क्या मल्टीनेशनल कंपनियां (Multinational Companies) तीसरी दुनिया के मज़दूरों के साथ भेदभावभरा सलूक करती हैं...? क्या यूरोप और अमेरिका में कंपनियों के जो मानदंड हैं, वे एशिया और भारत तक आते-आते बदल जाते हैं. कई रिपोर्टों में इस तरह का इशारा मिलता है. समाचारपत्र 'इंडियन एक्सप्रेस' में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेज़न इंडिया के गोदामों में काम करने वाले कर्मचारियों के हालात अच्छे नहीं हैं. इन कर्मचारियों पर टारगेट पूरा करने का दबाव इतना ज़्यादा है कि इन्हें काम के बीच पानी पीने और शौचालय तक नहीं जाने की शपथ दिलाई गई है. अमेज़न के गोदाम में काम करने वाले कर्मचारियों के मुताबिक इनबाउंट टीम को आठ बार शपथ दिलाई गई, जबकि आउटबाउंड टीम को भी एक बार यही शपथ दिलाई गई है.
हालांकि असलियत यह है कि अमेज़न अकेली ऐसी कंपनी नहीं है, और बहुत-सी अन्य कंपनियों पर भी इसी तरह का भेदभाव करने के आरोप हैं. BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार, मार्क एंड स्पेन्सर, टेस्को सैलिसबरी और फ़ैशन ब्रांड जैसी कंपनियों के सप्लायरों के पास काम करने वाले भारतीय मज़दूरों को भी शोषण झेलना पड़ता है. महिला मज़दूरों की भी शिकायत है कि ऑर्डर पूरे करने के लिए कई बार उन्हें रातभर रुकना पड़ता है, और वे फ़र्श पर भी सोने के लिए भी मजबूर हैं.
11 कंपनियों पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप
ऐसा भी नहीं है कि ऐसे हालात सिर्फ़ भारत में मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए काम करने वाले भारतीयों को ही झेलने पड़ते हैं. ब्रिटेन में काम करने वाले प्रवासी मजदूरों को भी काफी कुछ बर्दाश्त करना पड़ता है. Guardian की मई, 2024 की एक रिपोर्ट बताती है कि 11 अलग-अलग कंपनियों के 30 से ज़्यादा मज़दूरों ने मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगाए हैं. उनकी रोज़गार की शर्तों को पूरा नहीं किया गया, और उन्हें अनुपयुक्त हालात में रहने को बाध्य किया गया, जिनमें दूसरे मज़दूरों के साथ कमरा और बिस्तर साझा करना शामिल था. इसके अलावा, उन्हें अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खाद्य बैंकों का इस्तेमाल करने पर मजबूर होना पड़ा, और शिकायत करने पर निकाल देने की धमकी दी गई.
इस विषय पर NDTV ने बात की विराग गुप्ता से, जो एडवोकेट होने के साथ-साथ साइबर लॉ एक्सपर्ट भी हैं. जब उनसे पूछा गया कि क्या कोई भी कंपनी इस तरह के नियम-कायदे बना सकती है, जो मानवता के खिलाफ हों, जो कर्मचारियों के मौलिक अधिकारों का हनन करते हों, तो उन्होंने कहा, "जब भारत में स्वतंत्रता आंदोलन शुरू हुआ था, तो महात्मा गांधी ने सबसे पहले निलह मज़दूरों (बिहार में नील की खेती करने वाले मज़दूर) की दुर्दशा की ओर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया था... बिल्कुल उन्हीं निलह मज़दूरों की तरह डिजिटल इकोनॉमी में gig workers, या दिहाड़ी कामगारों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई नियम-कायदे-कानून, कानूनी सुरक्षा लागू नहीं हो रही... उनका सिर्फ़ ID Card बनाया जाता है, जिसे चालू कर काम करवाते हैं, और फिर उसे जब चाहे Block कर दिया जाता है... मोटे तौर पर, तीन तरह की दिक्कतें हैं..."
कर्मचारी कंपनी के रिकॉर्ड में ही नहीं : गुप्ता
उन्होंने आगे कहा, "दूसरी समस्या यह है कि ये सभी कर्मचारी कंपनी के रिकॉर्ड में कहीं भी नहीं हैं... जब ये कंपनियां कहती हैं, हम अरबों-खरबों डॉलर का निवेश ला रही हैं, या हमने भारत में चार-पांच लाख रोज़गार पैदा किए, तो इलाज यह है कि तभी इनसे सारे कर्मचारियों की डिटेल मांग ली जाए... जैसे ही आप कर्मचारियों की डिटेल मांगेंगे, और वे दे देंगे, सभी कर्मचारी तुरंत श्रम कानूनों के दायरे में आ जायेंगे... इसके बाद कंपनी को उन्हें न्यूनतम वेतन भी देना पड़ेगा. उनके मेडिक्लेम भी देने होंगे, उन्हें सामाजिक सुरक्षा देनी पड़ेगी..."
विराग गुप्ता के मुताबिक, "सरकार के पहलू से ये बातें बहुत अहम हैं... इसलिए सरकार ने 100 दिन का एक्शन प्लान बनाया है, और उसमें श्रम संहिता को लागू करने की बात है... अब श्रम संहिता में 29 कानूनों को एक साथ मर्ज कर दिया गया है, जिसके चार हिस्से हैं... पहला हिस्सा Code on Wages Act, 2019 है, दूसरा हिस्सा Industrial Relations Code, 2020 है, तीसरा हिस्सा Code on Social Security, 2020 है, और चौथा हिस्सा Occupational Safety Health and Working Condition Court, 2020 है... इसके तहत कई राज्यों ने अपने नियम जारी कर दिए हैं, लेकिन अब तक कई राज्यों ने नियम जारी नहीं किए हैं... इसमें समूचे देश में एकरूपता होनी चाहिए, ताकि श्रम कानूनों का पालन हो..."
सरकार को करनी चाहिए सख्त कार्रवाई : गुप्ता
कंपनियों द्वारा काग़ज़ों पर कर्मचारी नहीं दिखाने की चतुराई से बचने का उपाय पूछे जाने पर विराग गुप्ता ने कहा, "यह किसी डिजिटल इकोनॉमी के लिए बेहद मौजू सवाल है. अभी हाल ही में पढ़ा था कि Zomato में 10 मिनट के भीतर डिलीवरी का सिस्टम है, औऱ कंपनियां अपनी सर्विस दिखाने के लिए बड़े-बड़े विज्ञापन करती है, लेकिन उस सर्विस को पूरा करने वाले कर्मचारियों की देखरेख नहीं करतीं. यह सरकार के लिए भी चिंता का विषय है, लेकिन इन कंपनियों का ढांचा कुछ ऐसा है कि वेबसाइट अमेरिका में है, डेटा वाली कंपनी आयरलैण्ड में है, तीसरी कंपनी सिंगापुर में है और भारत में सिर्फ़ मार्केटिंग कंपनी है, जो कर्मचारियों को आउटसोर्स करती हैं. इसलिए कर्मचारियों की ज़िम्मेदारी आउटसोर्सिंग कंपनी की रहती है, नाम भले ही अमेज़न का रहता है, लेकिन कर्मचारी किसी और कंपनी के लिए काम कर रहे हैं. यही गोरखधंधा है, जिस पर सरकार को सख्त कार्रवाई करनी चाहिए."
इन कंपनियों में विदेशी कर्मचारियों की तुलना में भारतीयों के साथ होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ कर्मचारियों के अधिकार और उपाय पूछे जाने पर विराग गुप्ता ने बताया, "जिसके पास काम नहीं है, रोज़ी-रोटी नहीं है, वे किसी भी शर्त पर काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं, क्योंकि उन्हें अपने घर में चूल्हा जलाना है और हालात ऐसे हैं कि अगर वह शख्स अपने अधिकारों की बात करेगा, तो कंपनी उसे नोटिस भी नहीं देगी, और उसी दिन उसका कार्ड ब्लॉक कर देगी, और कहेगी - तुम्हारी छुट्टी... ये लोग दिहाड़ी मज़दूर हैं, जो अपने कानूनी हक की लड़ाई नहीं लड़ सकते... सरकारें इसीलिए बनती हैं, ताकि कमज़ोर की मदद करें... सो, यह ज़िम्मेदारी सरकार की है कि कंपनियां अपने सभी कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन दें, काम के घंटों के नियम को उन पर लागू करें, अतिरिक्त काम करवाने पर मुआवज़ा दें... महिला कर्मचारियों की कार्यस्थल पर सुरक्षा सुनिश्चित करें... इन सभी नियमों का पालन कंपनियां करें, इसके लिए ज़रूरी है कि श्रम संहिता में भूमिका रखने वाली राज्य सरकारें और केंद्र सरकार भी कंपनियों पर दबाव बनाएं, क्योंकि यह सिर्फ़ एक-दो लोगों से नहीं, करोड़ों लोगों से जुड़ा मामला है, जो अमानवीय परिस्थितियों का शिकार हो रहे हैं..."
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