महागठबंधन के लिए कितनी बड़ी चुनौती है AIMIM

बिहार चुनाव में महागठबंधन की ओर से किसी मुस्लिम को उपमुख्यमंत्री पद का चेहरा न बनाने को मुद्दा क्यों बना रहे हैं एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी और इससे बेफिक्र क्यों हैं तेजस्वी याद, बता रहे हैं अजीत कुमार झा.

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  • बिहार में मुसलमान आबादी करीब 18 फीसद है, लेकिन महागठबंधन ने उपमुख्यमंत्री के लिए मुस्लिम चेहरा नहीं चुना है.
  • AIMIM ने सीमांचल और मिथिलांचल में 30 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतारकर अपनी राजनीतिक उपस्थिति मजबूत की है.
  • महागठबंधन ने मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाया है, जो नौ फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं.
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नई दिल्ली:

बिहार की राजनीति एक रंगीन तस्वीर की तरह है, जहां पवित्र गंगा और उसकी कई सहायक नदियां सदियों से संघर्ष और नवजीवन की कहानी सुनाती आ रही हैं. यहां वोटों की लोकतांत्रिक राजनीति ने अलग-अलग जातियों और समुदायों के बीच गहरी हलचल पैदा की है, जैसे गंगा के तट पर बार-बार आने वाली लहरें और बाढ़ें बदलाव लाती हैं. इसी माहौल में 'प्रतिनिधित्व' यानी कौन किसकी आवाज बनेगा, यह सवाल अब और भी अहम हो गया है.

हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) इस राजनीतिक कहानी में एक नई और चुनौतीपूर्ण आवाज के रूप में उभर रही है. उन्होंने सवाल उठाया है कि महागठबंधन ने अब तक किसी मुस्लिम का नाम उपमुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आगे क्यों नहीं किया है, जबकि बिहार में मुसलमानों की आबादी करीब 18 फीसदी है. इतने बड़े समुदाय का प्रतिनिधि इतने अहम पद पर न होना एक बड़ी विडंबना है. यह सवाल राज्य की सामाजिक और राजनीतिक चर्चा में गूंज रहा है.

बिहार में एआईएमआईएम की राजनीति

एआईएमआईएम ने इस बार 32 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. इनमें से अधिकांश सीटें सीमांचल और मिथिलांचल के इलाकों में हैं. इन इलाकों में मुस्लिम आबादी अधिक है और सांस्कृतिक विविधता भी बहुत है. ये इलाके ओवैसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए उपजाऊ जमीन माने जा रहे हैं. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में सीमांचल की पांच सीटें जीतकर एआईएमआईएम ने अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज कराई थी. यही वजह है कि अब उसकी बढ़ती मौजदूगी को राजद, कांग्रेस, वामदलों और वीआईपी का महागठबंधन नजरअंदाज नहीं कर सकता है.

महागठबंधन ने मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया है. वो निषाद-मल्लाह-सहनी समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनकी बिहार में आबादी करीब नौ फीसदी बताई जाती है. महागठबंधन का यह कदम कई गंभीर सवाल खड़े करता है. आखिर बिहार जैसे राज्य में, जहां मुसलमान आबादी का बड़ा हिस्सा हैं, वहां सबको साथ लेकर चलने की बात करने वाला महागठबंधन मुस्लिम समुदाय को इतने अहम पद से दूर क्यों रख रहा है?

बिहार में एक चुनावी जनसभा को संबोधित करते एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी.

महागठबंधन के लिए यह स्थिति कुछ हद तक विडंबनापूर्ण है, एक ऐसा गठबंधन जो खुद को अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधि कहता है, उसने एक ऐसे समुदाय से नेता चुना जो संख्या में अपेक्षाकृत छोटा है. इससे बिहार की पहले से ही गर्म राजनीतिक हवा और गर्म हो गई है.

मुस्लिम वोटों को बांटने की रणनीति या तेजस्वी पर दबाव?

इस मुद्दे को उठाकर एआईएमआईएम सिर्फ नाराजगी जताने वाली पार्टी नहीं लगती है, बल्कि यह एक सोची-समझी राजनीतिक चाल भी दिखती है. सवाल यह है, क्या ओवैसी की पार्टी मुस्लिमों में अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रही है? क्या यह 18 फीसदी मुस्लिम वोटों की एकता को तोड़कर महागठबंधन को कुछ नुकसान पहुंचाने की रणनीति है? कई राजनीतिक विश्लेषक इसे एक राजनीतिक अवसरवाद की तरह भी देखते हैं, जहां एआईएमआईएम उस असंतोष का फायदा उठाना चाहती है, जो मुस्लिम समुदाय के भीतर इस एहसास से पैदा हुआ है कि उन्हें 'धर्मनिरपेक्षता' का दावा करने वाले गठबंधन में भी बराबर की हिस्सेदारी नहीं मिली.

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वहीं दूसरी ओर ओवैसी की आलोचना को एक रणनीतिक दबाव की राजनीति के रूप में भी देखा जा सकता है. उनकी यह कोशिश है कि महागठबंधन को अपने प्रतिनिधित्व के दावों पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर किया जाए. उपमुख्यमंत्री पद पर मुस्लिम चेहरे के अभाव को उजागर कर एआईएमआईएम, महागठबंधन के समावेशी राजनीति के दावे को चुनौती दे रही है. वह यह याद दिलाना चाहती है कि मुस्लिम समुदाय, जिसने हमेशा से कांग्रेस और राजद जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का साथ दिया, आज खुद को हाशिए पर पा रहा है. 

क्यों बेफिक्र हैं तेजस्वी यादव

बिहार की राजनीति की उथल-पुथल भरी दुनिया में, जहां गंगा की धाराओं की तरह राजनीतिक समीकरण हर मौसम के साथ बदलते रहते हैं, वहां तेजस्वी यादव ओवैसी की एआईएमआईएम की बढ़ती मौजूदगी से बेपरवाह नजर आते हैं. एआईएमआईएम ने भले ही उत्तर बिहार की 32 सीटों, खासकर सीमांचल और मिथिलांचल में अपनी नजरें टिका रखी हैं, लेकिन तेजस्वी की यह शांत मुद्रा बताती है कि उन्हें राज्य की राजनीतिक जमीन और मतदाताओं के व्यवहार की गहराई से समझ है. उन्होंने पिछले चुनाव के अनुभवों से यह सीखा है कि सिर्फ जाति या समुदाय नहीं, बल्कि भरोसे और संगठन की राजनीति ही लंबे समय तक टिकती है.

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चुनाव प्रचार के लिए जाते महागठबंधन के सीएम फेस तेजस्वी यादव और डिप्टी सीएम फेस मुकेश सहनी.

तेजस्वी यादव के इस बेफिक्र रवैये को समझने के लिए पहले हमें एआईएमआईएम की पिछली सफलता का संदर्भ लेना होगा. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने जिन 20 सीटों पर चुनाव लड़ा, उसने उनमें से पांच सीटें जीती थीं. एआईएमआईएम की इस जीत ने सबको चौंका दिया था. यह जीत किसी भी नई पार्टी के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है, लेकिन राजनीति का एक दिलचस्प मोड़ यह था कि इन पांच में से चार विधायक चुनाव के बाद राजद में शामिल हो गए.

यह घटना दिखाती है कि बिहार की राजनीति में निष्ठा और वफादारी अक्सर लचीली होती है. यह एआईएमआईएम की सबसे बड़ी कमजोरी भी बन गई, वह अपनी जीत को लंबे समय तक बरकरार नहीं रख सकी. तेजस्वी यादव शायद इस सच्चाई को समझते हैं, इसलिए एआईएमआईएम की चुनौती से उन्हें उतनी चिंता नहीं होती है. 

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सीमांचल की राजनीति 

एआईएमआईएम को जिन पांच सीटों पर जीत मिली थी, वो सभी सीमांचल के इलाके में हैं. वहां मुस्लिम आबादी 60 फीसदी से अधिक है. इन इलाकों में चुनाव अक्सर मुस्लिम बनाम गैर-मुस्लिम उम्मीदवारों के बीच सीधी टक्कर में बदल जाते हैं. यहां एआईएमआईएम ने इस ध्रुवीकरण का फायदा उठाया. यहां कई सीटों पर बीजेपी दूसरे नंबर पर रही. इससे एक अहम बात सामने आती है: एआईएमआईएम की जीत राजद या महागठबंधन के खिलाफ सीधी चुनौती नहीं थीं, बल्कि स्थानीय परिस्थितियों का नतीजा थीं, जहां मुस्लिम मतदाता उस पार्टी के पीछे खड़े हुए, जो उन्हें अपने हितों की असली आवाज लग रही थी. यही वजह है कि तेजस्वी यादव एआईएमआईएम को लेकर चिंतित नहीं दिखते हैं. वे जानते हैं कि उसकी ताकत कुछ खास इलाकों तक सीमित है. उनको लगता है कि एआईएमआईएम बिहार की राजनीति में अभी स्थायी खतरा नहीं बन पाई है.

पिछले तीन चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से उतारे गए मुस्लिम उम्मीदवार.

हैरी ब्लेयर के सिद्धांत से समझिए एआईएमआईएम की चुनौती

तेजस्वी यादव की राजनीतिक समझ को अगर गहराई से देखें, तो यह अमेरिकी चुनाव विश्लेषक हैरी ब्लेयर के उस मशहूर अध्ययन से मेल खाती है, जिसका शीर्षक था 'Minority Electoral Politics in a North Indian State: Aggregate Data Analysis and the Muslim Community in Bihar.' ब्लेयर ने अपने शोध में यह बताया था कि अल्पसंख्यक (मुस्लिम) वोटिंग व्यवहार इलाके की जनसंख्या संरचना पर काफी निर्भर करता है.उनका कहना था, ''जहां मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक होती है, वहां मतदाता आम तौर पर मुस्लिम उम्मीदवारों या पार्टियों को वोट देते हैं. लेकिन जहां मुस्लिम आबादी कम होती है, वहां उनका रुझान धर्मनिरपेक्ष दलों या हिंदू नेताओं वाले गठबंधनों की ओर झुक जाता है.''

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यह सिद्धांत आज के बिहार की राजनीति में भी साफ दिखता है. एआईएमआईएम का प्रभाव उन्हीं इलाकों तक सीमित है, जहां मुस्लिम मतदाता बहुसंख्यक हैं, जैसे सीमांचल. वहीं जोकिहाट जैसी सीटों पर, जहां राजद दूसरे स्थान पर रही, वहां का चुनावी गणित महागठबंधन के पक्ष में था. इससे यह साफ होता है कि एआईएमआईएम की पहुंच सीमित और स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर है.

बिहार विधानसभा के चुनाव में एआईएमआईएम ने इस बार 30 से अधिक सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं.

तेजस्वी यादव की रणनीतिक शांति

तेजस्वी यादव एआईएमआईएम की चुनौती को साफ रणनीतिक नजरिए से देखते हैं. राजद की मुस्लिम मतदाताओं से ऐतिहासिक नजदीकी, और महागठबंधन की व्यापक सामाजिक संरचना, उन्हें एक मजबूत आधार देती है, इसे एआईएमआईएम जैसी पार्टी आसानी से नहीं हिला सकती. एआईएमआईएम की मौजूदगी भले ही कुछ क्षेत्रों में असरदार हो, लेकिन यह महागठबंधन के लिए अस्तित्व का संकट नहीं है. बल्कि यह एक राजनीतिक संकेत है कि बिहार की राजनीति में बदलते समीकरणों के बीच लचीलापन और जागरूकता बनाए रखना जरूरी है.

बिहार की राजनीति कभी भी पूरी तरह साफ या सीधी नहीं रही है. यहां के चुनावी मैदान में कई तरह के आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं. महागठबंधन के नेताओं का आरोप है कि एआईएमआईएम, बीजेपी की 'बी-टीम' की तरह काम कर रही है. उनका तर्क है कि एआईएमआईएम की राजनीति से हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण बढ़ता है. इससे बीजेपी और एआईएमआईएम दोनों को फायदा पहुंचाता है.

सीमांचल की जिन पांच सीटों पर एआईएमआईएम जीती थी, वहां मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक है और हिंदू अल्पसंख्यक, बिल्कुल कश्मीर घाटी जैसी स्थिति है. महागठबंधन का कहना है कि जब एआईएमआईएम इन इलाकों में मुसलमानों के बीच अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश करती है, तो इससे मुस्लिम वोट बिखर जाते हैं. इसका फायदा बीजेपी को होता है, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष वोट कमजोर पड़ जाते हैं.

एआईएमआईएम की मौजूदगी का असली असर

एआईएमआईएम का दावा है कि वह मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की लड़ाई लड़ रही है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि उसका यह कदम राज्य में ध्रुवीकरण को और बढ़ा रहा है. इससे बिहार की धर्मनिरपेक्ष राजनीति की बुनियाद कमजोर हो सकती है. यही बात सबसे ज्यादा चिंता पैदा करती है. जैसे-जैसे 2025 के चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, एआईएमआईएम की ओर से उठाए गए सवाल बिहार की राजनीति में गंगा की लहरों की तरह फैल रहे हैं. पहले जहां राजनीति 'घुसपैठ' जैसे मुद्दों पर केंद्रित थी, अब ध्यान अल्पसंख्यकों के कम प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी पर है. यह एक बड़ा विरोधाभास है, जहां एक बड़ा समुदाय, अपनी आबादी के बावजूद, सत्ता में खुद को हाशिए पर महसूस करता है. अब सवाल यह है कि एआईएमआईएम सच में मुसलमानों को सशक्त बनाना चाहती है या महागठबंधन पर दबाव डालना या फिर बीजेपी की अप्रत्यक्ष तौर पर मदद कर रही है.

बिहार की यह भूमि, जहां संस्कृति, संघर्ष और विविधता एक साथ बहते हैं, अब एक नई राजनीतिक दिशा तय करने के मोड़ पर है. आने वाले चुनाव यह तय करेंगे कि क्या बिहार की सभी आवाजें सत्ता तक पहुंच पाएंगी, या फिर वे राजनीतिक महत्वाकांक्षा और सांप्रदायिक खींचतान की धार में बह जाएंगी.

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