सीईसी, ईसी की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर सुप्रीम कोर्ट के सवालों के जवाब केंद्र ने दिए हैं. सुप्रीम कोर्ट के आरोप पर कि 2007 के बाद से सभी सीईसी का कार्यकाल " छोटा" किया गया, अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि हर बार नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर की जाती है. एक मामले को छोड़कर हमें चुनाव आयोग में व्यक्ति के पूरे कार्यकाल को देखने की जरूरत है न कि सिर्फ सीईसी के रूप में. 2-3 अलग-अलग उदाहरणों को छोड़कर पूरे बोर्ड में वह कार्यकाल 5 साल का रहा है. इसलिए मुद्दा यह है कि कार्यकाल की सुरक्षा को लेकर कोई समस्या नहीं है.
कोर्ट ने पूछा कि क्या ईसी के रूप में नियुक्ति स्तर के लिए कोई तंत्र है और क्या सीईसी के रूप में नियुक्ति के लिए कोई प्रक्रिया है. इसपर अटॉर्नी जनरल ने कहा यह परंपरा के आधार पर किया जाता है. सीईसी की कोई अलग नियुक्ति प्रक्रिया नहीं है. ईसी के रूप में नियुक्ति होती है और फिर वरिष्ठता के आधार पर सीईसी नियुक्त किया जाता है.
संविधान पीठ की अगुवाई कर रहे जस्टिस केएम जोसफ ने फिर नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए कहा कोई भी सरकार अपने किसी हां जी, हां जी करने वाले या उन जैसे अधिकारी को ही निर्वाचन आयुक्त बनाना चाहती है. सरकार को मनचाहा मिल जाता है और अधिकारी को भविष्य की सुरक्षा. ये सब दोनों पक्षों को सही लगता है लेकिन ऐसे में बड़ा सवाल है कि गुणवत्ता का क्या होगा जिस पर गंभीर असर पड़ रहा है? उनकी कार्रवाई की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं. इस पद के साथ स्वायत्ता भी जुड़ी होती है.
अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा, 1991 के बाद से हमने निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में हमें कोई खामी नहीं मिली. जहां तक सूचना आयुक्त की नियुक्ति की बात है तो उसमें अंजली भारद्वाज की याचिका पर सुनवाई के दौरान खामियां पाई गई थीं. कोर्ट ने सूचना आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए गाइड लाइन बनाई थी. क्योंकि तब सूचना आयुक्तों के खाली पदों और लंबित अर्जियों का मामला भी था. लेकिन चुनाव आयोग में ऐसा कुछ भी नहीं है. छोटे कार्यकाल को लेकर भी सरकार क्या कर सकती है क्योंकि 65 साल की उम्र तक ही इस पद पर बना रहा जा सकता है. सरकार ने इसमें कोई छेड़छाड़ नहीं की है. निर्वाचन आयुक्त नियुक्त होते हैं, फिर उनमें वरिष्ठता के आधार पर ही मुख्य आयुक्त बनाए जाते हैं.
जस्टिस जोसफ ने पूछा कि जब आप किसी को निर्वाचन आयुक्त बनाते हैं तभी सरकार को पता रहता है कि कौन कब और कब तक सीईसी बनेगा. जस्टिस अजय रस्तोगी ने भी टिप्पणी की कि सरकार ही तो निर्वाचन आयुक्त नियुक्त करती है, वही तो मुख्य आयुक्त बनते हैं. ऐसे में ये कैसे कह सकते हैं कि वह सरकार से स्वायत्त हैं.क्योंकि नियुक्ति की प्रक्रिया स्वायत्तता वाली नहीं है. एंट्री लेवल से ही स्वतंत्र प्रक्रिया होनी चाहिए.
अटॉर्नी जनरल ने कहा संविधान में मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सीधी नियुक्ति की कोई अवधारणा या प्रावधान नहीं है. इस पर जस्टिस केएम जोसफ ने कहा कि फिर तो हमें देखना होगा कि आयुक्तों की नियुक्ति कैसे हो क्योंकि उन्हीं में से तो सीईसी बनते हैं. अटॉर्नी जनरल ने पाकिस्तान, अल्बानिया सहित कई देशों के प्रावधान का जिक्र किया, जिसपर जस्टिस जोसफ ने कहा कि ये हमारा देश है, हमारा कानून और हमारी प्रक्रिया है. आपको बताना होगा कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में आप सुप्रीम कोर्ट के जजों को शामिल करना चाहते हैं या नहीं लेकिन नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी और आदर्श होनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने निर्वाचन आयोग पर सवाल उठाते हुए एक उदाहरण के साथ सरकार से पूछा कि क्या कभी किसी पीएम पर आरोप लगे तो क्या आयोग ने उनके खिलाफ एक्शन लिया है? पीठ ने सरकार से कहा कि आप हमें निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया हमें समझाएं. हाल ही में आपने एक आयुक्त की नियुक्ति की है. किस प्रक्रिया के तहत आपने उनको नियुक्त किया है?
जस्टिस केएम जोसफ के बाद रस्तोगी अजय रस्तोगी ने भी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि आपने इसकी न्यायपालिका से तुलना की है. न्यायपालिका में भी नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव आए. मौजूदा सिस्टम में अगर खामी हो तो उसमें सुधार और बदलाव लाजिमी है. सरकार जो जज और सीजेआई की नियुक्ति करती थी तब भी महान न्यायाधीश बने. लेकिन प्रक्रिया पर सवालिया निशान थे. प्रक्रिया बदल गई.
जस्टिस रस्तोगी ने सरकार से दोटूक पूछा, आप चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करते समय सिर्फ नौकरशाहों तक ही सीमित क्यों रहते हैं? अटॉर्नी जनरल ने कहा कि ये तो एक अलग बहस हो जाएगी. अगर किसी मामले में कोई घोषणापत्र है तो हम उसका पालन कैसे नहीं करेंगे? इससे पहले अटॉर्नी जनरल ने कहा कि ये कहना कि सरकार पिक एंड चूज यानी मनपसंद अफसर को उठा कर ही नियुक्त कर देती है ऐसा नहीं है.
जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा हमें एक सीईसी की आवश्यकता है जो पीएम के खिलाफ भी कार्रवाई कर सके.उदाहरण के लिए मान लीजिए कि प्रधान मंत्री के खिलाफ कुछ आरोप हैं और सीईसी को कार्रवाई करनी है. लेकिन सीईसी कमजोर घुटने वाला है. वह एक्शन नहीं करता है. क्या यह सिस्टम का पूर्ण रूप से ब्रेकडाउन नहीं है? सीईसी को राजनीतिक प्रभाव से अछूता माना जाता है और स्वतंत्र होना चाहिए. ये ऐसे पहलू हैं जिन पर आपको ध्यान रखना चाहिए. हमें चयन के लिए एक स्वतंत्र निकायकी आवश्यकता है, न कि सिर्फ कैबिनेट की कमेटियों का कहना है कि बदलाव की सख्त जरूरत है. राजनेता भी छत से चिल्लाते हैं लेकिन कुछ नहीं होता.
अब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बहस शुरू की. उन्होंने कहा, " ये संसद का डोमेन है. इसमें अदालत को नहीं जाना चाहिए. अदालत को ऐसे रास्ते में नहीं जाना चाहिए जो संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के पृथ्क्कीकरण में छेड़छाड़ करता हो. ऐसी धारणा बनाई गई है कि नियुक्ति प्राधिकारी में किसी की उपस्थिति होनी चाहिए जो कार्यपालिका का हिस्सा नहीं हो. इसका मतलब होगा संविधान को फिर से लिखना. जस्टिस जोसेफ ने कहा कि सीजेआई सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में शामिल हैं, वहां लोकतंत्र को कहां से खतरा है. हमारी अदालतों ने फैसले दिए हैं और उन्हें कार्यपालिका ने स्वीकार किया है. बेंच के सुझाव पर प्रतिक्रिया देते हुए कि सीजेआई को चयन पैनल का हिस्सा होना चाहिए. एसजी तुषार मेहता ने कहा, "इसी तरीके से CAG और राज्यपालों की नियुक्तियां भी होती हैं. कल को सवाल उठेगा कि इसमें भी प्रक्रिया बदले. CBI निदेशक एक कार्यकारी अधिकारी है लेकिन सीईसी एक उच्च संवैधानिक प्राधिकारी है.
एसजी तुषार मेहता ने कहा, 'यदि कानून की आवश्यकता है तो आप संसद को सुझाव दे सकते हैं. न्यायालय परमादेश जारी नहीं कर सकता. न्यायालय ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो संसद को करना चाहिए. कानून के अभाव में, अदालत यह नहीं कह सकती कि यही कानून है और इसलिए आप कानून होने तक इसका पालन करें. राष्ट्रपति सर्वोच्च अधिकारी है. वह नियुक्त करते हैं. उनके पास कानून के अभाव में एक तंत्र है. अब नियुक्ति को सिर्फ इसलिए अवैध नहीं कहा जा सकता क्योंकि कोई कानून नहीं है. उन्होंने कहा कि नौकरशाह कमाल का काम कर रहे हैं. वे नीतिगत फैसलों को लागू कर रहे हैं. भ्रष्ट, अक्षम नौकरशाह हो सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं लेकिन पूरी नौकरशाही बिरादरी को एक ब्रश से पेंट नहीं किया जा सकता है, संविधान की सीमा के भीतर कार्यपालिका की स्वतंत्रता पवित्र है. अदालत केवल सुझाव दे सकती है, आदेश जारी नहीं कर सकती. सिर्फ इसलिए कि नियुक्ति की प्रक्रिया पर संविधान मौन है, न्यायपालिका हस्तक्षेप नहीं कर सकती. हम संविधान के साथ काम कर रहे हैं किसी रेंडम क़ानून से नहीं.