बिलकिस बानो केस (Bilkis Bano case) के गुनाहगार गैंगरेप और हत्या जैसे जघन्य अपराध के दोषी थे लेकिन 15 साल जेल में रहने के बाद वे आजाद हो गए. गुजरात सरकार () ने सभी 11 दोषियों को समय से पूर्व रिहाई दे दी. सवाल यह है कि ऐसे केसों के गुनाहगार जो ताउम्र जेल की सलाखों के पीछे रहने चाहिए वे इतनी जल्दी बाहर कैसे आ गए? इसके पीछे कानूनी दांव पेंच हैं जो सुप्रीम कोर्ट में चले, और फिर मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया जिसका फायदा इन दोषियों को मिल गया.
दरअसल दोषी राधेश्याम भगवानदास शाह लाला वकील ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि उसे जेल में 15 साल से ज्यादा हो चुके हैं. ऐसे में गुजरात सरकार को निर्देश दिए जाएं कि वह 9 जुलाई 1992 की नीति के तहत समय- पूर्व रिहाई पर विचार करे. सुप्रीम कोर्ट में दोषी की ओर से बताया गया कि एक अन्य दोषी ने ऐसी ही याचिका बॉम्बे हाईकोर्ट में दाखिल की थी लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने ये कहते हुए अर्जी खारिज कर दी कि ये मामला गुजरात का है.
सुप्रीम कोर्ट ने केस की अजीबोगरीब स्थिति को देखते हुए ट्रायल मुंबई की निचली अदालत में ट्रांसफर किया था. वहीं दोषी लाला वकील ने गुजरात हाईकोर्ट में भी ऐसी याचिका दाखिल की थी जिसे हाईकोर्ट ने 2019 में ये कहते हुए खारिज कर दिया कि ट्रायल मुंबई में चला था इसलिए समय पूर्व रिहाई का क्षेत्राधिकार महाराष्ट्र का है ना कि गुजरात का.
वकील ऋषि मल्होत्रा के माध्यम से दोषी ने सुप्रीम कोर्ट में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया कि महाराष्ट्र सरकार ही इस पर विचार करेगी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी दलील नामंज़ूर कर दी और पहले के फैसले के आधार पर कानून तय किया कि समय पूर्व रिहाई पर विचार करने का क्षेत्राधिकार उस राज्य को होगा जहां अपराध हुआ है. यानी इस मामले में गुजरात सरकार का ही क्षेत्राधिकार रहेगा. लेकिन असली दांव पेंच चला इसी मामले के दूसरे मुद्दे पर. मुद्दा ये था कि गुजरात सरकार कौन सी नीति के तहत समय- पूर्व रिहाई पर विचार करे. गुजरात में 1992 की नीति पर जो दोषियों के सजा होने के समय लागू की थी या फिर 2014 की नीति पर.
यहां पर सुप्रीम कोर्ट ने पुराने फैसले के आधार पर फैसला दिया कि चूंकि सजा होने के समय गुजरात में 1992 की नीति लागू थी इसलिए गुजरात सरकार उसी नीति के तहत दोषी की समय- पूर्व रिहाई की अर्जी पर विचार करे. बस ये फैसला दोषियों के लिए मददगार साबित हो गया और गुजरात सरकार ने उस नीति के तहत एक कमेटी का गठन किया और तीन महीने से पहले ही दोषी जेल से बाहर आ गए.
दरअसल 1992 की नीति में 14 साल की सजा के बाद उम्रकैद के कैदियों की समय पूर्व रिहाई पर विचार हो सकता था
लेकिन 2014 में केंद्र सरकार के प्रस्ताव से जो नीति आई उसमें एक अध्याय और जोड़ा गया जिसमें कहा गया कि रेप, गैंगरेप और हत्या जैसे जघन्य अपराधों में उम्रकैद के सजायाफ्ता की समय- पूर्व रिहाई पर विचार नहीं होगा. यानी 1992 की नीति का फायदा उठाते हुए दोषी जेल से बाहर आ गए.
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