This Article is From Sep 23, 2021

बचत का ब्याज निगेटिव, घट गई कमाई

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Ravish Kumar

उन लोगों ने कभी कहा तो नहीं लेकिन उन्हें पता है कि उनका जीवन कैसे चल रहा है. रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप में बस यही पूछ लें कि बैंकों में बचत पर मिलने वाले ब्याज का क्या हाल है. वे प्याज़ का रोना रोने लगेंगे ताकि आपका ध्यान बंट जाए और इस सवाल का जवाब नहीं देना पड़े. ऐसे बहुत से लोग हैं जो बैंकों में बचत पर मिलने वाले ब्याज से अपना ख़र्च चलाते हैं. यह एक निश्चित सी कमाई होती है और ज़्यादातर मामलों में सीमित भी. अब अगर ये कमाई भी घटने लगे, माइनस में जाने लगे तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि गोदी मीडिया पर भारत को सुपर पावर बताने की होड़ क्यों मची है. इसीलिए ताकि आम लोगों की खस्ता आर्थिक हालात पर चर्चा न हो सके. जिस तरह से अच्छी नौकरी और अच्छी सैलरी के दिन चले गए उसी तरह से सुरक्षित बचत के भी दिन चले गए. या तो शेयर बाज़ार का खेल सीख लीजिए या फिर माइनस में जा रही कमाई को देखते रहिए. आपके पुराने सारे रास्ते बंद हो चुके हैं. 

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में माना गया है कि बचत पर ब्याज से जीने वाले लोगों की कमाई निगेटिव हो गई है. बैंक की अर्थशास्त्री ने सुझाव दिया है कि जो वरिष्ठ नागरिक हैं उनकी हालत ठीक नहीं है. सरकार को बचत के ब्याज पर आयकर लगाने पर विचार करना चाहिए. इस समय वरिष्ठ नागरिकों को पचास हज़ार से अधिक ब्याज होने पर टैक्स लगता है. सवाल है कि ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी नौकरी चली गई है, जो बचत पर ही गुज़ारा कर रहे हैं, ब्याज कम होने की मार उन पर भी पड़ी है तो उन्हें भी ब्याज पर लगने वाले टैक्स से राहत क्यों न दी जाए. 

स्टेट बैंक ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि वरिष्ठ नागरिकों को टैक्स में राहत देने से उनके हाथ में खर्च के लिए पैसा आएगा. बैंक अब ब्याज बढ़ाने की स्थिति में नहीं हैं. मुद्रा स्फीति, महंगाई की दरों को आप ब्याज के साथ एडजस्ट करेंगे तो पता चलेगा कि कमाई कितनी कम हो गई है. निगेटिव हो चुकी है. इसलिए भी लोगों के पास खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं. मानसून सत्र में कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने एक सवाल पूछा था कि क्या यह सही है कि बैंकों में एक साल के लिए जमा पैसे पर मिलने वाला ब्याज महंगाई की दर से कम है? जून 2020 से मई 2021 के बीच मंहगाई की दर और ब्याज दरों का एक चार्ट सरकार ने बनाकर एक लिखित जवाब में पेश किया है. आप देख सकते हैं कि बैंकों का ब्याज महंगाई की दर से कितना कम हो चुका है. इस जवाब में वित्त राज्य मंत्री ने बताया है कि बैंकों के ब्याज दरों में कमी करने से भी उधार लेने की दर में कोई खास वृद्धि नहीं हुई है. जस की तस बनी हुई है.

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नौजवान के पास नौकरी नहीं, बुज़ुर्ग के पास बचत से कमाई नहीं है. 80 करोड़ लोग मुफ्त अनाज की लाइन में लगे हैं. इस तंगी को समझने के लिए आप उत्तर प्रदेश का उदाहरण समझ सकते हैं. पिछले दिनों मोदी थैला बांटने का विज्ञापन अखबारों में छपा था. यूपी के मुख्यमंत्री और भारत के प्रधानमंत्री की तस्वीर छपी थी. इसके विज्ञापन में बताया गया था कि यूपी के 15 करोड़ लोगों को राशन और झोला दिया जाएगा. यूपी की आबादी 24 करोड़ है. 24 करोड़ में से 15 करोड़ लोग मुफ्त राशन पर आश्रित हैं. अगर इससे भी आबादी के लिहाज़ से भारत के इस सबसे बड़े राज्य की ग़रीबी का अंदाज़ा नहीं होता है तो आप भारतीय रिज़र्व बैंक की Handbook of Statistics on the Indian Economy 2020-21 पढ़ सकते हैं. इसमें बताया गया है कि यूपी की प्रति व्यक्ति आय 44, 600 रुपये है. यह कितना कम है सिर्फ एक आंकड़े से पता चल जाता है. पंजाब और उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति आय सवा लाख से अधिक है. गोवा की तो 3 लाख है. इस आंकड़े से समझ सकते हैं कि यूपी के लोगों के पास कितना कम पैसा है. कितनी ग़रीबी है. मोदी झोला न मिले तो दो वक्त का खाना मुश्किल हो जाए. 

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इंडियन एक्सप्रेस में उदित मिश्रा ने भारतीय रिज़र्व बैंक के इस हैंडबुक पर एक विश्लेषण पेश किया है. उनके अनुसार 2018 से 2020 के बीच उत्तर प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि राष्ट्रीय औसत से भी बहुत कम है. अगर आप इसमें 2021 का भी शामिल कर लें तो प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि 0.1 प्रतिशत हो जाती है. यानी चार  साल में प्रति व्यक्ति आय बढ़ी ही नहीं है. ये उस विकास का हाल है जिसकी तारीफ में करोड़ों रुपये के विज्ञापन छपते हैं. तो आपने देखा कि एक बड़ा राज्य है जहां के लोगों की आय बढ़नी बंद हो चुकी है और दूसरी तरफ बैंकों में बचत के ब्याज पर जीने वालों की कमाई निगेटिव हो गई है. हम ऐसे समाज से बात कर रहे हैं जिसकी आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी है. 

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हिन्दू मुस्लिम नेशनल सिलेबस, अतीत के गौरव की बहाली, किसी न किसी महापुरुष की मूर्ति और स्मारक, जयंती और पुण्यतिथि पर स्मरण और भारत को विश्व गुरु बनाना, दुनिया में भारत का नाम होना, ये सब आज के भारत के राष्ट्रीय खेल हैं. खो-खो कबड्डी. इसे खेलते हुए पता ही नहीं चलता है कि जीवन बर्बाद हो चुका है. एक तरह से अच्छा भी है कि लोग इन सब विषयों में खोए हैं वर्ना उनकी नींद उड़ रहती. अगस्त महीने में सरकार ने भी लोकसभा में 2018-2019 के लिए प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा पेश किया है. इसके अनुसार उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 43, 670 है. बिहार की प्रति व्यक्ति आय 28,668 है. प्रति व्यक्ति आय के मामले में बिहार सबसे नीचे है. यूपी बिहार से ठीक ऊपर है यानी नीचे से नंबर दो है. 

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120 सांसद भेजने वाले इन दो बड़े राज्यों की हालत सरकार के ही डेटा से बाहर आ जाती है. राजनीति के तेवर देखिएगा तो लगेगा कि इनसे ज्यादा किसी ने तरक्की नहीं की है. इतनी गरीबी के बाद भी दोनों प्रदेशों की राजनीति में आर्थिक मुद्दों की कोई जगह नहीं. लोग मंदिर बनने को लेकर सपना देख रहे हैं और नौजवान नेहरू के मुसलमान होने पर खुश हैं. हमने राजनीति को इस स्तर पर पहुंचा दिया है. किसी को फर्क नहीं पड़ता कि बिहार के उप मुख्यमंत्री की बहू और कुछ करीबी रिश्तेदारों को ही नल जल योजना को ठेका मिला है. 53 करोड़ का. असल में ग़लत में ही दिन रात रहने की इतनी आदत हो गई है कि ग़लत का पता भी नहीं चलता. एक्सप्रेस के संतोष सिंह की ये रिपोर्ट है. ताराकिशोर प्रसाद बिहार के उप मुख्यमंत्री हैं. बीजेपी से विधायक हैं. 

सोमवार को बेंगलुरु में हज़ारों कंस्ट्रक्शन मज़दूरों ने सीएम आफिस चलो के नाम से मार्च निकाला. इसकी चर्चा इसलिए कर रहा हू कि बिल्डिंग और कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों की बात है और मज़दूरों को पता चले कि उनके कल्याण के लिए जमा पैसे का क्या हो रहा है. बेंगलुरु में हुए इस प्रदर्शन में कई मज़दूर संगठन एक साथ आगे आए हैं. सीटू के नेता ने फोन पर बताया कि कर्नाटक के कंस्ट्रक्शन वेलफेयर बोर्ड के पास 10, 400 करोड़ रुपये जमा है और करीब तीस लाख मज़दूर पंजीकृत हैं. पढ़ाई, शादी और पेंशन से लेकर 19 तरह के काम में यह बोर्ड मज़दूरों को पैसे दे सकता है लेकिन मज़दूर संघ के नेता ने बताया कि सभी मज़दूरों को पैसे नहीं मिलते हैं और इसमें बड़ी संख्या में बोगस मज़दूरों को पंजीकृत कराया गया है जो नेताओं के अपने आदमी होते हैं. कोविड के समय बोर्ड ने 5000 से अधिक की राशि देने का एलान किया था लेकिन डेढ़ लाख से अधिक मज़दूरों को नहीं मिला और बहुत से बोगस मज़दूरों को मिल गया. 
संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में लिखा है कि महामारी की पहली लहर के दौरान कर्नाटक में 13 लाख 62 हज़ार से अधिक मज़दूरों को 681 करोड़ रुपया दिया गया. यानी सभी को नहीं मिला है. तब किसी को राशन का किट नहीं दिया गया था. इस बार मज़दूर संघ मांग कर रहा है कि तालाबंदी हटने के बाद भी कंस्ट्रक्शन का काम पूरी तरह चालू नहीं हो सका है, मजदूरों के हाथ में पैसे नहीं है, तो बोर्ड उन्हें एक बार में 10,000 रुपये दे. मज़दूर संघ का कहना है कि बोर्ड इसकी जगह राशन किट खरीदकर दे रहा है जो पहले ही इन मज़दूरों को बीपीएल कार्ड होने के कारण मिल रहा है. आरोप लगाया कि जो किट दिए जा रहे हैं उन्हें भी बाज़ार के रेट से अधिक दाम पर ख़रीदा गया है. सरकार बोर्ड के पैसे से दूसरे लोगों के वेलफेयर पर पैसे खर्च करना चाहती है जिसका मजदूर संघ विरोध करता है. न्यूज़क्लिक में खबर छपी है कि सरकार बोर्ड के पास जमा पैसे से टीका खरीदना चाहती है. इस फैसले का भी मज़दूर संघों ने विरोध किया है. उनका कहना है कि राशन किट और मज़दूरों को सुरक्षा और उपकरण किट देने के नाम पर बिना टेंडर के खरीद हुई है. ख़रीदारी में कोई पारदर्शिता नहीं बरती जा रही है. ये सारे किट विधायकों से बंटवाए जा रहे हैं. मज़दूरों को सीधे नहीं दिया जा रहा है. मज़दूर संघ इसे लेकर जागरुकता अभियान चला रहे हैं. 

पिछली बार जब 21 दिनों की तालाबंदी का फैसला लिया गया तो सवाल उठा कि जो दिहाड़ी मज़दूर हैं वो क्या खाएंगे. उनका काम तो बंद हो गया. तब वित्त मंत्री ने कहा था कि केंद्र ने राज्यों को आदेश दिया है कि वे कंस्ट्रक्शन मज़दूरों के कल्याण के फंड से उनकी सहायता करें. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार बताया गया था कि उस समय 3.5 करोड़ लेबर पंजीकृत हैं. (1996 के बने कानून के अनुसार Construction workers welfare fund में तब 31,000 करोड़ रुपया जमा था. वैसे 2019 में शशि थरूर ने लोकसभा में यह सवाल उठाया था कि मज़दूरों के कल्याण के लिए जमा 30,000 करोड़ रुपया ऐसे ही पड़ा हुआ है.) 

दूसरे राज्यों के मज़दूरों को कर्नाटक में हुए मज़दूरों के प्रदर्शन से सीखना चाहिए. इसी 3 अगस्त को संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में कहा गया है पहली लहर में मात्र 6506 करोड़ रुपये ही मज़दूरों को दिए गए और दूसरी लहर में यह राशि घटकर 1708 करोड़ हो गई. जिस वक्त ज्यादा पैसे दिए जाने चाहिए थे उस वक्त सबसे कम दिए गए. कई राज्यों ने मज़दूरों के हाथ में कैश नहीं दिया. केवल 7 राज्यों ने कैश दिया या राशन किट दिया. पौने दो साल में बिल्डिंग के क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों के सामने ऐसी भयानक तबाही गुज़री लेकिन सरकार उनके हाथ में पैसे नहीं दे सकी. पंजाब में भी कर्नाटक जैसा मामला सामने आया है. पंजाब के मज़दूरों ने हाईकोर्ट में सरकार के खिलाफ केस किया है कि उनके कल्याण के पैसे से टीके खरीदे जा रहे हैं मजदूरों के लिए. सोचिए मज़दूरों के कल्याण के लिए जो पैसे हैं उससे टीका खरीदा जा रहा है और फोटो प्रधानमंत्री का लग रहा है कि मुफ्त टीका दिया जा रहा है. (तभी सोचिए जब ज़रूरी हो otherwise सोचना बहुत ज़रूरी नहीं है. पंजाब में श्रम विभाग ने कंस्ट्रक्शन मज़दूरों के टीके के लिए सात करोड़ से अधिक का भुगतान किया है.)

हरियाणा में बेरोज़गारी की दर 35 प्रतिशत से अधिक है. हरियाणा के युवाओं की क्या हालत होगी यह सोच कर रूह कांप जाती है. बशर्ते उन्हें पता भी हो कि उनके साथ क्या हुआ है. बारिश में भीगती छात्राओं की कहानी बेरोज़गारी की नहीं है लेकिन मेडिकल छात्राएं एक ऐसी बात के लिए भीग रही हैं जिसे बर्दाश्त न कर इन सभी ने शानदार मिसाल पेश की है. हरियाणा के सोनिीपत के भगत फूल सिंह मेडिकल कॉलेज की इन छात्राओं की मांग है कि यहां पढ़ाने वाले डॉक्टर सुमित कुमार को नौकरी से निकाल दिया जाए. डॉ सुमित कुमार पर आरोप है कि उन्होंने छात्राओं को गालियां दीं और भद्दे इशारे किए.कालेज ने इसकी जांच के लिए कमेटी भी बनाई जिसने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. टीचर सुमित कुमार को पढ़ाने के काम से हटा तो दिया गया है लेकिन छात्राओं का कहना है कि शिक्षक को नौकरी से ही निकाला जाना चाहिए. दो दिनों से प्रदर्शन कर रही हैं तब भी कार्रवाई में देरी हो रही है. इन छात्राओं ने अपने इरादे से डॉ सुमित कुमार जैसे शिक्षकों को संदेश भेज दिया है कि पढ़ाई एक गंभीर मामला है और लोकतांत्रिक मामला है. इधर मालिक बनकर गाली देकर पढ़ाना बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. इन छात्राओं ने जो काम किया है उसकी तारीफ प्रधानमंत्री को मन की बात में करनी चाहिए. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के लिए. 

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