कास्ट - कार्तिक आर्यन , श्रेयस तलपड़े , विजय राज़ , यशपाल शर्मा , ब्रिजेंद्र काला, भुवन अरोड़ा.
निर्देशक - कबीर ख़ान.
संगीत - प्रीतम.
कौन हैं मुरलीकान्त पेटकर?
महाराष्ट्र के सांगली में जन्मे मुरलीकान्त ने खेलों में अपनी शुरुआत पहलवानी से की फिर फ़ौज में भर्ती हुए और यहाँ बॉक्सिंग के रिंग में जा जमे. 1965 के भारत -पाकिस्तान के युद्ध के दौरान उन्हें 9 गोलियाँ लगी जिसके बाद वो दो साल तक बेहोश रहे. गोली रीढ़ की हड्डी में फँसे रहने के कारण मुरलीकान्त पेटकर के धड़ से नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया तो उन्होंने तैराकी की और रुख़ किया और उसके बाद उन्होंने जर्मनी में हुए 1972 के पैरालिंपिक में हिस्सा लिया और गोल्ड मेडल जीता.
कुछ बातें
हिन्दी सिनेमा में अब तक बहुत से खिलाड़ियों के जीवन पर फ़िल्में बन चुकीं हैं और इन फ़िल्मों का ढर्रा क़रीब क़रीब एक सा होता है जिसके कारण हाल फ़िलहाल आयी कुछ फ़िल्में दर्शकों को उबाऊ लगीं और ये असफल रहीं और चंदू चैंपियन में भी यही डर था साथ ही स्पोर्ट्स बॉयोपिक्स की यही बात चंदू चैंपियन के लिए ख़तरनाक हो सकती थी .
कैसी है फ़िल्म ?
पहले बात कर लेते हैं फ़िल्म की ख़ामियों की. जैसा मैंने कहा की इस फ़िल्म के लिए रोड़ा हैं वो फ़िल्में जो खिलाड़ियों के जीवन पर आधारित है क्योंकि उनमें कोचिंग से लेकर खिलाड़ी की तैयारी तक सब एक जैसा ही होता है और बतौर दर्शक आपको पूर्वाभास रहता है की आगे क्या आने वाला है.
दूसरी ख़ामी फ़िल्म के कई सीन देखते वक़्त आप को ‘ भाग मिल्खा भाग ‘ की याद आ जाती है फिर चाहे वो गाना ‘ ऐश करे पड़ोसी ‘ हो जो मिल्खा के हवन करेंगे की याद दिलाता है , मुख्य किरदार के पहली बार हवाई जहाज़ में बैठने का दृश्य हो या फिर फ़ौज के ट्रेनिंग दृश्य हों ख़ासकर यशपाल शर्मा का किरदार जो मिल्खा के प्रकाश राज की याद दिलाता है.
तीसरी चीज़ फ़िल्म के पहले हिस्से में जहां कार्तिक पहलवानी करते हैं वहाँ उनका शरीर एथलीट का ज़्यादा लगता है बनस्पत पहलवान के.
खूबियां
मुरलीकान्त की ज़िंदगी वाक़ई बाक़ी खिलाड़ियों की ज़िंदगी से अलग है और उनके जीवन के अलग-अलग पड़ाव पर अलग-अलग चुनौतियाँ फ़िल्म को रोचक बना देती हैं और फ़िल्म देखते वक़्त आपको अहसास होता है की ये कहानी कही जानी ज़रूरी थी क्योंकि लोग इससे अनजान थे.
ये फ़िल्म क़रीब ढाई घंटे की है पर फ़िल्म की लिखाई और कबीर का निर्देशन इसमें झोल नहीं आने देता. फ़िल्म का चुटकीलापन आपको कई जगह हंसायेगा भी ख़ास कर पुलिस स्टेशंस के दृश्यों में.
फ़िल्म का स्क्रीनप्ले कसा हुआ है जो दर्शकों को अपने साथ भावनात्मक सफ़र पर ले जाता है और स्क्रीन से नज़र हटाने का मौक़ा नहीं देता.
अभिनय की बात करें सबसे पहले बात श्रेयस तलपड़े की जिन्होंने अपने सीन्स में जान डाल दी और उसमें उनका साथ दिया ब्रिजेंद्र काला ने. विजय राज़ और भुवन अरोड़ा का बेहतरीन काम। टोपाज़ के किरदार में राजपाल यादव भी छाप छोड़ते हैं. आख़िर में बात कार्तिक आर्यन की शारीरिक मशक़्क़त के साथ फ़िल्म के कई भावनात्मक दृश्यों में उनकी मेहनत नज़र आती है , इस फ़िल्म के कुछ दृश्यों में उनके अभिनय में गहराई महसूस होती है.
संगीत की बात करें तो चाहे गानों की लिखाई हो या प्रीतम का संगीत दोनों अच्छे हैं. कौसर मुनीर और अमिताभ भट्टाचार्य के लिरिक्स का अपना अन्दाज़ होता है और इन दोनों के ही अन्दाज़ को निर्देशक कबीर ख़ान ने फ़िल्मों के गीतों में बखूबी इस्तेमाल किया है. अब तक कई फ़िल्में स्पोर्ट्स पर आ चुकीं है और उनमें संघर्ष और जीत के गाने होते हैं पर बावजूद इसके इन दोनों गीतकारों के शब्दों में ताज़गी है.
सुदीप चटर्जी की सिनेमेटोग्राफ़ी अच्छी है , कई दृश्यों में आपको नयापन नज़र आएगा फिर चाहे वो ट्रेन के ऊपर सिल्हुएट में नाचते जवानों का दृश्य हो या तैराकी के दृश्य हों.
फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर जूलियस पैकीम का है जो की कहानी को बल देता है और फ़िल्म के साथ न्याय करता है. कबीर ख़ान एक अच्छे निर्देशक हैं और उनके निर्देशन की वजह से ही ये फ़िल्म दर्शकों को आकर्षित करने में सफल होती है.
स्टार्स- 3.5.
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