सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने एक मामले में सुनवाई करते हुए कहा कि मानसिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों (Mentally Challenged) के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करना अप्रत्यक्ष भेदभाव का एक पहलू है. ऐसे लोग दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम (आरपीडब्ल्यूडी) के तहत सुरक्षा का हकदार है. जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस बी वी नागरत्ना की पीठ ने फैसला सुनाया है कि मानसिक रूप से दिव्यांग कर्मचारी के खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्रवाई भेदभावपूर्ण और कानून के प्रावधानों का उल्लंघन है.
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अदालत ने केंद्रीय पुलिस बल में एक सहायक कमांडेंट रविंदर कुमार धारीवाल द्वारा दायर एक अपील को स्वीकार कर लिया है, जिसे बिना पूर्व स्वीकृति के टेलीविजन चैनलों और अन्य प्रिंट मीडिया के समक्ष आकर कथित तौर पर असंसदीय भाषा के कथित उपयोग के लिए जांच और निलंबन का सामना करना पड़ा था. उस पर डिप्टी कमांडेंट के साथ बदसलूकी के आरोप थे. पीठ ने अपीलकर्ता के चिकित्सा इतिहास में यह नोट किया कि वह 2009 में जुनूनी बाध्यकारी विकार और अवसाद से ग्रस्त है और उसे 40 से 70 प्रतिशत दिव्यांग वाले स्थायी रूप से दिव्यांग के रूप में वर्गीकृत किया गया था.
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पीठ ने कहा है कि मानसिक दिव्यांग होना सक्षम शरीर वाले व्यक्तियों की तुलना में कार्यस्थल मानकों का पालन करने की क्षमता को कम करती है. ऐसे व्यक्तियों को अधिक हानि होती है और अनुशासनिक कार्रवाई की चपेट में आ जाते हैं. लिहाजा मानसिक रूप से दिव्यांग व्यक्तियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करना अप्रत्यक्ष भेदभाव का एक पहलू है. पीठ ने उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि वह आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के तहत सुरक्षा का हकदार है. भले ही वह अपने वर्तमान रोजगार लिए अनुपयुक्त पाए जाते हैं. साथ ही निर्देश दिया कि अपीलकर्ता को एक वैकल्पिक पद पर फिर से नियुक्त करते समय यदि यह आवश्यक है, तो वेतन, परिलब्धियां और सेवा की शर्तें संरक्षित होनी चाहिए.
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