क्यों हो रही है कैदियों की इलेक्ट्रानिक निगरानी की बात, क्या यह निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा

सुप्रीम कोर्ट की एक रिपोर्ट में जमानत पर या दूसरे तरीकों से रिहा हुए कैदियों की इलेक्ट्रानिक उपकरणों से निगरानी की वकालत की गई है. रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसी निगरानी से जेलों में से कैदियों की भीड़ कम होगी. इस निगरानी के कुछ नैतिक पहलू भी हैं.

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नई दिल्ली:

देश की जेल में कैदियों की भीड़ को देखते हुए जमानत पर रिहा हुए आरोपियों की इलेक्ट्रानिक उपकरणों से निगरानी को लेकर बहस शुरू हो गई है.इस व्यवस्था के पैरोकार इसे कम खर्चीला बता रहे हैं. वहीं अदालतें इसे निजता के अधिकार के उल्लंघन के रूप में देख रही हैं. दरअसल राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पांच नवंबर को एक रिपोर्ट जारी की थी.इस रिपोर्ट का शीर्षक है, 'प्रिजन इन इंडिया: मैपिंग प्रिजन मैनुअल्स एंड मेजर्स फॉर रिफार्मेशन एंड डीकंजेशन'. 348 पेज की इस रिपोर्ट का तैयार किया है सुप्रीम कोर्ट के सेंटर फॉर रिसर्च एंड प्लानिंग ने. इस रिपोर्ट में जेल में कैदियों की भीड़ कम करने के कई उपाय बताए गए हैं. 

कैदियों की निगरानी पर कानून

इस रिपोर्ट के पांचवें हिस्से का शीर्षक है 'यूजिंग ऑफ टेक्नोलॉजी फॉर प्रिजन रिफार्म'.इसका पहला हिस्सा है 'इलेक्ट्रानिक ट्रैकिंग ऑफ प्रिजनर' यानी कैदियों की इलेक्ट्रानिक उपकरणों से निगरानी. इसमें कहा गया है कि आज मनुष्य के जीवन का अधिकांश हिस्सा टेक्नोलॉजी से प्रभावित है. यहां तक कि न्याय तंत्र में भी इलेक्ट्रानिक टेक्नोलॉजी का प्रयोग बढ़ रहा है.इसके लिए ईफाइलिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए होने वाली पेशी और सुनवाई  और अदालत की कार्रवाइयों की लाइव स्ट्रिमिंग का उदाहरण दिया गया है. यह रिपोर्ट बताती है कि भारत में पहली बार मॉडल प्रिजन एंड करेक्शनल सर्विसेज एक्ट-2023 की धारा-29 के में कैदियों की निगरानी इलेक्ट्रानिक डिवाइस से करने की बात की गई है. इसमें कहा गया है, ''कैदियों को इलेक्ट्रानिक ट्रैकिंग डिवाइस पहनने की शर्त पर कैदियों को छुट्टी दी जा सकती है. यह कैदियों पर निर्भर है कि वो अपनी आवाजाही और गतिविधियों पर निगरानी रखने के लिए इलेक्ट्रानिक ट्रैकिंग डिवाइस पहनना चाहते हैं या नहीं.इसमें कोई उल्लंघन पाए जाने पर छुट्टी को रद्द किया जा सकता है. और उनको भविष्य में छुट्टी देने पर पाबंदी लगाई जा सकती है.

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हालांकि इस साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जमानत में यह शर्त जोड़ना कि पुलिस उनकी आवाजाही और गतिविधियों की निगरानी करेगी, यह आरोपी के निजता के अधिकार का उल्लंघन होगा.इस रिपोर्ट के अलावा लॉ कमीशन और गृह विभाग की संसद की एक स्थायी समिति ने इस बात पर जोर दिया था कि कैदियों की इलेक्ट्रानिक निगरानी फायदेमंद साबित होगी.

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भारत की जेलों में कितनी कैदी रहते हैं

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत की जेलों की ऑक्यूपेंसी रेट 131.4 फीसदी है. इसका मतलब यह हुआ है भारत की जेलों में क्षमता से 31.4 फीसदी अधिक कैदी रखे गए हैं. दिसंबर 2022 में भारत की जेलों में कुल पांच  लाख 73 हजार 220  कैदी रह रहे थे.इन जेलों की क्षमता केवल चार लाख 36 हजार 266 कैदियों के रहने की है. जेल में रह रहे कैदियों में से 75.8 फीसदी कैदी विचाराधीन कैदी हैं. इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें कोई सजा नहीं सुनाई गई है. रिपोर्ट का कहना है कि कैदियों की इलेक्ट्रानिक निगरानी जेल में से भीड़ कम करने में सहायक होगी. 

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एनसीआरबी के मुताबिक दिसंबर 2022 में भारत की जेलों में कुल पांच लाख 73 हजार 220 कैदी

इस रिपोर्ट में ओडिशा का उदाहरण दिया गया है, जहां सरकार एक विचाराधीन कैदी पर एक साल में करीब एक लाख रुपये खर्च करती है. इसमें कहा गया है कि इससे उलट कैदियों पर निगरानी रखने वाले एक ट्रैकर पर 10-15 हजार रुपये का खर्च आएगा. साल 2023 में गृह मंत्रालय की संसदीय समिति ने एक रिपोर्ट पेश की थी. इसका शीर्षक था 'प्रिजन: कंडीशन, इंफ्रास्ट्रक्चर एंड रिफार्म'. इसमें कैदियों के टखने या हाथ में पहनाए जाने इलेक्ट्रानिक उपकरणों के फायदे बताए गए थे. रिपोर्ट कहती है कि इस प्रकार के ट्रैकर्स के जरिए जमानत पर रिहा हुए कैदियों पर नजर रखने के काम में लगी प्रशासनिक मशीनरी या कर्मचारियों की संख्या कम की जा सकती है.यह जमानत पर रिहा हुए कैदियों पर नजर रखने का कम खर्चीला तरीका हो सकता है.

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कैदियों की निगरानी क्या उनकी निजता का उल्लंघन है

जमानत पर दूसरे तरीकों से रिहा हुए कैदियों की तरह से निगरानी करने में नैतिक पहलू भी शामिल हैं. चिंता इस बात की भी है कि किसी विचाराधीन कैदी के हाथ या टखने में ट्रैकिंग डिवाइस पहनाकर रिहा करने पर जेल से बाहर उसके साथ भेदभाव भी हो सकता है, क्योंकि किसी के शरीर में डिवाइस देखकर लोग समझ सकते हैं कि यह व्यक्ति कैदी और उस पर नजर रखी जा रही है. इसके साथ ही कैदियों के साथ जाति के आधार पर भी भेदभाव हो सकता है, क्योंकि भारत की जेलों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के विचाराधीन कैदियों की संख्या ज्यादा है. एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक भारत की जेलों में रह रहे कैदियों में इन वर्गों के कैदियों की संख्या 68.4 फीसदी है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में इस तरह की निगरानी को निजता के अधिकार का उल्लंघन माना है.

कैदियों की निगरानी पर अदालतों का रवैया कैसा है

हालांकि अदालतों का रवैया इस तरह की निगरानी को लेकर सकारात्मक नहीं रहा है. इस साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अभय एस ओक और उज्जवल भुइयां के एक खंडपीठ ने दिल्ली हाई कोर्ट के एक फैसले को पटल दिया था. दिल्ली हाईकोर्ट ने एनडीपीएस एक्ट में बंद दो विदेशियों को जमानत दी थी. जमानत देते हुए अदालत ने शर्त लगाई थी कि वो गूगल मैप एक पिन ड्राप करें जिससे जांच एजेंसी की इस बात की जानकारी रहे कि वो अमुक समय कहां पर हैं. जमानत से इस शर्त को हटाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह शर्त अनुच्छेद- 21 के तहत मिले निजता के अधिकार का हनन होगा.अदालत ने कहा था कि बेल पर रिहा हुए आरोपियों के निजी जीवन में ताक-झांक करने की आजादी जांच एजेंसियों को नहीं दी जा सकती है.वहीं संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि जमानत पर रिहा हुए कैदी की इलेक्ट्रानिक उपकरणों से निगरानी उसकी इच्छा पर निर्भर होनी चाहिए. 

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