"चार साल की कमाई को बच्‍चों ने सूद सहित लौटाया" : विदाई पर भावुक नजर आए टीचर ने NDTV से की बात

बातचीत के दौरान शिवेंद्र ने कहा,"जब बच्‍चे मुझसे लिपटकर रो रहे थे तब उनको संभालते हुए मैं खुद को संयत रखे हुए थे लेकिन जब 'आप यह वीडियो दिखा रहे थे तो मैं ज्‍यादा इमोशनल हो गया था."

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नई दिल्‍ली:

शिक्षक का विद्यार्थियों के जीवन में संवारने में अहम योगदान होता है. यूपी की चंदौली जनपद का एक वीडियो इस समय सोशल मीडिया पर वायरल है जिसमें एक सरकारी स्‍कूल के एक प्राइमरी टीचर का स्‍थानांतरण होने पर बच्‍चे उनसे लिपटकर फूट-फूटकर रो रहे हैं. दरअसल, इन टीचर ने इन बच्‍चों को प्‍यार के साथ इतना कुछ सिखाया है कि बच्‍चे उनके उन्‍हें छोड़कर जाने की कल्‍पना मात्र से ही आंसू नहीं संभाल पाए. एनडीटीवी ने इन शिक्षक  शिवेंद्र सिंह से बातचीत की. बातचीत के दौरान शिवेंद्र ने कहा,"जब बच्‍चे मुझसे लिपटकर रो रहे थे तब उनको संभालते हुए मैं खुद को संयत रखे हुए थे लेकिन जब 'आप यह वीडियो दिखा रहे थे तो मैं ज्‍यादा इमोशनल हो गया था. मैंने पहली बार अपने को 'रोक' लिया था. मुझे लगा था कि इन लोगों को चुप कराने वाला कोई नहीं होगा. बच्‍चों तो रो ही रहे थे, इस दौरान गांव के कई लोग रो रहे थे. बच्‍चे जब मुझसे लिपटे थे तो यकीन मानिए मेरा दिल रो रहा था. बस आंसू नहीं थे." 

शिवेंद्र ने कहा, " मैंने चार साल में भरपूर कोशिश की कि उन्‍हें कुछ सिखा पाऊं. जिस जगह पर था वहां बहुत पिछड़ापन था. ऐसा पिछड़ापन कि एक तरह नहर है, एक तरफ पहाड़ी है और बीच में टूटी सड़क. मुझे लगता है कि बच्‍चों का दिल जीतना मेरी सबसे बड़ी कमाई है. चार साल की कमाई को उन्‍होंने सूद सहित लौटाया है. मैं अपना आंगन भर रहा हूं वह भी नहीं भर पा रहा." बच्‍चों का दिल में जगह बनाने के अपने अनुभव को शेयर करते हुए उन्‍होंने कहा, "मैं  जब गया था तब बच्‍चे स्‍कूल नहीं आ रहे थे. उनका नामांकन था लेकिन वे स्‍कूल नहीं आ रहे थे. ऐसे में मुझे मुझे लगा कि बच्‍चों को सकूल लाना चाहिए. मैंने स्थिति देखी हुई है. सरकारी स्‍कूलों की स्थिति कभी बहुत अच्‍छी नहीं दिखाई दी है." शिवेंद्र कहते हैं, "मुझे लगा कि अगर में सरकारी टीचर हूं तो मुझे इस पर गर्व होना चाहिए. इसे आगे बढ़ाने के लिए मैंने सोचा कि ऐसा करें कि कोई और न कर पाए. सुबह हम बच्‍चों को उनके घर से लेकर स्‍कूल आते थे. इस दौरान बहुत से बच्‍चे ऐसे थे जो सो रहे होता थे या फिर खेलने में मस्‍त रहते थे. मैं बनारस में रहता था. एकतरफ 50 किमी का सफर कर पहुंचता पहुंचता था और दो घंटे में गांव तक पहुंचने का सफर पूरा करता था.

उन्‍होंने बताया,  हम बच्‍चों को लेकर आते थे, ब्रश कराते थे. अगर वे नहाए नहीं हों तो नहलाते थे. तैयार करते थे और फिर  प्रेयर कराते थे. हमारी प्रेयर कभी आधे पैन घंटे में खत्‍म नहीं हुई इसमें दो से ढाई घंटे का वक्‍त लगता था. हमें लगता था कि प्रेयर में वह सब चीज सिखा सकते हैं जब सब एक साथ हों. हमने बच्‍चों को बेसिक अनुभव दिया. हमने प्रेयर के दौरान ही अक्षर ध्‍यान, शब्‍द ज्ञान, पहाड़े आदि की जानकारी देने की कोशिश की. मुझे लगता है कि हम इसमें सफल रहे. प्राइमरी में हमें सारे सब्‍जेक्‍टर पढ़ाने होते हैं, हमने अपनी ओर से उन्‍हें अधिक से अधिक जानकारी देने की कोशिश की. पढ़ाने के दौरान मेरा टारगेट यह होता था कि बच्‍चे पेंसिल और बुक साथ लेकर बैठें  ताकि वे जल्दी सीख सके. कोई भी चेप्‍टर/टॉपिक को कंप्‍लीट करने के बाद मैं बच्‍चों से इस बारे में 'सर्च 'करने को बोलता था और खुद धीरे सर्च करता था ताकि बच्‍चे  को इसकी खुशी महसूस हो." गांव के बारे में शिवेंद्र ने बताया कि यह ऐसा गांव था जहां आपको केवल प्रकृति दिखाई देती था जब वहां गया तो ने मोबाइल नेटवर्क भी नहीं था. अब नेटवर्क वहां आ गया है. पढ़ाने के अपने फंडे के बारे में उन्‍न्‍होंने कहा, "बच्‍चों के साथ बच्‍चा बनकर रहना पड़ेगा. बच्‍चे जो बात कई बार मां-बाप के साथ शेयर नहीं करते, वह टीचर के साथ कर लेते हैं. मैं बच्‍चों के साथ बच्‍चों के माता पिता का विश्‍वास भी जीतने में सफल रहे. जब पेरेंट्स को लगा कि बच्‍चा अच्‍छा कर रहा तो उनका हम पर विश्‍वास बढ़ गया."  

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