सूचनाओं की रफ़्तार इतनी तेज़ हो चुकी है कि किसी मुद्दे पर बात करना और बात नहीं करना दोनों ही बराबर हो चुका है. एक बदलाव और हुआ है. राज्य की सत्ता की तरफ से और उसकी ख़ुशामद में ऐसी सूचनाएं पैदा की जा रही हैं जो दरअसल सूचनाएं हैं ही नहीं. जिनका काम ज़रूरी मुद्दों से जुड़ी सूचनाओं पर पर्दा डालना है. ठीक उसी तरह से जब ट्रंप अहमदाबाद आए तो सड़क किनारे की बस्ती की ग़रीबी न दिख जाए इसके लिए दीवार बना दी गई. उस दीवार को रंग दिया गया. यही काम न्यूज़ चैनल और अख़बार करते हैं. आपकी गरीबी बेकारी, स्वास्थ्य पर बात न करके, फालतू टाइप के विषय की दीवार खड़ी कर देते हैं और आपको ट्रंप की तरह सूचनाओं के नए और झूठे एक्सप्रेस वे से गुज़ारते हुए सीधे झूठ के स्टेडियम में ले जाते हैं. समाचार जगत के संपर्क में आएं तो समाचार के लिए नहीं आएं. समाचार तो बंद हो चुका है. प्रोपेगैंडा का खेल अगर नहीं समझेंगे तो जल्दी ही दो सौ रुपए लीटर पेट्रोल ख़रीदेंगे और बोल नहीं पाएंगे.
किसी को भी न्यूयार्क टाइम्स के नाम से छपी एक ख़बर को देखकर समझ जाना चाहिए था कि वह फर्ज़ी है. फिर भी लोग यकीन करते हैं और कुछ लोग सवाल करते हैं. सवाल अगर यह पूछते कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसा कौन सा काम किया है कि न्यूयार्क टाइम्स उनके बारे में पहले पन्ने पर लिखेगा कि धरती की अंतिम और श्रेष्ठ आशा, दुनिया के सबसे चहेते और सबसे शक्तिशाली नेता हमें आशीर्वाद देने के लिए आए हैं. इसकी फेक तस्वीर में प्रधानमंत्री ख़ाली पन्ने पर दस्तख़त कर रहे हैं. कोई भी समझ सकता था कि यह फेक है. लेकिन यह किसने किया, कहां से शुरू हुआ, इन दोनों बातों की जानकारी धरती के पहले और अंतिम ज़ीरो टीआरपी वाले इस एंकर को नहीं है. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के अंकिलों ने इस पर यकीन कर भी लिया होगा. आज न्यूयार्क टाइम्स ने अपने ट्वीटर हैंडल से इसका खंडन कर दिया है. कहा है कि यह फेक है. कहने का मतलब है कि फेक न्यूज़ के कारण आए दिन बदनामी हो रही है.
भारत सरकार के पास भी ऐसी ग़लत चीज़ों को फैक्ट चेक करने का सिस्टम है. हालांकि इसके ट्वीटर पर लिखा है कि उसका काम सरकार की नीतियों को लेकर फैलाई जा रही गलत जानकारियों से सावधान करना है. लेकिन @PIBFactCheck के हैंडल से कुछ ऐसे फेक न्यूज़ का भी पर्दाफाश किया गया है जिनका संबंध सरकार की नीतियों से नहीं है. जैसे मीराबाई चानू के ओलिंपिक जीतने पर खेल मंत्रालय का एक पोस्टर वायरल हो गया जिसमें प्रधानमंत्री मोदी को धन्यवाद दिया जा रहा हैं. पीआईबी ने इसका फैक्ट चेक किया था. तब फिर PIB न्यूयार्क टाइम्स को लेकर भी फैक्ट चेक कर सकती थी. अगर ऐसा होता तो न्यूयार्क टाइम्स को खंडन करने की ज़रूरत नहीं पड़ती और प्रधानमंत्री पर आंच नहीं आती.
विगत दिनों भारत के विगत आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद ख़ासे आक्रामक हुए थे. उस समय ट्विटर वगैरह को लेकर विवाद हो रहा था. दलील दी जा रही थी और आईटी एक्ट के नियमों का हवाला दिया जा रहा था. काफी बड़ा मुद्दा बना था कि सोशल मीडिया कंपनियों को किसी मैसेज की उत्पत्ति कहां हुई है, बताना होगा. तो अब सरकार बताए कि यह फेक पोस्टर कहां से शुरू हुआ, किसकी फैक्ट्री से बना, किन किन लोगों के इनबॉक्स से होते हुए दिमाग़ में गया और वहां भूसा बनकर बैठ गया. क्या इस फेक न्यूज़ से भारत के प्रधानमंत्री की छवि ख़राब नहीं हुई है? एक बार रिलायंस जियो और पेटीएम ने अपने विज्ञापन में प्रधानमंत्री की तस्वीर का इस्तेमाल किया था तब उपभोक्ता मंत्रालय ने नोटिस भेज दिया. क्योंकि बहुत आलोचना होने लगी. जवाब में दोनों कंपनियों ने इसके लिए माफी मांगी थी. ऐसा सरकार ने राज्य सभा में बताया है. इस तरह से न करें 500 रुपये का जुर्माना लग सकता है. ये सब बाई द वे बता रहा हूं.
इसी न्यूयार्क टाइम्स में प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार को लेकर आलोचनात्मक ख़बर छप जाती है तो कहा जाता है कि विदेशी मीडिया भारत को बदनाम कर रहा है. और जब प्रचार करना होता है तो उसी न्यूयार्क टाइम्स का सहारा लेकर फेक न्यूज़ तैयार की जाती है कि विदेश में बड़ा नाम हो गया है. वैसे इस फेक न्यूज़ के जवाब के साथ-साथ न्यूयार्क टाइम्स ने उन खबरों का भी लिंक दे दिया है जिनका संबंध प्रधानमंत्री और भारत से है.जिससे यह पता चल गया कि इस अखबार ने भारत के प्रधानमंत्री की यात्रा को कवर ही नहीं किया है. जो कि ठीक बात नहीं है.
वैसे प्राइम टाइम के शुरू में हमने सूचनाओं की तेज़ रफ्तार का ज़िक्र इसलिए किया क्योंकि असम के दोरांग से आई एक तस्वीर बहुत जल्दी पब्लिक स्पेस से ग़ायब हो गई. इस वीडियो में कैमरामैन बिजॉय बनिया एक लाश की छाती पर कूद रहा है जिसका नाम मोइनुल हक है. मोइनुल हक पुलिस की गोली से मारा जा चुका था. कूदने वाला व्यक्ति गिरफ्तार हो गया और न्यायिक जांच हो रही है. ऐसी ही घटना के खिलाफ अमेरिका में कितना बड़ा आंदोलन हो गया वहां पुलिस की क्रूरता को लेकर कितनी बातें हुईं. पुलिस ने माफी मांगी. लेकिन भारत में पुलिस की इस ग़लती के सामने दूसरी बड़ी ग़लतियां खड़ी कर दी गईं. ठीक ट्रंप के दौरे की दीवार की तरह और चर्चा होने लगी भूमि अतिक्रमण और PFI की भूमिका की. जिन लोगों ने मोइनुल हक के बारे में बात नहीं की उन्होंने इसलिए नहीं की क्योंकि लाश का नाम मोइनुल हक है और कूदने वाले का नाम बिजॉय बनिया और जिन लोगों ने बात की इसलिए की कि इसका नाम मोइनुल हक है और बिजॉय बनिया के दिमाग़ में ज़हर कितना फैल चुका है.
इस तरह बात से बात कैंसिल हुई और जल्दी ख़त्म हो गई. जिन लोगों ने मोइनुल हक़ के बारे में बात नहीं की वो चाहें तो कानपुर के मनीष गुप्ता की बात कर सकते हैं. असम के दोरांग की घटना को तमाम तरह के बयानों से निपटा दिया गया लेकिन गोरखपुर गए मनीष गुप्ता के साथ पुलिस ने जो किया है क्या उस पर भी बात नहीं होगी. ये जो बात नहीं हो रही है, किसे बचाने के लिए नहीं हो रही है? बात करेंगे तो आपको मोइनुल हक में मनीष गुप्ता दिखाई देंगे और मनीष गुप्ता में मोइनुल हक दिखाई देंगे.
जिस पुलिस पर मनीष गुप्ता को मार देने का आरोप है, उसी पुलिस की सुरक्षा में मनीष गुप्ता की लाश कानपुर उनके घर लाई गई है. घर के बाहर कानून और व्यवस्था के लिए पुलिस तैनात है. जबकि इसी पुलिस के छह लोगों पर मनीष गुप्ता को मार देने का इल्ज़ाम है जिन्हें निलंबित कर दिया गया है. जिस पुलिस पर हत्या का इल्ज़ाम है वही पुलिस सुरक्षा के इंतज़ाम में आई है. वर्दी की निरंतरता देखिए. हत्या और सुरक्षा दोनों में समान है. इसी निरंतरता को देखिए अगर देख सकते हैं. नहीं तो रहिए व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में और सदियों ग़ुलाम बने रहिए. क्या यह भयावह नहीं है कि जिस पुलिस ने मनीष गुप्ता को मार दिया, वही पुलिस यहां उनके दरवाज़े पर खड़ी है. क्या ऐसे में आप सुरक्षित महसूस करेंगे? क्या आपका दुख कम होगा? क्या होगा, बताइए न. पूछ रहा हूं.यह भी तो वही पूछना चाहती होगी.
जो हुआ है उस पर मनीष की पत्नी को कैसे यकीन हो सकता है. जो व्यक्ति दोस्तों के साथ गोरखपुर गया था, बिना किसी अपराध के पुलिस के हाथों मार दिया गया. इस विपत्ति पर शर्मसार होने का नाटक मत कीजिए. सबको पता है कि मनीष गुप्ता को जो इंसाफ़ मिलेगा वो इंसाफ़ नहीं होगा. इस साधारण से परिवार पर यह आपदा आई ही क्यों. गोरखपुर में इलाज की क्या व्यवस्था थी कि उन्हें बचाया नहीं जा सका या इतना मारा गया था कि बचाने की नौबत ही नहीं आई. मनीष की पत्नी मीनाक्षी पूछ रही है कि उनके पति का इलाज नहीं कराया गया, आप क्यों नहीं पूछ रहे हैं. मीनाक्षी ने बताया कि उनके पति ने उन्हें फ़ोन कर बताया था कि पुलिस उनके साथ मारपीट कर रही है. लेकिन बाद में जब उन्होंने पति को फ़ोन किया तो उनका फ़ोन नहीं उठा. भागे-भागे कानपुर से गोरखपुर पहुंचीं.
मोइनुल और मनीष. इंसाफ़ किसी को नहीं मिलेगा. इंसाफ के मिलने का नाटक ज़रूर होगा. मनीष की मौत के बाद मीनाक्षी कितना असहाय महसूस कर रही होंगी. अपने होश में नहीं होंगी लेकिन आज ही ग्यारह बजकर 35 मिनट पर यूपी के मुख्यमंत्री ट्वीट करते हैं कि सशक्त नारी, समर्थ प्रदेश, मातृशक्ति के सर्वांगीण उन्नयन हेतु प्रतिबद्ध आपकी सरकार, मिशन शक्ति फेज-3, निर्भया एक पहल.
यह घटना सामान्य है न अपवाद है. भारत के चीफ जस्टिस ने हाल ही में तो कहा था कि पुलिस से मानवाधिकार और शारीरिक संप्रभुता को सबसे बड़ा खतरा थानों में है. मतलब शरीर को कोई छू नहीं सकता लेकिन आप पुलिस के रहते इस शरीर के सुरक्षित होने का भरोसा नहीं कर सकते. मतलब पुलिस तोड़ देती है. चीफ जस्टिस की इस बात का क्या असर हुआ है. क्या किसी की बात का किसी पर कोई असर नहीं हो रहा है. मुश्किल से इस बात के दो महीने हुए हैं. गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का क्षेत्र है. उनके क्षेत्र की पुलिस भी आदर्श नहीं है तो फिर कहां की होगी.
पुलिस गोरखपुर के कृष्णा होटल के बाहर भी तैनात है. जहां रात के वक्त छह पुलिस वाले आए थे, चेकिंग के लिए.वो रात की पुलिस थी, ये दिन की पुलिस है. कमरा नंबर 512 में मनीष गुप्ता अपने दो दोस्तों प्रदीप और अरविंद के साथ रुके थे. सो रहे थे. एक तस्वीर इसी कमरे में ली गई, शायद सोने से पहले. इन्हें क्या पता होगा वही जान सकते हैं जिन्होंने पुलिस की यातना को भोगा है. जिनके परिवार के लोग बिना किसी सवाल जवाब के पुलिस के हाथों एनकाउंटर कर दिए गए. कश्मीर और पूर्वोत्तर से लेकर कहां कहां नहीं पुलिस की यातना की ऐसी कहानियां बिखरी पड़ी हैं लेकिन आपने अपनी कल्पनाओं में उस यातना की कोई तस्वीर नहीं बनने दी. कमरे में उस हिंसा के निशान मौजूद हैं.उस रात किसे पता होगा कि चेकिंग के नाम पर सोते से उठा कर पुलिस मार देगी.
कमाल ख़ान ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि गोरखपुर के एसएसपी विपिन ताडा ने अफसोस जताने के बजाए मनीष के दोस्तों की ही जांच की बात कह दी. जब मामला सामने आया तब जाकर छह पुलिस वाले निलंबित हुए और प्राथमिकी दर्ज हुई. तीन पुलिस वालों के नाम हैं जगत नारायण सिंह,अक्षय कुमार मिश्रा,और राहुल यादव.
गनीमत है कि आप दर्शकों पर चुप रहने का इल्ज़ाम नहीं है. आपकी कोई चेकिंग नहीं करेगा कि आप जनता हैं भी या नहीं. जिन्हें मोइनुल हक नहीं दिख रहा है, उन्हें मनीष गुप्ता दिख सकता है, जिन्हें मनीष गुप्ता नहीं दिख रहा है उन्हें मोइनुल हक दिख रहा है. जिन्हें कुछ नहीं देखना है, उन्हें कुछ भी नहीं दिख सकता है. जो देख रहे हैं क्या उन्हें पुलिस के सामने लाचार नागरिक दिख रहा है? तेज़ी से बदलती इन तस्वीरों में क्या आप मनीष और मोइनुल को पहचान पा रहे हैं, क्या आपको एक ही भारत का एक श्रेष्ठ भारत का एक ही नागरिक दिख रहा है. या आप अब भी पुलिस की उस परिभाषा पर यकीन कर रहे हैं जिसके तहत कोई लाश अवैध नागरिक है, अतिक्रमणकारी है, आतंकवादी है या अपराधी है. आपको तेज़ी से बदलती इन तस्वीरों में क्या दिख रहा है. कौन दिख रहा है. पुलिस दिख रही है, लाश दिख रही है, लाश दिख रही है, पुलिस दिख रही है, दोहराते जाइये न.
आपके देखते, नहीं देखते बिजॉय बनिया सीन में आ गया है, दौड़ता हुआ आ रहा है, लाश पर कूद रहा है, फिर दौड़ कर आ रहा है और लाश पर कूद रहा है. क्या आपको अब दिखा. सहिष्णु उदार लोगों को दिखा? हमारे नौजवानों को दंगाई और हत्यारा कौन बना रहा है. इनकी सोच में कौन सा ज़हर घुला है, किसने घोला है. सांप्रदायिकता इंसान को मानव बम में बदल देती है और नागरिकता का बोध खत्म कर देती है. पुलिस की यातना में अगर सांप्रदायिकता का ज़हर घुल जाए तो और खतरनाक हो जाता है. पुलिस जानती है कि जनता अपनी सुविधा से मोइनुल और मनीष को बांट लेगी. मनीष जिन्हें दिखाई देगा उन्हें मोइनुल नहीं दिखेगा, मोइनुल जिन्हें दिखाई देगा उन्हें मनीष नहीं दिखेगा.
पुलिस की यातना जनता की सोच का भी हिस्सा बन चुकी है. जनता भी पुलिस से यातना की मांग करने लगी है. नागरिकता कानून के समय ऐसे कई मीम बने कि पुलिस प्रदर्शनकारियों की पिटाई करे.अदालत के इंसाफ से पहले लोग फांसी की मांग करने लगे, फांसी की बात करते करते अब एनकाउंटर की मांग करने लगे हैं. 2019 में हैदराबाद एनकाउंटर के बाद हाल ही में तेलंगाना के श्रम मंत्री मल्ला रेडी बलात्कार के एक मामले में आरोपी के एनकाउंटर की गारंटी देने लगे. मुख्यमंत्री ठोक देने की भाषा का इस्तेमाल करने लगे हैं. हर तरफ से हिंसा को मान्यता दी जा रही है. ऐसा करते करते लोगों में हिंसा की भूख बढ़ गई और हिंसा की मास्टर स्टेट और पुलिस सप्लाई करने आ गई है. असम के मुख्यमंत्री का बयान है इस पर कि अगर आरोपी भागता है तो गोली मारी जा सकती है. इसे सही ठहराने के लिए वे किन सही कारणों को चुनाव करते हैं उसे भी ध्यान से सुनिए. तो समझ आएगा कि क्यों आप न मनीष के लिए बोल पा रहे हैं और न मोइनुल के लिए.
थानों के जो प्रभारी होते हैं उनके साथ एक बैठक में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा कहते हैं कि अगर कोई आरोपी सर्विस गन लेकर भागता है या सामान्य रूप से भागता है और वह बलात्कारी है तो ऐसे आरोपी के पांव में गोली मारी जा सकती है. लेकिन छाती में गोली नहीं मारनी चाहिए. सात जुलाई के अखबार में यह खबर छपी है. क्या किसी को यह अहसास है कि असम के मुख्यमंत्री का यह सुझाव पुलिस का आदेश बन सकता है और इसके नतीजे कितने खतरनाक हो सकते हैं.
क्या पुलिस को इस तरह की छूट मिलनी चाहिए? क्या उसके भीतर पावर का नशा होना चाहिए कि कोई नागरिक ज़रा सा सवाल कर दे तो मारते मारते उसे मार ही दे. ये जवाब आप मुझे न दें. आप मीनाक्षी जी को जवाब दीजिए, क्या उनके पति मनीष गुप्ता के साथ जो हुआ वैसा करने की छूट पुलिस को दी जा सकती है? क्या किसी भी पुलिस को किसी के खिलाफ ऐसा करने की छूट जी सकती है? क्या यह पहली घटना है, क्या यह अंतिम घटना है, इन्हें जवाब दीजिए.
एक फिल्म आई थी मसान. बनारस के एक जोड़े पर बनी थी. उसका एक सीन है. होटल में पुलिस की रेड से लड़का लड़की घबरा जाते हैं. लड़का ग़ुसलख़ाने में ख़ुदकुशी कर लेता है. पुलिसवाला लड़की को महीनों ब्लैकमेल करता रहता है.अब एक सवाल जिससे मैं भी टकराता रहता हूं. मोइनुल हक और मनीष गुप्ता के साथ हुई हिंसा की तस्वीरों को दिखाते दिखाते आप दर्शकों पर क्या बीतती है. क्या आप इस तरह की हिंसा को लेकर सतर्क होते हैं, जागरुक होते हैं या फिर इस तरह की हिंसा को लेकर सामान्य होने लगते हैं.
यह ख़्याल इसलिए आया कि नफ़रत की बुनियाद पर यहूदियों के ख़िलाफ़ जो नरसंहार हुआ उसके एक एक पहलू का अध्ययन किया गया है. दुनिया के कई देशों और खासकर अमेरिका में यह सोचकर इसकी आलोचनात्मक तालीम दी गई कि लोग नरसंहार को लेकर सतर्क होंगे और हिंसा का समर्थन नहीं करेंगे. मगर उसका असर उल्टा ही हुआ. लोग लतीफे बनाने लगे और कार्टून बनाने लगे. होलोकॉस्ट के स्कालर हैं Alvin H Rosenfeld. उनकी किताब है the end of the holocaust. इसमें बताया गया है कि होलोकॉस्ट के अध्ययन और अध्यापन से लोगों ने जिस हिंसा को समझना शुरू किया था उस समझ की यात्रा का अंत हो चुका है. एक दूसरे संदर्भ में इतिहासकार इरफान हबीब, आदित्य मुखर्जी और पंकज झा ने आपत्ति जताई है कि यूजीसी के प्रस्तावित सिलेबस में इतिहास के कोर्स में हिटलर की आर्यन थ्योरी को जगह दी गई है जो आगे चल नरसंहार का कारण बनी. अगर इसकी पढ़ाई तारीफ में होगी तो असर सोचिए क्या होगा. यह खबर टेलीग्राफ में छपी है. भारत में ही कई लोग हिटलर की तस्वीर व्हाट्सऐप की डीपी में लगाते हैं. गांधी जी के हत्यारे गोड्से को पूजा जाने लगा है. प्रेसिडेंसी कालेज के प्रो नवरस आफ़रीदी ने नरसंहार की अवधारणा पर हाल ही में एक किताब लिखी है.
हिंसा इस तरह से घुस गई है कि अब पत्रकारों की ज़ुबान से फिसलने लगी है. कार्यक्रम में थप्पड़ चलने लगे हैं और ऐंकर ललकारने लगे हैं. अंग्रेज़ी चैनल टाइम्स नाउ की ऐंकर का माफीनामा है. मंगलवार को इन्होंने ऑन एयर राहुल गांधी के लिए अपशब्द का इस्तेमाल किया. अंग्रेज़ी में इसे गाली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. बाद में इसके लिए माफी मांग ली. इनके बयान का सार यह है कि पंजाब के राजनीतिक संकट के संदर्भ में चल रही चर्चा के प्रवाह में ऐसी चूक हो गई. इस बात के लिए तत्काल माफी मांग ली गई थी. कांग्रेस ने इस पर आपत्ति जताई है.
आप देखेंगे कि इसी तरह की हिंसा विपक्ष को लेकर भरी जा रही है. ऐंकर की ज़ुबान यू ही नहीं फिसली. एक बार फिसल जाने से पहले विपक्ष को लेकर ऐंकरों की भाषा देखिए. वो भाषा कम अमर्यादित नहीं है. गोदी मीडिया में साहस नहीं है कि सरकार से दो सवाल पूछ ले लेकिन हर दिन विपक्ष को लेकर आपके दिमाग़ में ज़हर भर रहा है. उसके असर में आप भी विपक्ष से नफरत करने लगते हैं और आपके भीतर का भी विपक्ष मर जाता है. विपक्ष आपके भीतर मरा है लेकिन आप बाहर झांक रहे होते हैं कि विपक्ष दिखाई नहीं देता है. प्राइम टाइम देखा कीजिए, बीस साल बाद बहुत अफसोस होगा.