हिरासत में लड़की से रेप में बरी हुए पुलिसवाले, वो केस जिसे CJI गवई ने 47 साल बाद बताया 'शर्म'

1972 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में हिरासत में एक लड़की का रेप हुआ था. आरोप पुलिस वालों पर लगा. लेकिन 6 साल बाद सुप्रीम कोर्ट से दोनों अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. अब इस फैसले के 47 साल बाद सीजेआई बीआर गवई ने इसे संस्थागत शर्मिंदगी का क्षण बताया है.

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सीजेआई बीआर गवई ने रेप केस के 47 साल पुराने फैसले को शर्म बताया है.
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  • सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने 1978 के मथुरा रेप केस के फैसले को संस्थागत शर्मिंदगी बताया है.
  • मथुरा रेप केस में दो पुलिसकर्मियों पर हिरासत में रेप का आरोप लगा था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया था.
  • सुप्रीम कोर्ट ने अभियुक्तों की बरी करने का कारण पीड़िता की सहमति न होने के प्रमाण की कमी बताया था.
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सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई (BR Gavai) ने 47 साल पहले एक रेप केस में दिए कोर्ट के फैसले को शर्मिंदगी का क्षण बताया है. साल 1979 में रेप केस में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को CJI ने संस्थागत शर्मिंदगी का क्षण बताया है. उन्होंने स्वीकार किया कि इस मामले में कोर्ट ने अपने फैसले से नागरिकों को निराश किया. CJI बीआर गवई ने 30वें सुनंदा भंडारे मेमोरियल लेक्चर में उक्त बातें कही. सीजेआई गवई के इस बयान से 47 साल पहले रेप केस में आए फैसले की चर्चा फिर शुरू हो गई है. आखिर वो क्या मामला था, जिस पर कोर्ट के फैसले को सीजेआई ने शर्म बताया है. आइए जानते है पूरी कहानी.

दिल्ली की निर्भया रेप जैसी ही चर्चित है मथुरा रेप केस

यह कहानी है कि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की. जहां 1972 में 14 से 16 साल की एक अनुसूचित जनजाति की लड़की के साथ हिरासत में रेप हुआ था. रेप का आरोप दो पुलिस वालों पर लगा था. दिल्ली की निर्भया रेप केस की तरह ही मथुरा रेप केस के रूप में यह केस काफी चर्चित हुआ था. 26 मार्च 1972 को गढ़चिरौली में दो पुलिसकर्मियों द्वारा कथित रूप से गिरफ़्तारी की स्थिति में यौन संबंध बनाने का आरोप लगा था.

निचली अदालत से बरी, हाई कोर्ट ने फैसला पलटा, सुप्रीम कोर्ट ने किया बरी

प्रारंभिक जमानत सुनवाई में सत्र न्यायालय ने अभियुक्तों को बरी कर दिया, क्योंकि उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि पीड़िता की सहमति से यह सब हुआ. इसके बाद उच्च न्यायालय ने बरी करने के निर्णय को उलटते हुए अभियुक्तों को दोषी ठहराया. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 15 सितंबर 1978 (Reported 1979) को अभियुक्तों को बरी करने का आदेश दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस आदेश के पीछे मुख्य कारण दिए

  • अभियुक्तों ने “डबल प्रूफ” (व्यक्ति ने उठने-चिल्लाने आदि) न किया; चोट के निशान नहीं पाए गए.
  • “सहमति नहीं थी” साबित करने के लिए डर-धमकी (नहीं पाया गया था, जो कि उस समय के कानून के तहत सहमति न मानने का एक आधार था.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खूब आलोचना हुई थी

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की खूब आलोचना हुई. देश में कई जगह विरोध-प्रदर्शन भी हुए. विरोध कर रहे लोगों का मानना था कि सुप्रीम कोर्ट ने मामले को ठीक से नहीं समझा. लड़की की उम्र, सामाजिक-मनोवैज्ञानिक स्थिति, पुलिस की शक्ति-स्थिति आदि पर पर्याप्त विचार नहीं हुआ. इस तरह इसे महिलाओं के खिलाफ़ यौन हिंसा के मामलों में कानून और न्यायिक दृष्टिकोण को असंवेदनशील मानने की दृष्टि से देखा गया.

इस फैसले के कारण ही रेप केस में हुआ सुधार

बाद में इस फैसले और उसके बाद बनी सामाजिक प्रतिक्रिया के चलते 1983 में Criminal Law (Second Amendment) Act, 1983 आई, जिसने बलात्कार-कानून (section 375 इत्यादि) में सुधार किया.

  • सहमति (consent) के मामले में “माना जाएगा कि बिना सहमति हुई है” जैसी अनुमान लगाने योग्य धाराएँ.
  • पुलिस कस्टडी में बलात्कार को विशेष रूप से अपराध माना जाना शुरू हुआ.
  • पीड़िता की पिछली यौन इतिहास को स्वतः दोष का आधार नहीं माना जाना.

मथुरा केसः महिलाओं के अधिकार आंदोलन का बड़ा मोड़

यह मामला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने भारतीय न्याय व्यवस्था में यह सवाल उठाया कि सहमति क्या है, और बलात्कार के मामले में पीड़िता की आवाज़-स्थिति, सामाजिक-संसारिक शक्ति और अपराधियों की स्थिति को कैसे देखा जाना चाहिए? इसे महिलाओं के अधिकार आंदोलन में एक मोड़ माना जाता है. जहां से “न्याय व्यवस्था में सुधार की मांग” को बल मिला.

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  • इस केस के बाद 80 के दशक में महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन हिंसा के विरोध में देशव्यापी आंदोलन हुए.
  • इन आंदोलनों के चलते ही 1983 में भारतीय दंड संहिता में बदलाव कर बलात्कार की धारा 376 में चार उपधाराएं ए, बी, सी और डी जोड़कर हिरासत में बलात्कार के लिए सज़ा का प्रावधान किया गया.
  • बंद कमरे में अदालती सुनवाई की व्यवस्था हुई. 

सीजेआई ने मथुरा रेप केस में दिए फैसले को क्यों बताया शर्म?

मथुरा रेप केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए 1978 में दिए गए फैसले को सीजेआई ने 47 साल बाद शर्म बताया है. सीजेआई ने यह भी कहा कि ये लोगों की सतर्कता और साहस है कि उन्होंने कोर्ट को इस पर सालों तक जवाबदेह बनाए रखा. दरअसल 30वें सुनंदा भंडारे मेमोरियल लेक्चर में सीजेआई जेंडर इक्वेलिटी और समावेशी भारत के निर्माण में कानून के विकास पर अपने विचार रख रहे थे.


अपने उद्देश्य में विफल रहा अदालतः सीजेआई

सीजेआई बी आर गवई ने कहा, 'मेरे ख्याल में यह फैसला भारत के संस्थागत और न्यायिक इतिहास का सबसे ज्यादा परेशान करने वाला क्षण है, जहां ज्यूडिशियल सिस्टम उसी की गरिमा की रक्षा नहीं कर सका, जिसकी रक्षा करना उसका उद्देश्य था. ये फैसला देश के लिए टर्निंग पॉइंट भी था, जिसकी वजह से देशभर में हुए जनता और महिला संगठनों के समूहों ने मॉडर्न इंडियन वूमेन के राइट्स के लिए आंदोलन को प्रज्वलित किया.'

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सीजेआई गवई ने कहा कि इस फैसले ने क्रिमिनल लॉ की कमियों को उजागर किया और इनमें संशोधन की जरूरत को उत्प्रेरित किया. इस फैसले ने सहमति की अवधारणा को फिर से परिभाषित किया और कस्टोडियल रेप में कानूनी सुरक्षा को मजबूत किया.

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