CJI गवई ने की कॉलेजियम सिस्टम की वकालत, कोई समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं

एक कड़े बयान में CJI गवई ने जोर देकर कहा है कि कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना हो सकती है, लेकिन कोई भी समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आना चाहिए. जजों को बाहरी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए.

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एक और जस्टिस यशवंत वर्मा के घर कैश मिलने की घटना के बाद जजों की नियुक्ति करने के ऐसे समय में कॉलेजियम सिस्टम पर फिर से आवाज उठने लगी है, दिल्ली से कोसों दूर यूके में भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने कॉलेजियम सिस्टम की वकालत की है और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर कड़ी टिप्पणी की है. एक कड़े बयान में CJI गवई ने जोर देकर कहा है कि कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना हो सकती है, लेकिन कोई भी समाधान न्यायिक स्वतंत्रता की कीमत पर नहीं आना चाहिए. जजों को बाहरी नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए.

यूनाइटेड किंगडम के सुप्रीम कोर्ट में 'न्यायिक वैधता और सार्वजनिक विश्वास बनाए रखने' पर एक गोलमेज सम्मेलन में बोलते हुए CJI गवई ने कहा कि भारत में विवाद का एक प्रमुख मुद्दा यह सवाल रहा है कि न्यायिक नियुक्तियों में प्राथमिकता किसकी है. उन्होंने कहा कि 1993 तक सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति में अंतिम निर्णय कार्यपालिका का होता था. इस अवधि के दौरान कार्यपालिका ने दो बार भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठतम जजों की अनदेखी की, जो स्थापित परंपरा के विरुद्ध था.

उन्होंने कहा कि इसके जवाब में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 1993 और 1998 के अपने फैसलों में जजों की नियुक्ति से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या की, ताकि यह स्थापित किया जा सके कि भारत के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट में नियुक्तियों की सिफारिश करने के लिए जिम्मेदार एक कॉलेजियम का गठन करेंगे.

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अदालत की व्याख्या के तहत यह कॉलेजियम अपनी सिफारिशें करने में सर्वसम्मति से काम करेगा और इस निकाय की राय अंतिम होगी, जिससे न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित होगी.

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CJI गवई ने कहा कि इस प्रणाली का उद्देश्य कार्यकारी हस्तक्षेप को कम करना और अपनी नियुक्तियों में न्यायपालिका की स्वायत्तता को बनाए रखना है. वहीं जस्टिस वर्मा प्रकरण का हवाला दिए बिना CJI गवई ने  कहा कि भ्रष्टाचार और कदाचार की घटनाएं न्यायपालिका में जनता के विश्वास को खत्म कर सकती हैं.

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उन्होंने कहा कि भारतीय न्यायपालिका में ऐसे मामले सामने आए हैं और व्यवस्था में विश्वास को फिर से बनाने का रास्ता त्वरित, निर्णायक और पारदर्शी कार्रवाई में निहित है. 

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भारत में जब भी ऐसे मामले सामने आए हैं, सुप्रीम कोर्ट ने कदाचार को दूर करने के लिए लगातार तत्काल और उचित कदम उठाए हैं. यह टिप्पणी उन रिपोर्टों की पृष्ठभूमि में आई है,  उन्होंने जजों द्वारा सेवानिवृत्ति के बाद सरकार के साथ नौकरी करने या चुनाव लड़ने के लिए अपने पदों से इस्तीफा देने के खिलाफ भी बात की.

उन्होंने कहा, किसी जज द्वारा राजनीतिक पद के लिए चुनाव लड़ने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर संदेह हो सकता है, क्योंकि इसे हितों के टकराव या सरकार का पक्ष लेने के प्रयास के रूप में देखा जा सकता है.

सेवानिवृत्ति के बाद की ऐसी व्यस्तताओं का समय और प्रकृति न्यायपालिका की ईमानदारी में जनता के विश्वास को कम कर सकती है, क्योंकि इससे यह धारणा बन सकती है कि न्यायिक निर्णय भविष्य की सरकारी नियुक्तियों या राजनीतिक भागीदारी की संभावना से प्रभावित थे इसलिए न्यायपालिका की विश्वसनीयता और स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए उन्होंने और उनके कई सहयोगियों ने सरकार से सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी भूमिका या पद स्वीकार नहीं करने का संकल्प लिया है.

उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को इसलिए रद्द कर दिया था क्योंकि इस कानून ने न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्राथमिकता देकर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करने का प्रयास किया था. डॉ. बीआर अंबेडकर के शब्दों का हवाला देते हुए - "हमारी न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिए और साथ ही अपने आप में सक्षम भी होना चाहिए", CJI ने कहा कि संवैधानिक न्यायालयों का वेतन भारत के समेकित कोष से प्राप्त होता है, जो न्यायाधीशों को कार्यपालिका से स्वतंत्र बनाता है. 1973 के केशवानंद भारती फैसले का जिक्र करते हुए, जिसमें 13 न्यायाधीशों की पीठ ने सात से छह के बहुमत से मूल संरचना सिद्धांत को प्रतिपादित किया था, CJI गवई ने कहा कि इस फैसले ने एक महत्वपूर्ण न्यायिक मिसाल कायम की, जिसमें पुष्टि की गई कि लोकतंत्र, कानून का शासन और शक्तियों का पृथक्करण जैसे कुछ मौलिक सिद्धांत अपरिवर्तनीय हैं और उन्हें बदला नहीं जा सकता है.

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