद्देश्य पूरा होगा?  2013 के सुब्रमण्यम बालाजी फैसले पर क्या फिर से विचार हो . अदालत ने कहा, आदेश पारित होने से पहले पक्षों द्वारा उठाए गए मुद्दों पर व्यापक सुनवाई की आवश्यकता है.

इससे पहले इस मामले की सुनवाई के दौरान सीजेआई ने कहा था कि सवाल ये है कि अदालत के पास शक्ति है, आदेश जारी करने की, लेकिन कल को किसी योजना के कल्याणकारी होने पर अदालत में कोई आता है कि यह सही है. सीजेआई ने कहा कि ऐसे में यह बहस खड़ी होगी कि आखिर न्यायपालिका को क्यों हस्तक्षेप करना चाहिए.  CJI ने कहा था कि फ्रीबीज पर रोक के लिए हम चुनाव आयोग को कोई अतिरिक्त अधिकार नहीं देने जा रहे हैं, लेकिन इस मामले में चर्चा की जरूरत है. यह निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. मान लीजिए केंद्र एक ऐसा कानून बनाता है, जो राज्य मुफ्त नहीं दे सकते, क्या तब हम यह भी कह सकते हैं कि इस तरह का कानून न्यायिक जांच के लिए खुला नहीं है.

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गौरतलब है कि राजनीतिक दलों द्वारा की जानेवाली मुफ्त की घोषणाओं के मामले पर पिछली सुनवाई के दौरान कोर्ट सरकार से बार-बार सर्वदलीय बैठक के जरिए एकराय बनाने की बात कह चुका है. निर्वाचन आयोग ने भी कहा कि इस बाबत नियम कायदे और कानून बनाने का काम उसका नहीं बल्कि सरकार का है. वहीं सरकार का कहना है कि कानून बनाने का मामला इतना आसान नहीं है. कुछ विपक्षी पार्टियां इस मुफ्त की घोषणाएं करने को संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार का अंग मानती हैं. 

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